पाकिस्तान की बद्नीयति को झटका

Shock, Pakistan's, fame

प्रमोद भार्गव

भारत की किशनगंगा नदी बांध और जल विद्युत परियोजनाओं से बैचेन पाकिस्तान को गहरा झटका लगा है। दरअसल पाकिस्तान इन परियोजनाओं को लेकर विश्व बैंक के हस्तक्षेप के लिए पहुंचा था, किंतु विश्वबैंक ने पाकिस्तान की मांग को सिरे से खारिज करते हुए सलाह दी कि वह भारत के प्रस्ताव को यथास्थिति में मंजूर करे।

पाक इस विवाद को हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में लेकर भी पहुंचा है। यहां भारत ने न्यायालय से निष्पक्ष विशेषज्ञ की नियुक्ति की मांग की। गोया यहां भी पाकिस्तान का दांव उल्टा पड़ गया है। पाक के प्रसिद्ध अखबार डॉन न्यूज ने विश्व बैंक के अध्यक्ष जिमयोंग किम के हवाले से खबर दी है कि पाक इस मामले को अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में ले जाने से बचे। पाकिस्तान समझौते के समय से ही दावा करता रहा है कि किशनगंगा और सिंधू नदी पर भारत की कई परियोजनाएं विश्वबैंक की मध्यस्थता में 1960 में हुए समझौते का उल्लघंन कर रहा है।

भारत के हिस्से में महज 19.48 प्रतिशत पानी ही शेष रह जाता है। नदियों की ऊपरी धारा ( भारत में बहने वाला पानी) के जल-बंटवारे में उदारता की ऐसी अनूठी मिसाल दुनिया के किसी भी अन्य जल-समझौते में देखने में नहीं आई है। इसीलिए अमेरिकी सीनेट की विदेशी मामलों से संबंधित समिति ने 2011 में दावा किया था कि यह संधि दुनिया की सफलतम संधियों में से एक है।

लेकिन यह संधि केवल इसलिए सफल है, क्योंकि भारत संधियों की शर्तों को निभाने के प्रति अब तक उदार एवं प्रतिबद्ध बना हुआ है। जबकि जम्मू-कश्मीर राज्य को हर साल इस संधि के पालन में 60 हजार करोड़ रुपए का नुकसान उठाना पड़ता है। भारत की भूमि पर इन नदियों का अकूत जल भंडार होने के बावजूद इस संधि के चलते इस राज्य को बिजली नहीं मिल पा रही है।

दरअसल सिंधु-संधि के तहत उत्तर से दक्षिण को बांटने वाली एक रेखा सुनिश्चित की गई है। इसके तहत सिंधु क्षेत्र में आने वाली तीन नदियां सिंधु, चिनाब और झेलम पूरी तरह पाकिस्तान को उपहार में दे दी गई हैं। इसके उलट भारतीय संप्रभुता क्षेत्र में आने वाली व्यास, रावी व सतलुज नदियों के बचे हुए हिस्से में ही जल सीमित रह गया है।

इस लिहाज से यह संधि दुनिया की ऐसी इकलौती अंतरदेशीय जल संधि है, जिसमें सीमित संप्रभुता का सिद्धांत लागू होता है और संधि की असमान शर्तों के चलते ऊपरी जलधारा वाला देश, नीचे की ओर प्रवाहित होने वाली जलधारा वाले देश पाकिस्तान के लिए अपने हितों की न केवल अनदेखी करता है, वरन बालिदान कर देता है। इतनी बेजोड़ और पाक हितकारी संधि होने के बावजूद पाक ने भारत की उदार शालीनता का उत्तर पूरे जम्मू-कश्मीर क्षेत्र में आतंकी हमलों के रूप में तो दिया ही, अब इनका विस्तार भारतीय सेना व पुलिस के सुरक्षित ठिकानों तक भी हो गया है।
दरअसल पाकिस्तान की प्रकृति में ही अहसानफरोशी शुमार है। इसीलिए भारत ने जब झेलम की सहायक नदी किशनगंगा पर बनने वाली ’किशनगंगा जल विद्युत परियोजना’ की बुनियाद रखी तो पाकिस्तान ने बुनियाद रखते ही नीदरलैंड में स्थित ’अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता न्यायालय’ में 2010 में ही आपात्ति दर्ज करा दी थी।

जम्मू-कश्मीर के बारामूला जिले में किशनगंगा नदी पर 300 मेगावाट की जल विद्युत परियोजना प्रस्तावित है। हालांकि 20 दिसंबर 2013 को इसका फैसला भी हो गया। दुर्भाग्य कहलें या भारत द्वारा ठीक से अपने पक्ष की पैरवी नहीं करने के कारण यह निर्णय भारत के व्यापक हित साधे रखने में असफल रहा है।

न्यायालय ने भारत को परियोजना निर्माण की अनुमति तो दे दी, लेकिन भारत को बाध्य किया कि वह ’रन आॅफ दि रिवर’ प्रणाली के तहत नदियों का प्रवाह निरंतर जारी रखे। फैसले के मुताबिक किशनगंगा नदी में पूरे साल हर समय 9 क्यूसिक मीटर प्रति सेंकेड का न्यूनतम जल प्रवाह जारी रहेगा। हालांकि पाकिस्तान ने अपील में 100 क्यूसिक मीटर प्रति सेकेंड पानी के प्राकृतिक प्रवाह की मांग की थी, जिसे न्यायालय ने नहीं माना।
पाकिस्तान ने सिंधु जल-समझौते का उल्लघंन मानते हुए भारत के खिलाफ यह अपील दायर की थी। इसके पहले पाकिस्तान ने बगलिहार जल विद्युत परियोजना पर भी आपत्ति दर्ज कराई थी। जिसे विश्व बैंक ने निरस्त कर दिया था। किशनगंगा को पाकिस्तान में नीलम नदी के नाम से जाना जाता है। इसके तहत इस नदी पर 37 मीटर यानी 121 फीट ऊंचा बांध बनाया जाना है।

बांध की गहराई 103 मीटर होगी। यह स्थल गुरेज घाटी में है। इसका निर्माण पूरा होने के अंतिम चरण में है। 2018 में इसका काम पूरा हो जाने की उम्मीद है। बांध बनने के बाद किशनगंगा के पानी को बोनार मदमती नाले में प्रवाहित किया जाएगा। भारत ने इस परियोजना की शुरूआत 2007 में 3642.04 करोड़ की लागत से की थी।

न्यायालय के फैसले के परिप्रेक्ष्य में प्रश्न यह खड़ा होता है कि यदि किसी साल पानी कम बरसता है और किशनगंगा नदी बांध में पानी छोड़ने के लायक रह ही नहीं जाता है तो ’रन आॅफ दी रीवर’ प्रणाली का सिद्धांत अमल में कैसे लाया जाएगा ? इस दृष्टि से यह फैसला सिंधु जल-संधि की संकीर्ण व्याख्या है। कालांतर में पाकिस्तान को यदि इस फैसले के मुताबिक पानी नहीं मिलता है तो उसे यह कहने का मौका मिलेगा कि भारत अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता न्यायालय के फरमान का सम्मान नहीं कर रहा है। इसलिए भारत को सिंधु जल-बंटवारे पर पुनर्विचार की जरूरत है।

इसी किशनगंगा पनबिजली परियोना के मानचित्र को लेकर पाकिस्तान ने विश्वबैंक से हस्तक्षेप का अनुरोध करते हुए आपात्तियों की सुनवाई के लिए मध्यस्थता न्यायालय के गठन की मांग की थी, जो मान ली गई। साथ ही भारत की मांग के मुताबिक तकनीकि विशेषज्ञ की तैनाती भी कर दी गई। दरअसल पाक का कहना है कि परियोजना दोनों देशों के बीच सिंधु जल-संधि के तहत निर्धारित मानदण्डों के अनुरूप नहीं है। हालांकि भारत ने परियोजना की डिजाइन को संधि के मानदंडों के अनुरूप बताया है।

इसीलिए भारत ने ऐसे तकनीकि विशेषज्ञ की मांग की थी जो जल संसाधन की जानकारी रखने वाले इंजीनियर की तरह हो। किंतु विश्वबैंक ने जल संसाधन इंजीनियर की जगह कानूनी विशेषज्ञ की तैनाती की है, जो कतई तर्कसंगत नहीं है। क्योंकि इंजीनियर कानूनी विषेशज्ञ से कहीं ज्यादा परियोजना का निर्माण मानचित्र के अनुरूप हो रहा है अथवा नहीं बेहतर ढंग से बता सकता है।

दरअसल पाकिस्तान को आशंका है कि भारत परियोजना को निर्धारित मानचित्र के विपरीत ऐसा आकार दे रहा है, जिससे पाकिस्तान नदी में छोड़े गए पानी से प्रभावित होगा अर्थात उसे हानि उठानी पड़ेगी। इसीलिए भारत सरकार ने विश्वबैंक से कह दिया है कि परियोजना की सरंचना को लेकर पंचाट और विषेशज्ञ के गठन से दो समानांतर तंत्र विकसित कर दिए गए हैं।

लिहाजा इनका गठन कानूनी रूप से अतार्किक है। गोया, इससे परियोजना का निर्माण तो प्रभावित होगा ही किसी विवाद का हल भी होने वाला नहीं है। इसी प्रस्ताव पर सहमत होते हुए विश्वबैंक के अध्यक्ष ने अब कह दिया है कि पाकिस्तान इस विवाद को अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में ले जाने के अपने फैसले को बदले। दरअसल विश्वबैंक के अध्यक्ष भी इस पंचाट के एक सदस्य हैं। लिहाजा उनकी सलाह मानना ही पाकिस्तान के लिए लाभदायी है।


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