स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित ग्रामीण भारत

स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित ग्रामीण भारत

अक्सर हम देखते सुनते आए हैं कि असली भारत गांवों में बसता है। (Rural India) लेकिन गांव के लोगों की सेहत का ख्याल रखने वाले चिकित्सा केंद्र इक्कीसवीं सदी के भारत में भी बदत्तर स्थिति में ही हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में चलने वाले प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में चिकित्सा विशेषज्ञों की काफी कमी देखी जा रही है। जो देश में शहरों और गांवों के बीच एक ऐसी खाई को बढ़ावा दे रहे हैं, जिसके परिणाम आगामी भविष्य में काफी भयावह हो सकते हैं। भारत की कल्पना बिना गांवों के नहीं की जा सकती है।

भले ही देश कितना भी तरक्की कर ले, लेकिन गांवों में करीब 80 फीसदी चिकित्सा विशेषज्ञों की कमी होना अपने आप में कई सवालों को जन्म देने वाला है। अब ऐसे में स्वस्थ भारत, खुशहाल भारत कैसे बनेगा? यह सवाल काफी अहम हो जाता है। दरअसल महात्मा गांधी ने कहा था कि, ‘स्वास्थ्य ही वास्तविक पूँजी है न कि सोना चांदी के टुकड़े।’ अब गांवों में अगर मूलभूत सुविधाएं ही नहीं हैं और स्वास्थ्य केंद्र ही सुविधाओं के टोटे से जूझ रहे हैं। फिर ग्रामीण भारत की हालत कैसे सुधर सकती है?

ग्रामीण क्षेत्रों में सर्जन डॉक्टरों की लगभग 83 प्रतिशत कमी है (Rural India)

देश के ग्रामीण और दूर-दराज के अंचल स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में भी काफी आदिम अवस्था में और पिछड़े हुए हैं। जिसकी बानगी रूरल हैल्थ स्टैटिस्टिक्स 2021- 22 पेश करती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक देश के ग्रामीण क्षेत्रों में सर्जन डॉक्टरों की लगभग 83 प्रतिशत कमी है। बालरोग चिकित्सकों की 81.6 फीसदी और फिजिशियन की 79.1 प्रतिशत कमी है। यही स्थिति प्रसूति व स्त्री रोग विशेषज्ञों की है। ग्रामीण क्षेत्रों में इनकी अमूमन 72.2 प्रतिशत कमी है। इतना ही नहीं देश के ग्रामीण क्षेत्रों के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (पीएचसी) के हालात भी ठीक नहीं। ऐसे में अगर सुप्रीम कोर्ट ने ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों की स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर चिंता जाहिर की है, तो यह जायज है।

हम ग्लोबल लीडर बनने का दिवास्वप्न देखकर ही खुश नहीं हो सकते। जब तक कि वास्तविक स्थिति में आमूलचूल परिवर्तन न आए। गौरतलब है कि जनवरी 2023 में उच्चतम न्यायालय ने अपने एक फैसले में कहा कि ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों को शहरी क्षेत्रों के समान स्वास्थ्य सुविधाओं का अधिकार है। कोर्ट ने आगे अपने वक्तव्य में कहा कि सरकार ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच बढ़ाने के लिए बाध्य है, ग्रामीण आबादी की देखभाल के लिए योग्य डॉक्टरों की नियुक्ति की जानी चाहिए। जस्टिस बी.आर. गवई और बी.वी. नागरत्ना की पीठ ने कहा कि स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान करने में ग्रामीण और शहरी आबादी के बीच भेदभाव नहीं होना चाहिए।

भारत के ग्रामीण क्षेत्र स्वास्थ्य सुविधाओं में इतने पीछे क्यों

वैसे भी देखा जाए तो हम एक संवैधानिक देश में रहते हैं। जहां संविधान की प्रस्तावना ही हम भारत के लोग से शुरू होती है और जिस संविधान के लिखित स्वरूप में मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम के लोककल्याणकारी राज्य का चित्रण किया गया हो। वहां लोगों के साथ भेदभाव शहर और गांव के आधार पर कदापि नहीं होना चाहिए। आज दुनिया के हर क्षेत्र में जब तेजी से तरक्की हो रही है, फिर भारत के ग्रामीण क्षेत्र स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में इतने पीछे क्यों हैं? इस पर बहस की जरूरत है, न कि पांच ट्रिलियन अर्थव्यवस्था का ख़्वाब दिखाकर ग्रामीण और दूर-दराज में रहने वाली जनता के जीवन जीने के अधिकार को छीन लेना!

एक आंकड़े के अनुसार देश में गरीब परिवारों का जीवनकाल, 20 प्रतिशत समृद्ध परिवारों के मुकाबले औसतन 7 साल तक छोटा होता है। अब इसे न्याय की तराजू पर रखकर तौलिए, फिर सहज अंदाजा होगा कि लोकतंत्र में लोगों की कीमत क्या है? कहीं लोकतंत्र और संवैधानिक देश भी अर्थतंत्र की चौखट पर आकर घुटने टेकने को मजबूर तो नहीं? एक मुख्य सवाल यह भी है, क्योंकि जिस देश में ईलाज पर होने वाला आधे से अधिक खर्च किसी व्यक्ति की जेब से होता हो। फिर देश में 27 रुपए कमाकर गरीबी रेखा से बाहर निकल जाने वाला व्यक्ति खाएगा क्या और कोई बीमार पड़ा तो इलाज कराएगा कैसे?

हम सभी ये बात भलीभांति समझते हैं कि सुदूर अंचलों और ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं का आधार पीएचसी सेंटर ही होते हैं, लेकिन यह भी सत्य है कि जब कोई गरीब अपने परिजनों के इलाज के लिए इन सेंटर्स पर पहुँचते हैं, तो बेशुमार खामियां ही नजर आती हैं। भारत में चीन की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में 3,100 मरीजों पर मात्र एक बिस्तर है और कई राज्यों में यह आंकड़ा और भी दयनीय स्थिति में है। मालूम हो कि बिहार में अठारह हजार ग्रामीणों पर सिर्फ एक बिस्तर की व्यवस्था है और उत्तर प्रदेश में 3,900 मरीजों पर एक बिस्तर की व्यवस्था है। इसी तरह ग्रामीण क्षेत्रों में छब्बीस हजार की आबादी पर एक एलोपैथिक डॉक्टर है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि हर एक हजार लोगों पर एक डॉक्टर अवश्य होना चाहिए। अब एक गांव का गरीब व्यक्ति इलाज के लिए पैसे जोड़े या बच्चों की शिक्षा के लिए? यह उसके लिए लाख टके का सवाल होता है।

असंख्य ऐसी समस्याएं हैं, जिससे ग्रामीण जूझ रहे हैं (Rural India)

स्वास्थ्य और शिक्षा लोकतांत्रिक देश में मुफ्त या सस्ती और सुलभ होनी चाहिए, लेकिन हमारे देश में हालत इसके ठीक उलट है। शिक्षा और स्वास्थ्य देश में कमाई का जरिया बन चुका है। बशर्ते कि इसी बीच केंद्र सरकार ने कुछ ऐसे प्रयास किए हैं, ताकि ग्रामीण और गरीब लोगों तक सस्ती और बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं पहुँच सके। आज ग्रामीण क्षेत्रों में बस एक ही समस्या स्वास्थ्य से जुड़ी हुई नहीं है, अपितु ऐसी असंख्य समस्याएं हैं, जिससे ग्रामीण लोग जूझ रहे हैं। पीने योग्य साफ पानी, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, अच्छी सड़कें और रोजगार के साधन जैसी समस्याओं पर अक़्सर नेताओं को भी विचार-विमर्श करते हुए देखा जा सकता है, लेकिन होता वही है ढाक के तीन पात। जिस वजह से जमीनी हकीकत आज भी खराब है और सिर्फ कागजों में ही देश के गांवों की हालत गुलाबी कही जा सकती है।

हमारे देश का दुर्भाग्य तो देखिए संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत जीवन जीने की स्वतंत्रता का अधिकार देने वाले देश में संवैधानिक व्यवस्था तले कई स्वास्थ्य केंद्र तो ऐसे सुदूर अंचलों में हैं, जहां वर्षों से डॉक्टर झांककर देखने तक नहीं आए कि सरकारी बिल्डिंग बची भी है कि वह भी धराशायी हो गई। ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराना आज भी एक बड़ी चुनौती बना हुआ है। देश में स्वास्थ्य सेवाओं की दुर्दशा यह बताने के लिए काफी है कि अभी भी हमें इस क्षेत्र में काफी सुधार करने की आवश्यकता है। सुधार सिर्फ स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में ही करने की आवश्यकता नहीं, जरूरत तो मानसिकता में बदलाव की भी है। फिर वह चाहें हुक्मरानी व्यवस्था की मानसिकता हो या फिर ग्रामीण क्षेत्र में पर्याप्त जागरूकता की। देश में आजादी के बाद से ही भ्रष्टाचार का रोग गाढ़ा होता चला गया। जिसका असर स्वास्थ्य सेवाओं पर साफ देखा जा सकता है। ऐसे में आने वाले दिनों में कहीं सरकारें स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी सभी को आत्मनिर्भर होने को न कह दें? डर तो अब इस बात का भी सता रहा है।

मीडिया रिपोर्ट्स बताती है कि बिहार जैसे राज्य में 31 प्रतिशत स्वास्थ्य केंद्रों पर न पानी की सुविधा है और न ही बिजली की। इतना ही नहीं बरसात के मौसम में अस्पताल के अंदर पानी भर जाने की वीडियोज तो लगभग हर किसी ने वायरल होते देखी ही होगी। यह किसी एक राज्य की समस्या नहीं है अपितु समूचा भारत ही स्वास्थ्य सेवाओं में बदहाली की मार झेल रहा है। यही वजह है कि ग्रामीण क्षेत्र में आम जन या तो झोलाछाप डॉक्टरों से इलाज कराने को विवश है या फिर झाड़फूंक के जरिए अपनी बीमारियों से निजात पाने का प्रयास करते हैं।

सरकारी डॉक्टर की ग्रामीण क्षेत्र में ड्यूटी होने के बावजूद वह गांवों में नहीं जाते है, बल्कि शहरों में अपना खुद का प्राइवेट क्लिनिक शुरू कर देते हैं। ऐसे में असमानता की मार आज भी गरीब लोग झेल रहे हैं, लेकिन लोकतंत्र और संविधान की दुहाई देकर राजनीतिक दल अपना उल्लू सीधा करने में लगे हुए हैं। ऐसे में अगर सचमुच में गरीब और ग्रामीणों की सुध किसी को लोकतंत्र के बरक्स लेनी है, तो उन तक स्वास्थ्य सुविधाएं पहुँचाने की आवश्यकता है और यह दृढ़ इच्छाशक्ति और सार्वजनिक-निजी भागीदारी से ही संभव है। जिस दिशा में देश को आगे ले जाने की महती आवश्यकता है।

सोनम लववंशी, वरिष्ठ लेखिका एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार (ये लेखिका के निजी विचार हैं।)