जनता के अधिकारों की जीत

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राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में स्थित जंतर मंतर पर आंदोलनकारी, अब फिर पहले की तरह अपनी आवाज उठा सकेंगे। जंतर-मंतर और बोट क्लब पर धरना, प्रदर्शन पर लगी रोक को सर्वोच्च न्यायालय ने शर्तों के साथ हटाने का आदेश दिया है। हाल ही में इस मामले में सुनवाई करते हुए अदालत ने कहा कि दिल्ली में प्रदर्शनों पर पूरी तरह रोक नहीं लगाई जा सकती। अदालत ने कहा कि भारत जैसे गुंजायमान लोकतंत्र में ये अधिकार बेहद अहम हैं। ये अधिकार इसलिए भी अहम है, क्योंकि आम नागरिक अपने विरोध के जरिये सीधे अपनी बात सरकार तक पहुंचाते हैं और उनकी भागीदारी महसूस होती है।

अदालत ने अपना आदेश देते हुए इस बात को जरूर माना कि एनजीटी के फैसले में जो तर्क थे, वे सही हैं, लेकिन पूरी तरह से प्रदर्शन पर पाबंदी समस्या का समाधान नहीं है। जस्टिस ए.के. सीकरी और जस्टिस अशोक भूषण की पीठ ने आदेश में स्पष्ट तौर पर कहा कि धरने और प्रदर्शन का अधिकार मौलिक अधिकार है। सरकार इसमें वाजिब पाबंदी भी लगा सकती है लेकिन इसमें संतुलन की जरूरत है। प्रदर्शन के अधिकार और शांतिपूर्ण जीवन जीने के लोगों के अधिकार के बीच संतुलन कायम करना होगा। धरना, प्रदर्शन इस तरह से हो कि आस-पास रहने वालों को कोई परेशानी न हो। अदालत ने दिल्ली के पुलिस कमिश्नर को निर्देश दिया कि वे दो महीने के अंदर अन्य एजेंसी के साथ मिलकर इस संबंध में एक आदर्श आचारसंहिता और तंत्र तैयार करें, ताकि सीमित संख्या में होने वाले प्रदर्शन धरना आदि को नियंत्रित किया जा सके।

शीर्ष अदालत के इस फैसले से सबसे ज्यादा खुशी उन लोगों को हुई है, जो शांतिपूण ढंग से सरकार से अपनी मांगें मनवाने के लिए राजधानी दिल्ली में इकट्ठा होते हैं। जंतर-मंतर और बोट क्लब पर धरना, प्रदर्शन की पाबंदी हटने से वाकई लोकतंत्र की जीत हुई है। अदालत के इस आदेश से लोगों की आवाज अब फिर से संसद तक पहुंच सकेगी। इस आवाज को कोई दबा नहीं सकेगा।पर्यावरण संबंधी नियमों का उल्लंघन और प्रदूषण का हवाला देते हुए पिछले साल अक्टूबर में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल यानी एनजीटी ने सरकार को यहां के आयोजनों पर तुरंत रोक लगाने का आदेश दिया था। एनजीटी के इस आदेश के बाद दशकों से तरह-तरह के आंदोलनों के स्थल रहे जंतर मंतर पर सभी तरह के धरने-प्रदर्शन बंद हो गए।

एनजीटी के आदेश का सहारा लेते हुए दिल्ली पुलिस ने यहां स्थित सभी टेंटों को तोड़ दिया और आंदोलनकारियों से यह जगह खाली करा ली। जंतर-मंतर पर प्रदर्शन पर पाबंदी के एनजीटी के इस आदेश को चुनौती दी पूर्व सैनिकों ने। वे इस मामले को सर्वोच्च न्यायालय में ले गए और अदालत से आदेश की समीक्षा करने को कहा। अदालत ने पहले तो दोनों पक्षों की बात गंभीरता से सुनी और उसके बाद एक ऐसा फैसला दिया, जिसमें दोनों पक्षों के मौलिक अधिकारों की हिफाजत हो रही है। इस आदेश से जहां पर्यावरण संबंधी नियमों का उल्लंघन और प्रदूषण नहीं होगा, तो वहीं आंदोलनकारियों के धरने-प्रदर्शन पर भी रोक नहीं लगेगी। जनसंघर्षों की अभिव्यक्ति का मंच बन गए जंतर मंतर पर रैलियों और प्रदर्शनों पर पाबंदी, निश्चित तौर पर उन लोगों के लिए निराशा का सबब थी, जो अपनी मांगे लोकतांत्रिक तरीके से सरकार के सामने उठाते रहे हैं।

यह ऐसा मंच था, जहां से उनकी आवाज संसद से लेकर पूरे देश में सुनाई देती थी। एक जमाना था जब राजपथ से सटे वोट क्लब पर रैलियां और प्रदर्शन हुआ करते थे। हाई कोर्ट के निर्देश के बाद साल 1993 में सरकार ने जंतर-मंतर को धरना स्थल के लिए सुनिश्चित किया। करीब पांच हजार लोगों की क्षमता वाला यह ऐतिहासिक स्थल तब से कई बड़े आंदोलनों का गवाह रहा है। चाहे निर्भया के सामूहिक दुष्कर्म के बाद हत्या के विरोध का आंदोलन हो या फिर लोकपाल की मांग को लेकर समाजसेवी अन्ना हजारे का आंदोलन, गोया कि ये सभी बड़े आंदोलन यहीं परवान चढ़े और कई अपने मुकाम तक भी पहुंचे। जंतर मंतर देश भर के मजदूरों, किसानों, मानवाधिकार संगठनों और पर्यावरण प्रेमियों के विरोध और असहमति का आंगन रहा है। यहां धरना-प्रदर्शन, आंदोलन कर वह अपनी आवाज सरकार तक पहुंचाते हैं। बड़े विरोध-प्रदर्शनों के अलावा कई छोटे विरोध प्रदर्शन, धरने जंतर मंतर पर इस लिए चलते हैं कि सरकार उनकी मांगों पर सहानुभूति से विचार करे और इनका समाधान करे। देश भर से लोग यहां तभी आते हैं, जब कहीं उनकी कोई सुनवाई नहीं होती। गर यह जगह भी उनसे छिन जाएगी, तो वह कहां से अपनी आवाज सरकार के कानों तक पहुंचाएंगे।

नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने अपने आदेश में जंतर मंतर पर एकत्रित होकर धरना देने पर भले ही रोक लगा दी थी, लेकिन प्रदर्शनकारियों को रामलीला मैदान जैसी वैकल्पिक जगह पर स्थानांतरित करने का सरकार को निर्देश दिया था। एनजीटी ने लाउडस्पीकर की आवाज और वायु प्रदूषण को आधार बनाते हुए जगह बदलने का फैसला दिया था, पर नई जगह पर तो पुरानी जगह से भी ज्यादा लोग रहते हैं। जंतर मंतर के पास तो काफी कम रिहायशी इलाका है। जंतर मंतर से कहीं अधिक आबादी रामलीला मैदान के पास है। सड़कें बहुत अधिक चौड़ी नहीं है। मैदान के पास एक कॉलेज, दो अस्पताल, सिविक सेंटर और कुछ स्कूल चलते हैं। बड़ी रैलियों के समय रामलीला मैदान को आसपास के क्षेत्रों से पार्किंग शिफ्ट करने के साथ, ट्रैफिक को डायवर्ट करना पड़ता है। रोज प्रदर्शन होने की वजह से यहां ध्वनि प्रदूषण के साथ वायु प्रदूषण भी बढ़ रहा है। गाड़ियों के जाम लगने की भी समस्या है। यहीं नहीं जंतर मंतर के आसपास खाने, रहने, पेयजल, शौचालय और सफाई की अच्छी व्यवस्था है, लेकिन यह सब रामलीला ग्राउंड में नहीं है। सैद्धांतिक तौर पर एनजीटी का आदेश भले ही अच्छा था, पर व्यावहारिक तौर पर रामलीला मैदान में भी इस तरह की समस्याएं सामने आ रही हैं।

सच बात तो यह है कि ध्वनि और वायु प्रदूषण राजधानी दिल्ली में हर जगह है। गंदगी और प्रदूषण को ही आधार बनाकर बोट क्लब पर होने वाली रैलियों, धरनों-प्रदर्शनों को प्रतिबंधित कर दिया गया था और उन्हें संसद के नजदीक जंतर मंतर रोड पर अस्थायी स्थल के तौर पर इजाजत दी गई थी। यही समस्या अब रामलीला मैदान के आसपास रहने वाले रहवासियों को आ रही है। वायु प्रदूषण कानून के हिसाब से तो यहां भी धरने-प्रदर्शन नहीं हो सकते। तर्कसंगत बात तो यह होती कि संबंधित प्राधिकरण अपनी जिम्मेदारियों का सही निर्वहन करते हुए धरने-प्रदर्शनों और रैलियों को व्यवस्थित करते। कोशिश करते कि जंतर-मंतर पर धरना-प्रदर्शन भी चलते रहें और वायु एवं ध्वनि प्रदूषण भी न हो। कमोबेश यही बात अब सर्वोच्च न्यायालय ने अपने हालिया आदेश में कही है। धरने-प्रदर्शनों और रैलियों को व्यवस्थित, नियंत्रित किया जाए, तो किसी को भी परेशानी नहीं आएगी। संबंधित अधिकारियों द्वारा अपनी जिम्मेदारी न निभाने के कारण जंतर-मंतर के लोग समस्याओं का सामना कर रहे थे। यदि वे अपनी जिम्मेदारियों का सही तरह से पालन करते, तो आज शीर्ष अदालत को इस आदेश देने की जरूरत ही नहीं पड़ती।

सर्वोच्च न्यायालय का हालिया आदेश, जहां जन संघर्षों की हिफाजत करता है, वहीं जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों के हक में भी है। इस आदेश से हमारे गौरवशाली लोकतंत्र और जनता के अधिकारों की जीत हुई है। अदालत ने लोगों का शांतिपूर्वक तरीके से विरोध प्रदर्शन करने का उनका अधिकार, उन्हें दोबारा वापस दे दिया है। केंद्र की मोदी सरकार ने दिल्ली पुलिस का गलत इस्तेमाल करते हुए जंतर-मंतर में स्थायी तौर पर धारा 144 लगवा दी थी। जो कि एक लोकतांत्रिक देश में रहने वाले नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन था। लोकतंत्र में जनता को और तमाम सामाजिक-राजनीतिक संगठनों को सत्ता के केंद्र के नजदीक जाकर अपनी आवाज उठाने और शांतिपूर्वक विरोध प्रदर्शन करने का संवैधानिक अधिकार है और उनका यह अधिकार, उनसे कोई नहीं छीन सकता। जंतर-मंतर और वोट क्लब पर धरना, प्रदर्शन पर लगी रोक हर मायने में असंवैधानिक थी, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश से हटाकर देश के नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा की है। जिसका स्वागत किया जाना चाहिए।

जाहिद खान

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