पवार ने मचाई विपक्ष में खलबली

क्या कोई ऐसा नेता है जो प्रधानमंत्री मोदी की बराबरी कर सकता है?

क्या प्रधानमंत्री मोदी को परास्त किया जा सकता है? उन्हें परास्त करने के (Sharad Pawar) लिए क्या करना होगा? क्या उनका कोई विकल्प है? क्या कोई ऐसा नेता है जो उनकी बराबरी कर सकता है? क्या विपक्ष में एकजुटता हो सकती है? क्या विपक्षी दल ऐसा करने के लिए तैयार हैं? ऐसे अनेक प्रश्न हैं। विगत माह राकांपा नेता शरद पवार ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी को हिंडनबर्ग-अदानी मुद्दे पर संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) के गठन की मांग पर कहा है कि उन्हें जेपीसी के गठन में कोई तर्कसंगता नहीं दिखाई दे रही है और अडानी को निशाना बनाया जा रहा है और इस प्रकार उन्होंने विपक्षी दलों में एकता की मृग मरीचिका को भी भेद दिया है।

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उन्होंने कहा कि मेरे विचार से बेरोजगारी, महंगाई, किसानों के मुद्दे जैसे रोजी-रोटी से जुडे हुए मुद्दे अधिक महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने ऐसे समय पर कुछ अन्य दलों की भावनाओं को व्यक्त किया जब कांग्रेस नेतृत्व विपक्षी एकता के लिए उनकी मेजबानी करने की तैयारी कर रहा है और यह बताता है कि अडानी मुद्दे पर विपक्षी दलों में भी मतभेद हैं।

इस मामले में पवार और तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी के विचार एक समान लगते हैं (Sharad Pawar) और उन्होंने जेपीसी के गठन के लिए कांगे्रस के नेतृत्व में विरोध प्रदर्शन से दूरी बना ली थी। मोदी द्वारा प्रत्येक दिन भ्रष्टाचार पर हमला करने को विपक्ष अडानी मुद्दे और अपने विरुद्ध चलाए जा रहे अभियान को निष्फल करने के रूप में देखता है और नेतृत्व, विकास, हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद के साथ-साथ एक चौथा मुद्दा भी उठाया जा रहा है। विशेषकर उच्चतम न्यायालय द्वारा विपक्षी नेताओं के विरुद्ध सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय के दुरूपयोग के विरुद्ध विपक्ष की याचिका को सुनने से इनकार करने के बाद ऐसा देखने को मिल रहा है।

कांग्रेसी नेता भी सशंकित | Sharad Pawar

इसके अलावा भाजपा ने इसमें हिन्दुत्व की विचारधारा को समाहित कर राजनीतिक माहौल को बदला है। विपक्षी दल इस मोर्चे पर इसका विरोध करने के लिए साझा वैचारिक आधार या नरम हिन्दुत्व अपनाने में कठिनाई महसूस कर रहे हैं। मोदी को अपने व्यक्तित्व और विपक्षी दलों में मतभेद का लाभ मिल रहा है। हालांकि इसके परिणाम गिलास आधा भरा या आधा खाली हो सकता है। कांग्रेसी नेता भी सशंकित हैं कि क्या अडानी मुद्दे से लोगों में राजनीतिक और चुनावी जागृति पैदा हो रही है या इसका भी वही हश्र होगा जो 2019 के चुनावों से पूर्व राहुल द्वारा बनाए गए राफेल मुद्दे का हुआ था क्योंकि उस वक्त भी राफेल मुद्दा भी मतदाताओं को नहीं लुभा पाया था और भाजपा को प्रशासन की अनेक खामियों और कमियों से मतदाताओं का ध्यान हटाने में मदद मिली।

न जाने क्यों राहुल को अपनी बात से मुकरने की आदत पड़ गई है। वे बार-बार राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के विचारक सावरकर के विरुद्ध टिप्पणियां करते हैं जिससे महाराष्ट्र में उनके सहयोगी उद्धव ठाकरे की पार्टी नाराज हो गई है जो उन्हें महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मानती है। क्या ये सभी 16 विपक्षी दल जिन्होंने अडानी मुद्दे पर कांगे्रस के साथ संसद में विरोध प्रदर्शन किया, क्या वे एकजुट रह पाएंगे, इस बारे में अनेक आशंकाएं हैं। ममता ने पहले ही घोषणा कर दी है कि वे 2024 का चुनाव अकेले लड़ेंगी और किसी भी विपक्षी गठबंधन में शामिल नहीं होंगी। यही रूख समाजवादी पार्टी के अखिलेश का भी है। साथ ही कांग्रेस में कुछ नेताओं का मानना है कि पार्टी नेतृत्व को मोदी सरकार के विरुद्ध अभियान को व्यापक बनाना चाहिए और उसमें ऐसे आर्थिक मुद्दे भी शामिल करने चाहिए जो आम आदमी को प्रभावित कर रहा है।

विपक्षी दलों की एकता में दो मुख्य अडचनें

पार्टी के रायपुर महाधिवेशन में राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के माध्यम से बनी लोकप्रियता को भुनाने का कोई प्रयास नहीं किया गया। कुछ वरिष्ठ नेताओं का मानना है कि पार्टी को ऐसी रणनीति बनानी चाहिए जिसके अंतर्गत वह स्वयं एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में अपनी सर्वोच्चता का प्रदर्शन न करे ताकि उसे महागठबंधन बनाने में आसानी हो। इसके अलावा चुनावों से पूर्व प्रधानमंत्री पद की घोषणा न की जाए। किंतु पार्टी उच्च कमान किसी क्षेत्रीय नेतृत्व को स्वीकार कर अपनी सर्वोच्च राष्ट्रीय स्थिति को छोड़ने या निर्णय लेने में नेहरू-गांधी के परिवार के उत्तराधिकारियों की स्थिति के साथ कोई समझौता करने के लिए तैयार नहीं है और विपक्षी दलों की एकता में ये दो ही मुख्य अडचनें हैं।

विपक्षी दलों में पहले ही इस मुद्दे पर मतभेद हैं कि कांग्रेस के साथ कैसा व्यवहार किया जाए। ममता की तृणमूल कांगे्रस, केजरीवाल की आप और चन्द्रशेखर राव की बीआरएस, जिनके मिलाकर लोक सभा में 80 सीटें हैं, वे विपक्षी छतरी के नीचे कांग्रेस के खिलाफ हैं। स्टालिन की द्रमुक, नीतीश की जद (यू) लालू की राजद, सोरेन की जेएमएम, ठाकरे की शिवसेना आदि कांग्रेस की समर्थक हैं और वे मिलकर 100 सीटों पर चुनाव लड़ सकते हैं। तीसरा समूह अवसरवादी नेताओं का है जो किसी भी ओर जा सकते हैं हालांकि वे अपने अपने राज्यों में अपना स्थान कांग्रेस को देना नहीं चाहते हैं किंतु सत्ता के बंटवारे में कांग्रेस के साथ जाने के लिए तैयार हैं।

अन्य दल चिंतित

महाराष्ट्र में पवार की राकांपा, कर्नाटक में गौडा की जद (एस), उत्तर प्रदेश मे अखिलेश की सपा, मायावती की बसपा तथा वामपंथी दल आदि की मिलाकर लगभग 80 सीटें हैं। वामपंथी दल की अब केरल के अलावा कहीं उपस्थिति नहीं रह गई है किंतु दूसरी ओर ओडिशा में पटनायक की बीजद और आंध्र प्रदेश में जगनरेड्डी की वाईएसआर-सीपी को किसी राजनीतिक शिविर में जाने के बजाय अपने-अपने राज्य महत्वपूर्ण हैं। इसके अलावा राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात, हिमाचल, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस और भाजपा का सीधा मुकाबला है जहां से लोक सभा की 90 सीटें हैं।

कांग्रेस स्वयं को विपक्षी एकता का केन्द्र मानती है किंतु वह दो कटु वास्तविकताओं को नजरंदाज करती है कि पहले वह अपनी पार्टी में व्यवस्था बनाने का संघर्ष कर रही है और विभिन्न राज्य इकाइयों में विद्रोह हो रहा है। दूसरा, उसका चुनावी गणित उसके पक्ष में नहीं है जैसा कि हाल ही में पूर्वोत्तर क्षेत्र में देखने को मिला है और त्रिपुरा विधान सभा चुनावों में माकपा के साथ उसका गठबंधन था पर वह अपने मतों को माकपा को अंतरित नहीं करा पाई और इससे अन्य दल चिंतित हैं। एक क्षेत्रीय नेता का कहना है कि हम अपने राज्य में भाजपा का आसानी से मुकाबला कर रहे हैं और दिल्ली में कांगे्रस को मजबूत बनाने में हमारी कोई रुचि नहीं है क्योंकि हमारे राज्य में उससे हमें कोई मदद नहीं मिलती।

गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश में पैर जमाना चाहती है आप

इसके अलावा राज्य स्तरीय चुनाव जीतना एक बात है और राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के विरुद्ध जीत के लिए विभिन्न विचारधारा वाले विपक्षी दलों का एक क्षेत्रीय नेता द्वारा नेतृत्व करना अलग बात है। इसके अलावा एक व्यापक आधार वाले गठबंधन का दृष्टिकोण शायद सफल न हो क्योंकि राज्यों में कांग्रेस को अपने प्रतिद्वंदियों के साथ कार्य करना कठिन हो जाएगा। जरा सोचिए कांग्रेस तथा आप दिल्ली-पंजाब में प्रतिद्वंदी हैं और शायद आप गठबंधनों की ऐसी धारणा को स्वीकार नहीं करेगी क्योंकि अब उसे एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में मान्यता मिल गई है और वह गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश में अपने पैर जमाना चाहती है।

विपक्षी दलों में तब भी एकता का अभाव देखने को मिला जब आठ विपक्षी दलों ने आप के मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी के विरुद्ध पत्र लिखा। किंतु कांग्रेस सहित तीन विपक्षी दलों ने ऐसा नहीं किया। यही स्थिति तेलंगाना में भी है जहां पर चन्द्रशेखर राव की बीआरएस और कांग्रेस आमने-समने हैं। इसलिए कांग्रेस विपक्षी एकता का आधार और उसमें अड़चन दोनों हैं। जब तक कांग्रेस अपने अहंकार को नहीं त्याग देती और क्षेत्रीय नेताओं के साथ बातचीत के लिए पहल नहीं करती और अनचाहे ही सही उन्हें राजनीतिक स्थान नहीं देता तब तक विपक्षी एकता की बातें सफल नहीं होंगी।

विपक्ष ने पिछले आठ सालों में मतदाताओं को समझाने का कोई प्रयास नहीं किया

भाजपा को हराना और मोदी को हटाने का लक्ष्य स्पष्ट है, किंतु जिस तरह से विपक्षी दलों में अहंकार, नकारात्मकता और अपने-अपने स्वार्थ हैं, उससे यह आसान नहीं है। दुर्भाग्यवश विपक्षी या उनके नेताओं ने पिछले आठ सालों में मतदाताओं को समझाने का कोई प्रयास नहीं किया है कि वे भाजपा से बेहतर शासन दे सकते हैं। इस वर्षान्त विशेषकर कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश में वाले विधान सभा चुनाव भाजपा और विपक्षी दलों के लिए सेमीफाइनल होगा जहां पर कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधी टक्कर है।

विपक्षी दलों को ऐसी भाषा और अन्य उपायों को करना होगा जो भाजपा के दृढ़ संकल्प, भाषा अर्थात चुनाव लड़ने वाली मशीन का मुकाबला कर सके। मोदी ने हिन्दुत्व का मुद्दा पुन: उठाकर पहल कर दी है। वे राष्ट्रवाद और देश के आत्मसम्मान के मुद्दे को उठा रहे हैं और उसको पुन: परिभाषित कर रहे हैं। जब तक दृष्टिकोण में एकरूपता न हो विपक्षी दल मतदाताओं को केवल एकता का सपना ही दिखा सकते हैं। रैलियों में नारों से परे भाजपा के विरुद्ध कौन बिगुल बजाएगा?

पूनम आई कौशिश
वरिष्ठ लेखिका एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार (यह लेखिका के अपने विचार हैं)

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