स्वार्थपूर्ण दलबदली लोकतंत्र के लिए घातक

Process of Democracy

अब चुनाव निष्ठा बदल जाने का दूसरा नाम बनता जा रहा है। जैसे-जैसे पांच राज्यों के विधान सभा चुनाव का समय नजदीक आ रहा है उसी तरह राजनीतिक वफादारियों की अदला-बदली बढ़ रही है। एक दूसरी पार्टी के विधायक तोड़ने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाया जा रहा है। पश्चिम बंगाल के बाद अब उत्तर-प्रदेश में समाजवादी (सपा) पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच विधायक तोड़ने की जंग छिड़ गई है। अपने कुछ विधायक सपा में जाते देख बसपा बिफर पड़ी है। इससे पहले मध्य-प्रदेश में ऐसी दल-बदली हुई थी जिसने कांग्रेस की सरकार गिरा दी थी। इसी तरह राजस्थान में राज्य सरकार टूटते-टूटते बामुश्किल से बची और अब फिर पंजाब को देख राजस्थान में बगावत शुरू हो गई है। कांग्रेस के बागियों को उकसाने पर भाजपा नेता राज्यवर्धन सिंह राठौड़ ने ब्यान दिया कि जो देश के लिए सोचते हैं उनके लिए पार्टी के दरवाजे खुले हैं।

दरअसल मौकाप्रस्त नेता चुनावी मौसम में खूब चांदी काटते हैं। विशेष तौर पर उस वक्त जब चुनावों में किसी पार्टी की एकतरफा जीत तय नहीं होती। यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि पार्टियां भटकी हुई हैं या दल-बदलू नेता। हम जानते हैं कि हर विपक्ष, सत्ताधारी पार्टी के हर फैसले का विरोध करना ही अपना धर्म समझने लगे हैं। सबसे हैरानी की बात तो यह है कि जब वही विपक्ष सत्ता में होता है, तब उसे वही सब अच्छा लगने लगता है जिसको पहले वह पानी पी-पीकर कोसता था। लोगों की मजबूरी यह है कि वे मूक दर्शक बनकर देखने के सिवा कुछ कर नहीं सकते, क्योंकि चुन लेने पर व्यवस्था ने इन सियासी रहनुमाओं को पाँच साल की गारंटी जो दे रखी है। यही वह कारण हैं जिसने देश की राजनीति में विश्वसनीयता का संकट खड़ा कर दिया है। सरकार चुनते वक्त वोटर को खुद पर भरोसा नहीं होता कि जिसे वह वोट दे रहे हैं वह उम्मीदवार सही है या गलत। वास्तव में इस दौर में पार्टियां और नेता एक जैसे हो गए हैं।

पार्टियां लालची नेता की कमजोरी का फायदा उठाकर अपने स्वार्थ साधने के लिए सिद्धांतों की धज्ज्यिां उड़ाती हैं। जो नेता कभी किसी पार्टी की सख्त निंदा करने में मशहूर होता है, ऐसा नेता दलबदली के बाद उसी पार्टी की तारीफ करने लगता है। जिसकी निंदा करता था। दरअसल राजनीति इस हद तक गिर गई है कि पार्टियां और नेता दोनों में आदर्शों की बात अब नहीं होती। संसद ने बहुत मेहनत से दल-बदल विरोधी कानून पास किया लेकिन चालाक नेताओं और पार्टियों ने इस कानून के बावजूद नए रास्ते निकाल दल बदलन् जारी रखा हुआ है, जिससे देश को कई बार केंद्र व राज्यों में मध्यकालीन चुनाव करवाने पड़े हैं। इस बुरे चलन से जहां राजनीतिक अस्थिरता बढ़ी, वहीं देश को चुनावों का अनावश्यक खर्च उठाना पड़ा। दलबदली प्रवृति न केवल लोकतंत्र को कमजोर कर रही है बल्कि राजनेताओं की जनता के प्रति समर्पण भावना भी खत्म हो रही है।

 

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