अब जरूरत है, हर दिन मने पृथ्वी दिवस

Now needed, every day celebrate earth day

तमाम तरह की सुख-सुविधाएं और संसाधन जुटाने के लिए किए जाने वाले मानवीय क्रियाकलापों के कारण आज पूरी दुनिया ग्लोबल वार्मिंग की भयावह समस्या से त्रस्त है। इसीलिए पर्यावरण संरक्षण को लेकर लोगों में जागरूकता पैदा करने तथा पृथ्वी को बचाने के संकल्प के साथ प्रतिवर्ष 22 अप्रैल को विश्वभर में पृथ्वी दिवस मनाया जाता है।

पिछले साल कोरोना महामारी के चलते दुनिया के लगभग सभी हिस्सों में लगे लॉकडाउन के दौर में थम गई मानवीय गतिविधियों के कारण यह दिवस ऐसे समय में मनाया गया था, जब दुनियाभर के लोगों को पहली बार पृथ्वी को काफी हद तक साफ-सुथरी और प्रदूषण रहित देखने का सुअवसर मिला था। हालांकि कोरोना संकट के चलते लगाए गए लॉकडाउन के कारण पूरी दुनिया को पर्यावरण संरक्षण को लेकर सोचने का बेहतरीन अवसर मिला था, जिससे दुनियाभर के तमाम देश एकजुट होकर ऐसी योजनाओं पर विचार सकें, जिनसे पर्यावरण संरक्षण में अपेक्षित मदद मिल सके लेकिन विड़म्बना देखिये कि लॉकडाउन हटते ही धरती की हालत धीरे-धीरे हर जगह पूर्ववत बदत्तर होती गई।

प्रकृति कभी समुद्री तूफान तो कभी भूकम्प, कभी सूखा तो कभी अकाल के रूप में अपना विकराल रूप दिखाकर हमें निरन्तर चेतावनियां देती रही है किन्तु जलवायु परिवर्तन से निपटने के नाम पर वैश्विक चिंता व्यक्त करने से आगे हम शायद कुछ करना ही नहीं चाहते। अगर प्रकृति से खिलवाड़ कर पर्यावरण को क्षति पहुंचाकर हम स्वयं इन समस्याओं का कारण बने हैं और गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं को लेकर हम वाकई चिंतित हैं तो इन समस्याओं का निवारण भी हमें ही करना होगा।

ताकि हम प्रकृपि के प्रकोप का भाजन होने से बच सकें अन्यथा प्रकृति से जिस बड़े पैमाने पर खिलवाड़ हो रहा है, उसका खामियाजा समस्त मानव जाति को अपने विनाश से चुकाना पड़ेगा। लोगों को पर्यावरण एवं पृथ्वी संरक्षण के लिए जागरूक करने के लिए साल में केवल एक दिन अर्थात 22 अप्रैल को ‘पृथ्वी दिवस’ मनाने की औपचारिकता निभाने से कुछ हासिल नहीं होगा। अगर हम वास्तव में पृथ्वी को खुशहाल देखना चाहते हैं तो यही ‘पृथ्वी दिवस’ प्रतिदिन मनाए जाने की आवश्यकता है।

हालांकि पृथ्वी दिवस को मनाए जाने का वास्तविक लाभ तभी है, जब हम आयोजन को केवल रस्म अदायगी तक ही सीमित न रखें बल्कि धरती की सुरक्षा के लिए इस अवसर पर लिए जाने वाले संकल्पों को पूरा करने हेतु हरसंभव प्रयास भी करें। हमें बखूबी समझ लेना होगा कि अगर पृथ्वी का तापमान साल दर साल इसी प्रकार बढ़ता रहा तो आने वाले वर्षों में हमें इसके बेहद गंभीर परिणाम भुगतने को तैयार रहना होगा।

‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ पुस्तक के अनुसार पैट्रोल, डीजल से उत्पन्न होने वाले धुएं ने वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड तथा ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा को खतरनाक स्तर तक पहुंचा दिया है और वातावरण में पहले की अपेक्षा 30 फीसदी ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड मौजूद है, जिसकी जलवायु परिवर्तन में अहम भूमिका है। पेड़-पौधे कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित कर पर्यावरण संतुलन बनाने में अहम भूमिका निभाते रहे हैं लेकिन पिछले कुछ दशकों में वन-क्षेत्रों को बड़े पैमाने पर कंक्रीट के जंगलों में तब्दील किया जाता रहा है।

पृथ्वी पर बढ़ते दबाव का एक महत्वपूर्ण कारण बेतहाशा जनसंख्या वृद्धि भी है। जहां 20वीं सदी में वैश्विक जनसंख्या करीब 1.7 अरब थी, अब बढ़कर करीब 7.8 अरब हो चुकी है। अब सोचने वाली बात यह है कि धरती का क्षेत्रफल तो उतना ही रहेगा, इसीलिए कई गुना बढ़ी आबादी के रहने और उसकी जरूरतें पूरी करने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का बड़े पैमाने पर दोहन किया जा रहा है। इससे पर्यावरण की सेहत पर जो प्रहार हो रहा है, उसी का परिणाम है कि धरती अब धधक रही है।

भारत के कई हिस्सों में इस साल जिस प्रकार मार्च महीने में ही बढ़ते पारे का प्रकोप देखा गया, वह जलवायु परिवर्तन का स्पष्ट संकेत है। करीब दो दशक पहले देश के कई राज्यों में जहां अप्रैल माह में अधिकतम तापमान औसतन 32-33 डिग्री रहता था, वहीं अब मार्च महीने में ही पारा 40 डिग्री तक पहुंचने लगा है। 2016 में राजस्थान के फलौदी का तापमान तो 51 डिग्री दर्ज किया गया था और इस तापमान में और वृद्धि की आशंका है।

प्रकृति कभी समुद्री तूफान तो कभी भूकम्प, कभी सूखा तो कभी अकाल के रूप में अपना विकराल रूप दिखाकर हमें चेतावनियां देती रही है किन्तु जलवायु परिवर्तन से निपटने के नाम पर वैश्विक चिंता व्यक्त करने से आगे हम शायद कुछ करना ही नहीं चाहते। हम नहीं समझना चाहते कि पहाड़ों का सीना चीरकर हरे-भरे जंगलों को तबाह कर हम कंक्रीट के जो जंगल विकसित कर रहे हैं, वह वास्तव में विकास नहीं बल्कि विकास के नाम पर हम अपने विनाश का ही मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं।

यदि हम चाहते हैं कि हम धरती मां के कर्ज को थोड़ा भी उतार सकें तो यह केवल तभी संभव है, जब वह पेड़-पौधों से आच्छादित, जैव विविधता से भरपूर तथा प्रदूषण से सर्वथा मुक्त हो और हम चाहें तो सामूहिक रूप से यह सब करना इतना मुश्किल भी नहीं है। बहरहाल, यह अब हमें ही तय करना है कि हम किस युग में जीना चाहते हैं? एक ऐसे युग में, जहां सांस लेने के लिए प्रदूषित वायु होगी और पीने के लिए प्रदूषित और रसायनयुक्त पानी तथा ढ़ेर सारी खतरनाक बीमारियों की सौगात या फिर ऐसे युग में, जहां हम स्वच्छंद रूप से शुद्ध हवा और शुद्ध पानी का आनंद लेकर एक स्वस्थ एवं सुखी जीवन का आनंद ले सकें।

योगेश कुमार गोयल

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