हादसे रोकने के हों गंभीर प्रयास

गुजरात के मोरबी में मच्छु नदी पर बने 140 वर्ष पुराने केबल ब्रिज के टूट जाने से 140 से ज्यादा लोग काल के ग्रास हो गए। गुजरात के मोरबी शहर में यह पुल ऐतिहासिक और तकनीकी श्रेष्ठता का नमूना माना जाता रहा है। देश की आजादी से बहुत पहले 1887 के आसपास मोरबी के तत्कालीन राजा वाघजी रावाजी ठाकोर ने जब इस पुल की कल्पना करते हुए बनवाया था, तब यूरोप की आधुनिकतम तकनीक का भी इस्तेमाल किया गया था। अचानक यह ‘झूलता पुल’ अनेक लोगों के लिए ‘काल’ साबित हुआ।

गुजरात पुलिस ने मोरबी पुल हादसे के बारे में अपनी एफआईआर में कहा है कि मच्छु नदी पर बना मोरबी केबल पुल मरम्मत कार्य व रखरखाव में कमी, कुप्रबंधन या किन्हीं अन्य तकनीकी कारणों से ढह गया। इस मामले को लेकर राजनीति भी हो रही है। इस घटना से पूर्व भी कई ऐसे हादसे हुए हैं जिनमें प्रशासन और जिम्मेदार लोगों की लापरवाही के चलते लोग काल के ग्रास में समा गए। लेकिन हम हादसे से सबक नहीं लेते। फौरी कार्रवाई के बाद व्यवस्था पुरानी पटरी पर दौड़ने लगती है। ऐसे में अहम सवाल यह है कि ऐसे हादसों होते क्यों हैं? हादसे होने के बाद उनकी पुनरावृत्ति न हो इसके लिए उचित उपाय क्यों नहीं किये जाते? वास्तव में कसूरवारों को सख्त सजा न हो पाना गलत कार्य करने वालों के हौसलों को आॅक्सीजन देता है, और फिर हमारे सामने कोई नया हादसा हो जाता है।

मोरबी नगरपालिका के साथ ओरेवा के समझौते के मुताबिक मरम्मत पूरी होने के बाद पुल को खोला जाना था। जिस जगह दुर्घटना घटी वह पिकनिक स्थल है। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, दुर्घटना का कारण पुल पर क्षमता से ज्यादा लोगों का होना बताया जा रहा है। इसको बीते 6 महीने तक मरम्मत के लिए बंद रखने के बाद चार दिन पहले ही खोला गया था। दो करोड़ रुपये खर्च कर सुधारे गये पुल पर अधिकतम 100 लोगों के जाने की स्वीकृति है लेकिन घटना के समय 500 लोग पुल पर थे।

नियमानुसार, जब कोई सरकारी संपत्ति किसी निजी कंपनी को संचालन के लिए दी जाती है, तब उस पर मालिकाना हक सरकारी संस्था के पास ही रहता है। जैसे, हाईवे पर टोल वसूली निजी कंपनियां करती हैं, लेकिन रसीद राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के नाम से ही जारी की जाती है। लेकिन 765 फीट लम्बे इस पुल को सुधार के बाद खोलने के पूर्व न तो तकनीकी अनापत्ति या फिटनेस प्रमाणपत्र लिया गया और न ही उसकी भार क्षमता का प्रमाणीकरण हुआ। मोरबी के सस्पेंशन ब्रिज के मामले में ऐसा नहीं था। पुल और टिकट दोनों पर मोरबी नगर पालिका का जिक्र तक नहीं था। यदि मरम्मत करने वाली कंपनी ने ‘फिटनेस सर्टिफिकेट’ नहीं लिया था और पुल पर भार वहन करने वाले उपकरणों, मशीनरी और निर्माण सामग्री की गुणवत्ता की जांच नहीं की थी, तब यह निश्चित तौर पर सवालिया बिंदु है और ‘वास्वविक हत्यारिन’ कंपनी ही है। लापरवाही के दोषी सरकारी, गैर-सरकारी चेहरों और अनुबंध वाली कंपनी को तुरंत बर्खास्त कर, काली सूची में, डाल देना चाहिए।

झूलता पुल से जुड़ा यह हादसा पहला नहीं है। अगस्त 11, 1979 को इसी नदी पर बना मच्छु बांध ढह गया था। तब 2000 से ज्यादा मौतें हुई थीं। यह भी पुल से ही जुड़ा रास्ता था। यही नहीं, सितंबर, 2002 में बिहार में एक रेलवे पुल टूट गया था, जिसमें 130 मौतें हुईं। 29 अक्तूबर, 2005 को आंध्रप्रदेश में वेलिगोंडा रेलवे पुल टूटा था। उसमें भी 114 जिंदगियां समाप्त हो गई थीं। केरल में 21 जुलाई, 2001 को रिवर रेलवे ब्रिज टूटने से 57 लोग मर गए थे। बिहार, असम और बंगाल में नावों में ज्यादा सवारियां भर लेने के कारण डूबने की घटनाएं होती हैं। वहीं यात्री बसों में निर्धारित संख्या से अधिक लोगों के बिठाने के बाद दुर्घटनाग्रस्त होने पर बाहर नहीं निकल पाने की वजह से बहुत सी मौतें होती रहती हैं। इनमें से अधिकतर का कारण लापरवाही और अव्यवस्था ही होती है। यदि नियमों और अपेक्षित सावधानियों का पालन किया जाए तो इनसे काफी हद तक बचा जा सकता है।

प्रत्येक हादसे के बाद सरकारी तंत्र धिसेपिटे कामों में जुट जाता है। मृतकों और घायलों को मुआवजा और सहायता राशि देने की घोषणा के साथ जांच समिति भी गठित कर दी गई है जिसकी रिपोर्ट आने तक लोग इस दुर्घटना को भूल चुके होंगे। मृतकों के परिजन मुआवजे के साथ यदि आश्रित को सरकारी नौकरी मिल गयी तो ठंडे होकर बैठ जायेंगे और जो घायल हैं वे मुफ्त इलाज के साथ मिलने वाली सहायता राशि के लालच में अपना दर्द उपेक्षित कर देंगे। स्थानीय प्रशासन जांच के दौरान तरह-तरह के दबाव झेलेगा। जिस ठेकेदार की लापरवाही के कारण हादसा हुआ उसे भी निश्चित तौर पर शासन और प्रशासन में बैठे बड़े लोगों का संरक्षण प्राप्त रहा होगा जिससे वह साफ बचकर निकल जायेगा।

विचार योग्य बिंदु यह है कि ऐसे हादसे थोड़े-थोड़े अंतराल पर होते रहते हैं। कभी किसी मंदिर में धक्का मुक्की के कारण लोग मारे जाते हैं तो कभी अग्निशमन के इंतजाम न होने से बेशकीमती जानें चली जाती हैं। ऐसे दुखद मामलों पर भी राजनीति भी होने लगती है। कांग्रेस ने भाजपा पर आरोप लगा दिया कि विधानसभा चुनाव के मद्देनजर उसने पुल को बिना पर्याप्त मरम्मत के ही खुलवा दिया। राहत कार्यों में भी श्रेय लेने की होड़ मचेगी। भ्रष्टाचार भी ऐसे मामलों में जरूरी तत्व होता ही है। यही वजह है कि दुर्घटना के कारणों पर पर्दा डालकर असली कसूरवारों को बचा लिया जाता है। जिस पुल पर दुर्घटना हुई उसका प्रबंधन भले ही किसी निजी कम्पनी के जिम्मे हो लेकिन स्थानीय प्रशासन और पुलिस का भी दायित्व था कि वह भीड़ का अनुमान लगाकर समुचित निगरानी रखते।

जाहिर है ये गैर इरादतन हत्या का मामला है लेकिन ऐसे हादसों की पुनरावृत्ति रोके जाने का तंत्र विकसित न होना भी आपराधिक उदासीनता है। जो हुआ वह बेहद दर्दनाक और दुखद ही कहा जाएगा। जिन परिवारों के लोगों की मौत हुई उनके दु:ख को मुआवजे या अन्य भौतिक लाभों से कम करना असंभव है। अनेक घायल लोग स्थायी रूप से दिव्यांग बनकर रह जाएं तो आश्चर्य न होगा।

मोरबी का हादसा रोका जा सकता था यदि पुल पर क्षमता से ज्यादा बोझ न होता। फिलहाल तो सभी का ध्यान बचाव कार्य पर है। लेकिन बाद में इस बारे में समग्र सोच के साथ आगे बढना होगा। हादसे विकसित देशों में भी होते हैं। लेकिन वे उसकी पुनरावृत्ति रोकने के बारे में समुचित प्रबंध करने के साथ ही दोषियों को दण्डित करने में रहम नहीं करते। वास्तव में चिंता और सरोकार ऐसे पर्यटन स्थलों को लेकर है, जिनके जरिए हमारी सरकारें राजस्व भी कमाती हैं। यदि ऐसे स्थलों पर हादसे होते रहे या भगदड़ की घटनाएं हुईं अथवा निर्माण टूट गया या रोप-वे फंस गया अथवा हेलीकॉप्टर कै्रश हो गया, तो अंतत: पर्यटन की संभावनाएं भी क्षीण होती जाएंगी।

भीड़ हमारे देश की आम समस्या है। लेकिन उसका प्रबंधन ही समस्या का समाधान है। दशकों पहले प्रयागराज और हरिद्वार के कुम्भ में भगदड़ के कारण सैकड़ों लोग कुचलकर मर गये थे। उस हादसे से सबक लेकर कुम्भ का आयोजन बेहद प्रोफेशनल तरीके से किया जाने लगा। ऐसी ही जिम्मेदारी बाकी आयोजनों में भी प्रदर्शित की जानी चाहिए। बुद्धिमत्ता इसी में है कि ऐसे हादसों को रोके जाने के प्रति गंभीरता बरती जाए। क्योंकि प्रत्येक नागरिक की जान बेश्कीमती है।

-राजेश माहेश्वरी, वरिष्ठ लेखक एवंस्वतंत्र टिप्पणीकार

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