‘‘था तुझे गुरूर खुद के लम्बे होने का ऐ सड़क, गरीब के हौंसले ने तुझे पैदल ही नाप दिया…’’

migrant-Laborers

विडंबना। मुश्किलों से बेजार होकर पैदल ही अपने प्रदेशों को रवाना हुए श्रमिक (migrant Laborers)

संजय मेहरा/सच कहूँ गुरुग्राम। ‘‘था तुझको गुरूर खुद के लम्बे होने का ऐ सड़क, गरीब के हौंसले ने तुझे पैदल ही नाप दिया…।’’ कोई भी इन लाइन को पढ़े तो उसके सामने वह तस्वीर आ जाती है, जो दिन-रात हम मीडिया की सुर्खियों में देखते हैं। टीवी, अखबारों और सोशल मीडिया पर आज यही सब छाया हुआ है। पांव में छाले, फिर भी चले जाते हैं लोग। चंद्रयान जैसे उपग्रहों पर इतराने वाले भारत की यह तस्वीर शर्मिन्दगी भरी है।

एक साल की उम्र से लेकर उम्रदराज व्यक्तियों ने भी नहीं मानी हार

कोरोना के खौफ के बीच अपनों के बीच जाकर जीने-मरने की बातें कहते हुए जिस तरह से श्रमिकों और उनके परिवारों ने पैदल ही रवानगी की, वह हमारे सिस्टम पर अनेक सवाल खड़े करता है। मिलेनियम सिटी गुरुग्राम से होकर कई राज्यों का रास्ता निकलता है। (migrant Laborers) यहां बात दो, चार, दस, बीस किलोमीटर, मील की नहीं, बल्कि सैकड़ों, हजारों किलोमीटर के सफर की है। पैदल, साइकिल पर मापने वाले इन श्रमिकों के अटूट हौंसले को देख हर कोई उन पर दया का भाव भी रखता है तो साथ में सरकारों को भी कोसता है। यहां हम देखें तो 24 घंटे ही लोगों का इधर से उधर आना-जाना लगा रहता है। कोई राजस्थान, एमपी जा रहा है तो कोई यूपी, बिहार।

  • हर किसी की अपनी मंजिल है अपना ठिकाना है।
  • भूख और बेरोजगारी से तंग होकर अपना चंद सामान समेट अपने प्रदेशों को रवाना हुए लोग सिर्फ यही कहते हैं ।
  • यहां मरने से अच्छा है अपनों के बीच जाकर मरें।
  • उनकी दो लाइनों की यह बात उनकी मजबूरी, उनके भय को विस्तार से बता देती है।

बसों, ट्रेनों में नंबर नहीं आया तो पैदल ही हुए रवाना

कहने को तो बसें, ट्रेनें यहां से संचालित की जा रही हैं, लेकिन उनमें भी सभी का नंबर नहीं आ रहा। 15 दिन पहले आॅनलाइन अप्लाई करने के बाद भी नंबर नहीं आया तो यहां गढ़ी-हरसरू से समूह में पैदल ही रवाना हुए यूपी के रमेश, जयराम, गुड्डू, फूलवती व सुमन का परिवार। उनकी शिकायत थी कि कहीं पर भी फोन मिला लें, कोई जवाब नहीं मिलता। ज्यादातर तो फोन ही नहीं मिलता। ऐसे में वे कब तक इंतजार करते। उधर से गांव से घरवालों का 24 घंटे दबाव रहता कि तुरंत रवाना हो जाएं। इसलिए उनकी मजबूरी बन गई।

  • छोटे बच्चों, सामान को साथ लेकर वे चल पड़े।
  • जैसे-जैसे अपने घर पहुंच ही जाएंगे, यह सोचकर उन्होंने केएमपी एक्सप्रेस-वे से पलवल की तरफ कदम बढ़ाए।
  • महिलाओं के सिर पर सामान, गोदी में बच्चा और फिर पल्लु पकड़कर साथ में चलता थोड़ा बड़ा बच्चा बार-बार पूछता कि कितनी दूर और है।
  • मां मासूमियत के साथ कहती कि थोड़ी दूर और है।

किसी के तन पर पूरे कपड़े नहीं, किसी के पांव में चप्पल

यहां से रवाना होने वालों में बहुत से बच्चे ऐसे थे, जिनका जन्म ही यहां पर हुआ है। वे पहली बार अपनों की जन्मभूमि में जा रहे थे। बेशक वे 21वीं सदी में पैदा हुए, लेकिन शायद ही वे अपने जीवन में आज से बुरा दौर देखें। बहुतों के पांवों में जूते, चप्पलें नहीं तो बहुतों के तन पर पूरे कपड़े तक नहीं। दिल्ली और इसके आसपास रहकर जीवन की गाड़ी को गति देने के उद्देश्य से यहां आए इन श्रमिकों में बहुत से तो अब तौबा करके जा रहे हैं कि वापस नहीं आएंगे। क्योंकि बहुत बुरा दौर देखा है।

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