अंधविरोध की राजनीति बेजा है लोकतांत्रिक व्यवस्था में

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लोकशाही व्यवस्था को ठेंगा दिखाने का प्रचलन हमारे राजनीतिक हैसियत-दारों का एक बड़ा हथियार बनता जा रहा है। इसको लोकतांत्रिक व्यवस्था में सही और मर्यादित करार नहीं दिया जा सकता है, लेकिन फिर भी कभी-कभी अंधविरोध की ज्वाला इतनी तीव्र और महत्वाकांक्षाओं का प्रस्फुटन इस तरीके का हिचकोले मारता है। ऐसे वक्त में सारी लोकत्रांत्रिक मर्यादा के गीत और पुराण छोटे लगने लगते हैं।

ऐसी ही स्थिति बीते एक-दो वर्षों से पश्चिम बंगाल की सियासी रणभूमि में कब्जा जमाए और लगभग सैंतीस वर्ष बाद वामपंथी शासन में बेहाल रहे और विकास की राह से भटक चुके राज्य की एक बार फिर दिख रही है। एक ओर विकास की गति पश्चिम बंगाल में मंद सी पड़ गई है। वहीं दूसरी ओर पश्चिम बंगाल में अशांति की खाई तेजी से पनपती जा रही है। सूबे में बेलगाम होते अपराधी और उनपर लगाम कसने में पुलिसिया तंत्र की श्वास फूलती नजर आती है, लेकिन यह पश्चिम बंगाल सरकार की नाकामी ही है कि वो मात्र केंद्रीय सत्ता के अंधविरोध और अपनी केंद्रीय धुरी की राजनीति में सिक्का जमाने की फिराक में सूबे की आवाम की आवाज को भी अनदेखा करती जा रही है। जो किसी भी लोकत्रातांत्रिक व्यवस्था के लिहाज से वाजिब नहीं है।

ऐसे में एक तथ्य यह स्पष्ट रूप से साफ ब्यां होता है कि मात्र कोरे विरोध के बल पर कैसे कोई राजनीतिक दल अपने वजूद को बढ़ता हुआ देख सकता है। पश्चिम बंगाल की वर्तमान मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अगर तीसरे मोर्चे की सरकार की आगामी वर्ष में उम्मीद पालकर रखे हुए हैं, तो उसका असर तनिक भी भारतीय केंद्रीय राजनीति में नहीं दिख रहा है। पश्चिम बंगाल को वामपंथी सरकार के 37 वर्षों के शासन के बाद जिस सरकार की दरकार थी, ममता बनर्जी की सरकार उसे अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा की वजह से अभी तक प्रदान करने में निष्फल साबित हुई है।

एक नेता के लिहाज से ममता बनर्जी की छवि जुझारू, कर्मठ और जनता हितार्थ निर्णय लेने वाली बनाई थी, जिस पर जनता ने विश्वास किया था। लेकिन दुर्भाग्य वश अपनी पुरानी छवि को मात्र केंद्र सरकार के विरोध के कारण गंवाने में ममता बनर्जी ने देर नहीं लगाई। संप्रग और एनडीए दोनों राष्ट्रीय धड़ों में कार्य करते हुए अपने कुशल राजनीतिज्ञ होने की छाप छोड़ने वाली ममता बनर्जी अगर वर्तमान समय में अपनी और पार्टी का बेड़ा गर्क करवा रही हैं, तो उसका सीधा कारण उनकी बढ़ती राजनीतिक महत्वाकांक्षा और राजनीतिक मंसूबा है।

लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता द्वारा चुनी सरकार के क्या यही उत्तरदायित्व होते है? क्या लोकतंत्र में राजनीतिक हित वर्तमान राजनीति में ज्यादा सर्वोपरि हो गए है? समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर क्या लोकतांत्रिक प्रणाली चलने से राजनीतिक पार्टी कतराने लगी है? इन चंद सवालों पर हमें गौर करना होगा, क्योंकि वर्तमान राजनीतिक परिवेश को देखते हुए यही पता चलता है, क्योंकि तुष्टिकरण और राजनीति स्वार्थपूर्ति का फित्तूर तेजी से राजनीतिक दलों में पैठ बनाता जा रहा है।

अगर ममता बनर्जी अपने तीखे तेवर से बाज नहीं आ रही है, तो वह लोकतंत्र के सांचे के लिहाज से उचित नहीं कहा जा सकता है। राज्यपाल लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक गरिमामय पद है। किसी पार्टी का तोता कहकर राज्यपाल जैसे पद की गरिमा की तौहीन करना है। अगर राज्य सरकार द्वारा परिस्थितियों पर काबू नहीं पाया जा रहा है और राज्य में शांति भंग होती जा रही है। उसको सुधारने के लिए अगर राज्यपाल अगाह कराता है और उसी पर अभद्र भाषा का प्रयोग किया जाता है। तो यह लोकतांत्रिक प्रणाली का घोर अपमान है।

अगर राज्यपाल राज्य में हो रहे अच्छे-बुरे बर्ताव पर अंगुली ही नहीं उठा सकता, फिर उसका क्या काम रह जाएगा? यह ममता सरकार को समझना होगा। इसके अलावा ममता सरकार को यह समझना होगा, कि केंद्र की हर नीति में सजिश की बू देखकर उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति नहीं होने वाली। अगर राजनीति में आगे बढ़ना है, तो जनता के विश्वास को जीतना होगा, और सभी आवाम को साथ लेकर चलने का संकल्प जुटाना होगा, जो ममता सरकार में नहीं दिख रहा है।

एक नेता के लिहाज से ममता बनर्जी की छवि जुझारू, कर्मठ और जनता हितार्थ निर्णय लेने वाली बनाई थी, जिस पर जनता ने विश्वास किया था। लेकिन दुर्भाग्य वश अपनी पुरानी छवि को मात्र केंद्र सरकार के विरोध के कारण गंवाने में ममता बनर्जी ने देर नहीं लगाई।


महेश तिवारी

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