
Nanihal Ki Yadein: वीरो मासी! वह चिल्लाई, वह भाग निकला, मस्तुआना साहिब की ओर दौड़ता हुआ! पकड़ो, पकड़ो! वीरो मासी ने शोर मचा दिया। मेरी माँ, नंगे पाँव, मेरे पीछे दौड़ पड़ी, और मैंने अपनी गति तेज कर दी। फिर नाना ने मुझे साइकिल पर पकड़कर अपने साथ ले लिया। नाना-नानी का दुलार ही मुझे ननिहाल की ओर खींच ले जाता था। मेरी मोसियां भी अपार स्नेह बरसाती थीं। छुट्टियों में ननिहाल का घर सभी भांजों के लिए खूब मस्ती का माहौल बन जाता था। सुबह-सुबह स्कूल का कार्य निपटाने के बाद, मामा के लड़कों के साथ पड़ोस में खेलते हुए छुट्टियाँ कब गुजर जाती थीं, पता ही न चलता। कभी मठरियां, कभी गुलगुले, कभी मालपुए, कभी पकौड़े- पूरा महीना स्वादिष्ट व्यंजनों का उत्सव चलता रहता। समय बीता। मौसियों के विवाह दूर-दूर के गाँवों में हुए।
मैं भी अपनी वैवाहिक जिंदगी में उलझ गया। अब कभी-कभार, एक-दो घंटे के लिए मामा के गांव चक्कर लगता। खूब प्यार करने वाली नानी अब इस संसार में नहीं थी। ननिहाल के उस आँगन में, जहाँ नानी बैठकर मालपुए बनाती थी, अब सन्नाटा पसरा रहता। वहाँ खड़े होकर मेरी आँखें आँसुओं से भीग जातीं। जब हम जाते, हमें गले लगाकर दुकान पर ले जाती और पहले ही दिन ढेर सारा सामान लाकर दे देती। मेरी मौसियाँ भी बड़ी बहादुर थीं। जब कुल्फी वाला आता, वे तुरंत गेहूँ की थैली भर देतीं, और हम सब कुल्फियां लेकर खूब मजे करते।
आज फिर ननिहाल जाने का अवसर मिला। वीरो मासी कुर्सी पर बैठी थी। मैं उसे पहचान न सका और सिर हिलाकर भिंदर मामा की ओर बढ़ गया। तभी मेरी पत्नी ने मासी के चरण स्पर्श कर लिए। और बोली की कि अब भूल गए हो हमें। मैंने कहा, कौन? मैंने तो नहीं पहचाना। मैं तेरी वीरो मासी! मासी अब पहले से कहीं अधिक गोल-मटोल और तंदुरुस्त हो गई थी। और क्यों न हो? मासड़ तो जेल वार्डन था, जो रिटायर हो चुका था। धन की चमक मासी के चेहरे पर स्पष्ट झलक रही थी। लाल, दमकता चेहरा ऐसा प्रतीत होता था मानो मासी का अभी-अभी विवाह हुआ हो। हमारी हंसी-ठिठोली चलती रही, और पुरानी बातों में डूबते हुए पता ही न चला कब शाम ढल गई। जैसे-जैसे मासी बोलती गई, पुराने समय की एक चलचित्र-सी रील मेरे सामने चलती रही।
सुना था, मौसियां भी माँ की तरह प्यार करती हैं। मैंने इसे अनुभव भी किया। मासी बोली, मेरे लड़के का रिश्ता भी करवा दे। हमारी बातें चलती रहीं, और समय अपनी गति से बढ़ता रहा। घर लौटते हुए मैं अपनी पत्नी को ननिहाल की कहानियां सुनाता रहा, और सफर कब समाप्त हो गया, पता ही न चला।
अमनदीप शर्मा, गुरनेकलां, मानसा (पंजाब)। मो. 98760-74055