राज्याभिषेक से उठते सवाल!

King charles III
6 मई 2023 को सम्पन्न चार्ल्स तृतीय का राज्याभिषेक समारोह कैमिला

अंग्रेज वर्षों से भारत को येन-केन प्रकारेण उपहास का पात्र बनाते रहते हैं। वे अक्सर हिंदू धार्मिक प्रथाओं-परम्पराओं, सामाजिक रीति-रिवाजों और अनुष्ठानों को लक्षित करते हुए टीका-टिप्पणी करते रहते हैं। वे उदारवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के प्रति भारतीयों की प्रतिबद्धता पर सवाल उठाते हुए भारत को शासन-प्रशासन के बारे में गाहे-बगाहे सलाह भी देते हैं। हालांकि, वे शायद ही कभी अपने स्वयं के समाज की निष्पक्ष और नियमन समीक्षा करते हैं।

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हाल ही में 6 मई 2023 को सम्पन्न King charles III का राज्याभिषेक समारोह एक ऐसा ही प्रसंग है। इस समारोह में एक 74 वर्षीय व्यक्ति को औपचारिक रूप से राजा की पदवी प्रदान की गई। यह पद उसे वंशानुगत प्राप्त हुआ है। माँ से बेटे को हस्तांतरित यह पद ज्येष्ठाधिकार की सामंती परंपरा द्वारा वैधता और वर्चस्व प्राप्त करता है। यह मध्यकालीन परम्परा एक परिवार विशेष को यूनाइटेड किंगडम और अन्य राष्ट्रमंडल देशों का राज्य प्रमुख होने का वंशानुगत अधिकार प्रदान करती है। लोकतांत्रिक समाज में ऐसी मध्यकालीन व्यवस्था को वैधता प्रदान करना और उसका धूम-धड़ाके से प्रदर्शन करना हास्यास्पद और चिंतनीय है। उल्लेखनीय है कि नेपाल जैसे अपेक्षाकृत छोटे और नवजात लोकतंत्र ने भी ऐसी सामंती व्यवस्था को विदाई दे दी है।

यह राज्याभिषेक समारोह सम्राट के शासन के दैवीय अधिकार को पुष्ट करता है, (King charles III) जोकि आधुनिक उदार लोकतंत्र के सिद्धांतों के प्रतिकूल है। एक उदार लोकतंत्र के भीतर एक वंशानुगत संवैधानिक राजतंत्र की उपस्थिति और महिमामंडन उसमें अंतर्निहित विरोधाभास का प्रकटन है। यह सामंती समारोह अपने आप में एक अनपेक्षित, अनावश्यक और अप्रासंगिक कार्यक्रम था। यह ईसाई पंथ के प्रतीकों और परम्पराओं से भी परिपूर्ण था। समारोह के दौरान, सिंहासनारूढ़ राजा ने इंग्लैंड के चर्च और उसके कानून को बनाए रखने की शपथ ली। पवित्र तेल से पादरी द्वारा राजा का अभिषेक किया गया। ‘क्राउन आॅफ सेंट एडवर्ड’ के रूप में जाना जाने वाला मुकुट कैंटरबरी के आर्कबिशप और इंग्लैंड के चर्च के धर्मगुरु जस्टिन वेल्बी द्वारा राजा को पहनाया गया।

इस समारोह में तमाम पूर्व-शासित राज्यों को आमंत्रित किया गया था। (King charles III) उन राज्यों के प्रतिनिधियों ने ‘मैं कसम खाता हूँ कि मैं आपकी महिमा के प्रति, और आपके उत्तराधिकारियों और उपाधिकारियों के प्रति सच्ची निष्ठा अदा करूंगा। हे भगवान, मेरी मदद करें।’ घोषणा करके मध्यकालीन शैली में राजा और राजतन्त्र में अपनी आस्था और निष्ठा व्यक्त की। यह प्रथा आज के समय में अत्यंत बेतुकी है। इस अवसर पर अन्य धर्मों और राज्यों के प्रतिनिधियों से उपहार प्राप्त करना औपनिवेशिक मानसिकता को दर्शाता है। यह ईसाई धर्म के वर्चस्व और अन्य सभी धर्मों की दोयमता को भी प्रकट करता है। यह राज्याभिषेक ईसाई धर्म के अनुष्ठानों और राजा या राज्य-प्रमुख के अपने ईसाई विश्वासों का प्रकटन करता है। जिस देश की अघोषित राष्ट्रीय विचारधारा धर्मनिरपेक्ष उदारवाद है, उस देश में पंथ विशेष को सार्वजनिक जीवन और राजकीय कार्यक्रमों में प्रदर्शित करना विरोधाभाषपूर्ण है।

मत-पंथ और राज्य संवेदनशील विषय हैं (King charles III) जिन्हें सावधानीपूर्वक अलग रखने की आवश्यकता होती है। मत-पंथ और राज्य को मिलाना आपत्तिजनक है यह सामाजिक विभाजन, अलगाव और असहिष्णुता को जन्म दे सकता है। यह वास्तव में हैरान करने वाला है कि रिकॉर्ड स्तर पर बेरोजगारी और जीवनयापन के गंभीर संकट से त्रस्त देश में करदाताओं ने दुनिया के सबसे धनी व्यक्तियों में से एक के राज्याभिषेक को वित्त पोषित किया। इस कार्यक्रम के व्यय का अनुमान $100 मिलियन से अधिक है। एक अनिर्वाचित, वंशानुगत राज्य प्रमुख पर इतना सार्वजनिक धन खर्च किया जा रहा है, यह अनैतिक और अकल्पनीय है। नि:संदेह, ब्रिटेन को अपने मध्यकालीन अतीत की धूमधाम के बजाय वर्तमान और भविष्य की आवश्यकताओं और चुनौतियों का संज्ञान लेकर उनके समाधान की दिशा में सक्रिय होना चाहिए।

तथाकथित शाही परिवार की लोकप्रियता हर बीतते दिन के साथ कम होती जा रही है। (King charles III) इसकी समकालीन शक्ति इसकी शानोशौकत और तमाशेबाजी में ही निहित है। लंदन की सड़कों पर भी यह भावना प्रदर्शित हुई, जहां प्रदर्शनकारियों ने ‘नॉट माय किंग’ के नारे लगाए। शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों को लंदन की सड़कों से केवल एक विपरीत विचार व्यक्त करने के लिए जबरन हटा दिया जाना निराशाजनक अनुभव था। उनके शांतिपूर्ण विरोध को दबाने के लिए नए सार्वजनिक व्यवस्था कानूनों का इस्तेमाल ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पश्चिमी समाज के उदारवादी दावों’ की कलई खोलता है। हालाँकि, यूके अक्सर अन्य देशों की उनके प्रचारवादी और अधिनायकवादी दृष्टिकोण के लिए आलोचना करता है, लेकिन वह अपने आत्म-परीक्षण में प्राय: असमर्थ रहता है। ‘जो शीशे के घरों में रहते हैं, उन्हें दूसरों पर पत्थर नहीं फेंकने चाहिए’ यह कहावत ब्रिटेन के तथाकथित संभ्रांत, उदार और धर्म-निरपेक्ष समाज के लिए सही सबक और संदेश है।

निश्चय ही, कथनी और करनी का द्वैत उनकी नैतिक आभा को धूमिल करता है। (King charles III) लंबे औपनिवेशिक अतीत और श्रेष्ठता-बोध के बावजूद ब्रिटेन भारत की समृद्ध और वैविध्यपूर्ण संस्कृति, विकसित लोकतंत्र और राजतन्त्र की समूल समाप्ति से बहुत कुछ सीख सकता है। निर्वाचित नेताओं/शासकों की अवधारणा (गण-व्यवस्था) प्राचीन भारत की सामान्य विशेषता थी, जिसे बहुत बाद में शेष विश्व ने भी अपनाया। भारत का पूर्ण विकसित संसदीय लोकतंत्र प्रत्येक नागरिक को स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की गारंटी देता है। शासन को जवाबदेह, संवेदनशील और पारदर्शी बनाता है। भारतीय लोकतंत्र किसी भी प्रकार के भेदभाव के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई करता है (जैसा कि अनुच्छेद 15 में कहा गया है) और गणतंत्रवाद, कानून के समक्ष समानता, तथा मत-पंथ व राज्य के स्पष्ट अलगाव जैसे मूल्यों में आस्था रखते हुए उनका कार्यान्वयन भी करता है।

ये सिद्धांत भारतीय संविधान की आत्मा, आधुनिक भारतीय (King charles III) राज्य की नींव और भारतीय संस्कृति के सनातन मूल्य हैं। भारत के राष्ट्रपति ‘संविधान के संरक्षण, रक्षा और बचाव’ की शपथ लेते हैं, जबकि ब्रिटिश सम्राट ‘स्वधर्म की रक्षा’ की शपथ लेते हैं। ब्रिटेन मध्यकालीन राजशाही के साथ-साथ लोकतांत्रिक प्रणाली का ‘कॉकटेल’ है। लोकतंत्र केवल एक राजनीतिक प्रणाली अथवा संरचना मात्र नहीं है, यह किसी भी राष्ट्र की आत्मा है। यह इस विश्वास पर आधारित है कि हर इंसान की जरूरतें और आकांक्षाएं समान रूप से महत्वपूर्ण हैं। अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता, समानता की भावना और शोषणमुक्त दुनिया बनाने की इच्छा ने सरकार के लोकतांत्रिक स्वरूप को जन्म दिया।

भारतीय इतिहास में विभिन्न युगों के दौरान, (King charles III) नागरिक समाज की यह गहन विचारणा स्पष्ट रूप से दिखाई देती रही है, जिसने लंबी पराधीनता के बावजूद भारत को लोकतंत्र का पालना बनाया है। ब्रिटेन में मौजूद रॉयल्टी और नोबल्टी तथा हाउस आॅफ लॉर्ड्स और हाउस आॅफ कॉमन्स जैसे सामाजिक/राजनीतिक पदानुक्रम लोकतंत्र की भावना के विरुद्ध हैं। कुल मिलाकर, भारत का लोकतांत्रिक अनुभव ब्रिटेन को समावेशिता बढ़ाने, संवैधानिक मूल्यों/व्यवस्थाओं को दृढ़ करने, सांस्कृतिक बहुलता और विविधता का सम्मान करने की दिशा में मार्गदर्शक अंतर्दष्टि प्रदान करता है। भारत के लोकतांत्रिक सिद्धांतों और प्रथाओं से सीखकर ब्रिटेन अपनी खुद की लोकतांत्रिक व्यवस्था को और समृद्ध व सुदृढ़ कर सकता है।

प्रो. रसाल सिंह, वरिष्ठ लेखक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार (ये लेखक के निजी विचार हैं।)