लोकसभा चुनाव की गहमागहमी तेज हो चुकी है। खूब शोर मच रहा है। कौन जीतेगा, कौन हारेगा, इस पर बहस भी छिड़ चुकी है। इन सबके बीच डर इस बात का है कि कहीं जोड़-तोड़, समीकरण, जातीय और मजहबी गोलबंदी के सियासी शोर में आम लोगों के मुद्दे गायब न हो जाएं। अपने मुद्दे को सहेजने, समझने और नेताओं को याद दिलाने का काम जनता और मीडिया का है। इसलिए जनता को सचेत रहना होगा, वरना फिर पांच साल तक पछताने के अलावा कुछ नहीं बचेगा। इसलिए बहुत सोच-समझकर नेताओं की बातों को सुनना है और उचित फैसला लेना है। पिछली सरकार के कामकाज का आकलन भी करना और भावी सरकार की संभावनाओं पर भी विचार करना है। पिछली सरकार ने विकास के कई वादे किए थे। जिनमें स्मार्ट सिटी व बुलेट ट्रेन की खूब चर्चा रही। यह पूछा जाना चाहिए कि इसमें क्या प्रगति हुई। सरकार से सवाल करना जरूरी है। चुनावी मैदान में उतरे नेता अक्सर मुद्दों को घुमाने की कोशिश करते हैं। वो चाहते हैं कि जनता का असली मुद्दा न उठे। चुनावों के पहले तक बेसहारा गोवंश एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरा था। किसानों ने स्कूलों, कॉलेजों, अस्पतालों सहित तमाम सरकारी भवनों में बेसहारा सांड और गायों को लाकर ठूंसना शुरू कर दिया था। विपक्षी दलों ने इस मुद्दे पर गोभक्तों को जमकर घेरा था। तब यह मसला सुर्खियों में था। मीडिया में भी इसे खूब कवरेज मिली थी। लेकिन आज यह मसला आज पूरी तरह से दम तोड़ चुका है।
बीते पांच वर्षों में गन्ना किसानों का मुद्दा भी खूब चर्चा में रहा। कभी पर्ची की दिक्कत तो कभी चीनी मिलों के चलने-बंद होने का रोना। कभी भुगतान तो कभी गन्ना मूल्य बढ़ोतरी। ये खबरें मीडिया की सुर्खियों में रहीं। कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी और मायावती ने इस पर ट्वीट कर सरकार को घेरने की कोशिश जरूर की थी लेकिन अन्य नेताओं के चुनावी भाषणों में यह मुद्दा लगभग नदारद है। यदि यूपी की ही बात करें तो राज्य में करोड़ों का भुगतान अभी बकाया है लेकिन सरकार ने पिछले सत्र का करीब-करीब गन्ना भुगतान कर दिया है। वहीं, दूसरी ओर इस मसले पर किसानों की लड़ाई लड़ने वाली भारतीय किसान यूनियन साफ कर चुकी है कि चुनावों में वह इस मुद्दे को हवा नहीं देगी। शायद यही वजह है कि यह मुद्दा अभी जमीन पर धार नहीं पकड़ पाया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वोट बैंक के लिए कुछ पार्टियां साम्प्रदायिक मुद्दे को हवा दे रही हैं। कभी हिन्दू-मुस्लिम तो कभी मंदिर-मस्जिद। सवाल यह उठ रहा है कि क्या इन मुद्दों से देश का विकास हो जाएगा। युवाओं को रोजगार मिल जाएगा। शायद नहीं। इसलिए जरूरत इस बात की है कि आम जनता इन मुद्दों नजरंदाज कर असल मुद्दों पर सरकार व प्रत्याशियों का ध्यान आकृष्ट कराए। यही देश हित में होगा।
मौजूदा केन्द्र सरकार अपनी उपलब्धियों का बखान कर रही है। वह यह बताते हुए नहीं थकती कि पिछले पांच वर्षों में जितना काम हुआ है, उतना सत्तर वर्षों में भी नहीं हुआ। इसी बीच एक खबर आई है कि मनरेगा मजदूरों की वेतन वृद्धि सबसे कम हुई है। ग्रामीण विकास मंत्रालय ने राज्यों के अकुशल कामगारों को मनरेगा के तहत मिलने वाले वेतन का ब्यौरा दिया है। इसमें बताया गया है कि इस साल इसमें 2.16 प्रतिशत की वृद्धि की गई। यह वेतन वृद्धि अब तक की सबसे कम है। इस साल एक अप्रैल से होने वाली वेतन वृद्धि में 6 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के मजदूरों को कोई वृद्धि नहीं मिली है। बाकी 15 राज्यों के मजदूरों को एक रुपए से लेकर पाँच रुपए तक की वेतन वृद्धि दी गई है। खबर में यह भी बताया गया है कि बीते कुछ सालों से मनरेगा की वेतन वृद्धि लगातार कम होती गई है। साल 2018-19 में 2.9 प्रतिशत वेतन वृद्धि हुई थी। जरा सोचिए। क्या यही सरकार की उपलब्धि है। क्या इसी उपलब्धि के आधार पर वोट मिलना चाहिए। लेकिन अफसोस कि यह मुद्दा चुनावी शोर में नहीं उठेगा। इसकी कहीं चर्चा नहीं होगी। इस मुद्दे पर कोई सवाल भी नहीं करेगा। इसलिए कम से कम लाभार्थी वर्ग को सवाल करना ही चाहिए। यह पूछना चाहिए कि आखिर उनके श्रम का इतना खराब हश्र क्यों।
इसके अलावा देश में बेरोजगारी की दर बीते 45 वर्षों में सबसे ज्यादा है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) की रिपोर्ट के अनुसार यह दर 6.1 फीसद है जो कि वर्ष 1972-73 के बाद सबसे ज्यादा है। वर्ष 2011-12 में यह सिर्फ 2.2 फीसद थी। केंद्र सरकार ने एक वर्ष पहले रोजगार से संबंधित सर्वेक्षण नहीं करवाए जाने की बात कही थी। इसके बाद जब सर्वेक्षण करवाया गया तो रोजगार की बुरी स्थिति सामने आई और राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग द्वारा मंजूरी दिए जाने के बाद भी सरकार ने इसे जारी नहीं किया। रोजगार के आंकड़े जारी नहीं किए जाने के विरोध-स्वरूप आयोग के कार्यकारी अध्यक्ष पीसी मोहनन और सदस्य जेवी मीनाक्षी ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था। बेरोजगारी से संबंधित आंकड़े उपलब्ध नहीं होने से सरकार पर पहले से ही लगातार सवाल उठ रहे थे कि भारत में रोजगार की स्थिति जानने के लिए सर्वेक्षण क्यों नहीं करवाया जा रहा है। इसका सीधा-सा अर्थ यही निकलता है कि सरकार देश में रोजगार और बेरोजगारी की वास्तविक स्थिति से संबंधित तथ्यों को सामने लाने से बच रही थी। एनएसएसओ की रिपोर्ट में इस बात को भी उजागर किया गया है कि बेरोजगारों में सबसे ज्यादा संख्या युवाओं की है जो तेरह से 27 फीसद है। ज्यादातर बेरोजगार शहरी क्षेत्रों में हैं। शहरी क्षेत्रों में जहां बेरोजगारी की दर 7.8 फीसद है, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में यह दर 5.3 फीसद है। शहरी क्षेत्रों में पंद्रह से उनतीस वर्ष के आयु-वर्ग में बेरोजगारी की दर सबसे ज्यादा है।
बताते हैं कि शहरों में इस आयु-वर्ग के 18.7 फीसद युवक और 27.2 फीसद युवतियां हैं, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में 17.4 फीसद युवक और 13.6 फीसद युवतियां बेरोजगार हैं। यह समस्या तब और भी विकट हो जाती है जब हर महीने लगभग दस लाख नए रोजगार की जरूरत पड़ती है और इसकी तुलना में रोजगार-सृजन न के बराबर ही हो रहा है। रिपोर्ट में यह बात भी सामने आई है कि देश के लगभग 77 फीसद घरों में नियमित वेतन या आय का कोई साधन नहीं है। इस रिपोर्ट से एक नतीजा यह निकलता है कि लघु व मध्यम दर्जे के उद्योग पूरी तरह से उपेक्षित हैं। इनकी हालत अच्छी नहीं है। ये उद्योग लगभग 40 फीसद लोगों को रोजगार दे रहे हैं। भारत में निर्मित सामान में इनका हिस्सा 45 फीसद और कुल निर्यात में 40 फीसद है। कोई भी सहायक सरकारी नीति न होने से इन उद्योगों को बढ़ावा नहीं मिल पा रहा है। सरकार की वित्तीय नीतियां भी बड़ी कंपनियों पर ही केंद्रित होती हैं। संगठित उपक्रमों में विकास को विशेषकर स्थानीय नीतियां प्रभावित करती हैं। छोटे संगठित क्षेत्रों को कौशल रहित लोगों को रोजगार देना, नकदी अभिदान आदि जैसी विशेषताओं से पार पाना मुश्किल हो जाता है जिस कारण ऐसे उद्यमों का चल पाना खटाई में पड़ जाता है। यूं कहें कि हालात ठीक नहीं रहे हैं। इसलिए इस चुनाव में मुद्दे को समझना है और नेताओं से मुद्दों पर चर्चा करते रहना है ताकि वे उसे भूल न सकें। यदि कोई भूलने की कोशिश भी करे तो उसे याद दिलाते रहना है। बहरहाल, देखना यह है कि चुनावी ऊंट किस करवट बैठता है।
Hindi News से जुडे अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter पर फॉलो करें।















