उलझन में अफगानिस्तान

Taliban expected to fulfill the promise of new government of America

काबुल हवाई अड्डे पर हुए धमाकों की जितनी निंदा की जाए, कम होगी लेकिन दूसरी तरफ अमेरिका ने बमबारी कर खुरासन तालिबानियों के हमले का करारा जवाब दिया। काबुल के हवाई अड्डे पर भीड़ और हिंसा की तस्वीरें अनिश्चितता और दुर्दशा पेश कर रही हैं। अमेरिका का यह हमला पश्चिमी देशों के लिए बड़ा सबक है, जो आतंकवाद के खिलाफ पूरी तरह ईमानदार नहीं रहे हैं। ईमानदारी होती, तो न तालिबान यूं काबुल पर चढ़ आते और न अमेरिकी सैनिक शहीद होते। अपने देश में लोकतंत्र सुनिश्चित रखना और दूसरे देशों में तानाशाही या ताकत के सामने घुटने टेक देना उदारता नहीं है। ऐसी ही कथित उदारता पाकिस्तान जैसे देशों में आतंकवाद के पालन-पोषण की वजह है। बड़े दुख की बात है कि विश्व के विकसित देश तमाशा देख रहे हैं और अमन-सुरक्षा के लिए कोई प्रयास नजर नहीं आ रहा। चीन, रूस और पाकिस्तान ने तालिबान का समर्थन कर स्थिति को बेहद जटिल बना दिया है।

पाक तालिबान, जो शुरूआत में पाकिस्तान से दूरी बनाकर चल रहा था अब पाकिस्तान के राग अलाप रहा है। तालिबान ने पाकिस्तान को अपना दूसरा घर बताकर भारत को भी संदेश दे दिया है। यही नहीं तालिबानी नेताओं ने कश्मीर के मुद्दे पर टिप्पणियां कर कहीं न कहीं पाकिस्तान की तरफ झुकाव दिखाया है। तालिबान दोहा में किए गए अपने वायदे से भी मुकर रहे हैं। तख्ता पलट के बाद जिस प्रकार अफगान सैनिक अधिकारियों और विरोधियों की हत्याएं की जा रही हैं, वह किसी भी समझौते का हिस्सा नहीं है। भारत का फिलहाल तालिबान को मान्यता न देना सराहनीय निर्णय है, जो देश की मानवीय विचारधारा और लोकतंत्रीय मूल्यों के अनुकूल है। सभी पार्टियों की बैठक में मोदी सरकार की प्राथमिकता अफगानिस्तान में फंसे हुए भारतियों को वापिस लाना है, यह निर्णय ही संकेत दे रहा है कि भारत तालिबान को समर्थन देने के लिए हड़बड़ाया नहीं। इस वक्त सबसे बुरा हाल अफगानिस्तान की जनता का है, जो दहशत में दिन व्यत्तीत कर रहे हैं। तालिबान में अलग-अलग गुट होने पर अमेरिका विरोधी नजरिया होने के कारण हालात तनावपूर्ण हो रहे हैं।

अमेरिका अपने नागरिकों को निकालने के लिए सेना तैनात कर चुका है लेकिन तालिबान अमेरिकी सैनिकों को अगस्त तक देश छोड़ने का अल्टीमेटम दे चुके हैं। इन परिस्थितियों में विकसित देशों का अपने-अपने हित साधना मौकाप्रस्ती व इंसानियत के प्रति अपराध है। हिंसा का विरोध करने वाले देश तालिबान की कार्रवाई पर चुप रहकर तालिबानों की करतूतों को जायज करार बता रहे हैं। यह परिस्थितियां भारत के लिए चिंता का विषय है। अफगानिस्तान को ऐसे नेता या राष्ट्रपति की जरूरत नहीं, जो डर के मारे खजाना समेटकर रातोंरात नौ दो ग्यारह हो जाए। यह अफगानी मिट्टी में पैदा बंदूकधारी कायरों को नहीं, बल्कि इंसानियत के प्रति सजग वीरों और उनके संगठनों को सही मायने में मजबूत करने का वक्त है। अफगानिस्तान को फिर 1990 के दशक वाले दौर में धकेलना इंसानियत के प्रति बड़ा अपराध होगा। विकसित देशों को अपनी हितों की लड़ाई छोड़कर हिंसा और अनिश्चितता को समाप्त करने के लिए अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए।

 

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