कायम रहे संसद की मर्यादा

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सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को नए संसद भवन का उद्धाटन राष्ट्रपति (President) से कराने की याचिका पर सुनवाई से इनकार कर दिया। साथ ही कोर्ट ने कहा कि वह इस मामले में दखल नहीं देगा और यह अदालत का विषय भी नहीं है। उद्घाटन समारोह एक पॉलिटिकल इवेंट बन गया है। भारत के नए संसद भवन परिसर का उद्घाटन एक खुशी का अवसर है, लेकिन इस खुशी के अवसर पर एक शिकायत राजनीतिक गलियारों से होती हुई सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच गई। विपक्षी दलों की दलील है कि नया संसद भवन एक इमारत मात्र नहीं है। यह प्राचीन परंपराओं, मूल्यों के साथ ही भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद भी है।

वहीं सरकार कहती है कि देश में बढ़ती आबादी के साथ नये लोकसभा क्षेत्रों का परिसीमन होता है तो उसके अनुरूप भविष्य में संसद में अधिक सांसदों के बैठने की जगह होनी चाहिए। ताकि संसद का कार्य सुचारू रूप से चल सके। 28 मई को नए संसद भवन के उद्घाटन के लिए राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को आमंत्रित न करना विधायिका या कार्यपालिका द्वारा किया गया फैसला है और इसकी विवेचना अवश्य होनी चाहिए। यह राजनीति का विषय ही नहीं है, व्यावहारिकता से जुड़ा विषय है। ऐसे विषयों पर किसी भी व्यवस्था में बहस लगातार होती रहती है और समय के साथ उसमें सुधार भी होते रहते हैं। लोकतंत्र में संसद का वही स्थान है, जो भारतीय संस्कृति में मंदिर का है।

हमारे संविधान निर्माताओं ने इसलिए कहा भी था कि लोकतंत्र (Democracy) में प्रत्येक विचार का केंद्र बिंदु संसद ही है और राष्ट्र निर्माण में उसकी अहम भूमिका है। संसद के नवनिर्मित भवन को गुणवत्ता के साथ रिकॉर्ड समय में तैयार किया गया है। चार मंजिला संसद भवन में 1272 सांसदों के बैठने की व्यवस्था की गई है। लोकतंत्र का हमारा ये इतिहास देश के हर कोने में नजर आता है। कुछ पुरातन शब्दों से तो हम बराबर परिचित हैं, जैसे सभा, समिति, गणपति, गणाधिपति। ये शब्दावली हमारे मन मस्तिष्क में सदियों से प्रवाहित है। हजारों साल पहले रचित हमारे ऋग्वेद में लोकतंत्र के विचार को समज्ञान यानि समूह चेतना के रूप में देखा गया था।

संसदीय व्यवस्था में सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच सतत संवाद, सहमति, सहयोग, सहकार, स्वीकार और सम्मान का भाव प्रबल होना ही चाहिए। यही लोकतंत्र की विशेषता है। इसी में संसदीय परंपरा की महिमा और गरिमा है। संभव है, इसे कुछ लोग कोरी राजनीति कहकर विशेष महत्व न दें, बल्कि सीधे खारिज कर दें, परंतु मूल्यों के अवमूल्यन के इस दौर में ऐसी राजनीति की महती आवश्यकता है। ऐसी राजनीति ही राष्ट्र-नीति बनने की संभावना रखती है। ऐसी राजनीति से ही देश एवं व्यवस्था का सुचारू संचालन संभव होगा। संसद देश के एक सौ चालीस करोड़ से अधिक लोगों के लिये लोकतंत्र का मंदिर है। उसकी शुचिता-गरिमा को बनाये रखना सभी राजनीतिक दलों का दायित्व भी है। सत्तापक्ष व विपक्ष को इसका ध्यान रखना होगा।

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