Drug Crisis: मनुष्य का जीवन अनमोल है और स्वास्थ्य उस जीवन का मूलाधार। यह जीवन यदि रोगग्रस्त हो जाए तो उसका हर रंग, हर सुख फीका पड़ जाता है। बीमार शरीर न केवल व्यक्ति की दैनिक क्रियाओं को बाधित करता है, बल्कि उसका मानसिक संतुलन, सामाजिक व्यवहार और आर्थिक स्थिति तक को प्रभावित करता है। ऐसे में औषधियां जीवन की पुनर्स्थापना का सबसे सशक्त माध्यम बन जाती हैं। परंतु कल्पना कीजिए, यदि वही औषधियां जो जीवनदायिनी कही जाती हैं, गुणवत्ताहीन, दूषित या अमानक स्तर की हों तो? तब वे औषधियां बीमारी का उपचार करने के बजाय स्वयं एक गंभीर समस्या का कारण बन सकती हैं। यह स्थिति न केवल व्यक्ति विशेष बल्कि पूरे समाज के स्वास्थ्य और विश्वास पर कुठाराघात करती है। अत: यह अत्यंत आवश्यक है कि दवा की गुणवत्ता को लेकर सरकार, उद्योग, चिकित्सा समुदाय और आम जनता सभी सजग, सतर्क और जिम्मेदार हों। Drug Crisis
भारत में औषधियों का निर्माण एक विशाल उद्योग है। हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, महाराष्ट्र, गुजरात, गोवा और कई अन्य राज्यों में दवा निर्माण की बड़ी-बड़ी इकाइयां स्थापित हैं। ये इकाइयां न केवल देश की आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं, बल्कि वैश्विक बाजार में भी भारतीय दवाओं का निर्यात होता है। हाल ही में केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) द्वारा प्रतिमाह की जाने वाली दवाओं की गुणवत्ता जांच के जून माह के आंकड़ों ने चिंता की लकीरें खींच दी हैं। 188 दवाओं के नमूनों में गुणवत्ता की कमी पाई गई, जिनमें से 58 दवाएं हिमाचल प्रदेश में निर्मित थीं। विशेष रूप से बद्दी क्षेत्र, जो हिमाचल का एक प्रमुख औद्योगिक केंद्र है, वहां एक ही उद्योग की 16 दवाओं के नमूने फेल पाए गए। इसके अतिरिक्त गोवा और महाराष्ट्र जैसे अन्य राज्यों की इकाइयों में भी 6-6 दवाओं में गंभीर गुणवत्ता दोष सामने आए हैं। Drug Crisis
दवाओं की गुणवत्ता में कमी के कारण केवल रासायनिक संरचना या औषधीय तत्वों की कमी ही नहीं है। जांच रिपोर्टों में पाया गया कि कई दवाओं में लेबल और डिस्क्रिप्शन की गलतियां थीं, जो चिकित्सकों और मरीजों को भ्रमित कर सकती हैं। कुछ दवाओं में धूल के कण तक पाए गए। जो निर्माण इकाइयों की स्वच्छता और प्रक्रिया नियंत्रण पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है। यदि दवा की मात्रा निर्धारित से कम हो, या उसकी प्रभावशीलता सन्देहास्पद हो, तो उससे न केवल उपचार विफल हो सकता है बल्कि प्रतिरोधकता जैसी जटिलताएं भी उत्पन्न हो सकती हैं।
हिमाचल प्रदेश का नाम विशेष रूप से बार-बार सामने आना एक गंभीर संकेत है। यह राज्य दवा निर्माण के क्षेत्र में अग्रणी बनकर उभरा है। सोलन जिले के बद्दी, बरोटीवाला और नालागढ़ जैसे क्षेत्रों में अनेक औषधि उद्योग कार्यरत हैं, जो हजारों लोगों को रोजगार प्रदान करते हैं। किंतु यदि वहां की दवाएं बार-बार परीक्षण में फेल हो रही हैं, तो यह उद्योग की नैतिकता, निगरानी और नियमन की विफलता को दर्शाता है। ऐसे में केवल जांच रिपोर्ट प्रकाशित कर देना पर्याप्त नहीं, बल्कि इन इकाइयों के विरुद्ध कठोर कार्रवाई और सुधारात्मक कदम अनिवार्य हैं।
दवाओं की गुणवत्ता एक ऐसा विषय है, जिसमें किसी भी प्रकार की कोताही स्वीकार्य नहीं हो सकती। सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह यह सुनिश्चित करे कि बाजार में भेजे जाने से पहले प्रत्येक दवा की गुणवत्ता की कठोर जांच हो। दवा निर्माण की हर प्रक्रिया- कच्चे माल की गुणवत्ता, संयंत्र की स्वच्छता, कर्मचारियों का प्रशिक्षण, मशीनों की शुद्धता, और भंडारण की विधि को एक मानकीकृत प्रक्रिया के तहत संचालित किया जाए। विशेष रूप से उन उद्योगों पर विशेष निगरानी होनी चाहिए जिनकी दवाएँ बार-बार असफल पाई जा रही हैं। इन पर न केवल जुर्माना लगाया जाना चाहिए बल्कि उन्हें लाइसेंस निलंबन अथवा रद्द करने की कार्रवाई भी करनी चाहिए।
इस समस्या की जड़ में नीति निर्माण, प्रशासनिक निगरानी और उद्योगों की व्यावसायिक नैतिकता तीनों का समावेश है। सरकार को यह समझना होगा कि यदि औषधियां गुणवत्ताहीन होंगी तो गरीब, ग्रामीण, दूरस्थ क्षेत्रों में रहने वाले लाखों लोग सबसे अधिक प्रभावित होंगे, जिनके पास दोबारा इलाज कराने या महंगी जांच करवाने की आर्थिक क्षमता नहीं होती।
दवा उद्योग को भी यह आत्मावलोकन करना होगा कि क्या वह केवल लाभ कमाने की होड़ में गुणवत्ता के साथ समझौता कर रहा है? क्या उत्पादन की लागत घटाने की लिप्सा में वह नैतिक मर्यादाएं लांघ रहा है? यदि हाँ, तो यह न केवल समाज के प्रति अपराध है, बल्कि उद्योग की दीर्घकालिक साख और अस्तित्व के लिए भी हानिकारक है। व्यवसाय में नैतिकता और गुणवत्ता, दोनों को एक-दूसरे का पूरक होना चाहिए। Drug Crisis
दूसरी ओर, चिकित्सा विशेषज्ञों, फार्मासिस्टों और उपभोक्ताओं की भी जिम्मेदारी बनती है कि वे सजग रहें। डॉक्टरों को चाहिए कि वे प्रमाणिक, प्रमाणित और गुणवत्ता युक्त दवाओं की सिफारिश करें। फार्मासिस्टों को अपनी दुकान पर नकली या संदिग्ध दवाओं के वितरण से बचना चाहिए। वहीं उपभोक्ताओं को भी दवा की पैकेजिंग, एक्सपायरी, निर्माण कंपनी और सरकारी प्रमाणन के प्रति जागरूक होना चाहिए। नागरिक सहभागिता और जागरूकता इस संकट से उबरने का एक सशक्त माध्यम हो सकता है।
इस तरह से कहा जा सकता है कि सरकार को चाहिए कि वह इस समस्या पर तात्कालिक नहीं, बल्कि दीर्घकालिक, ठोस और व्यापक नीति बनाए। गुणवत्ताहीन दवाओं का निर्माण केवल कानून का उल्लंघन नहीं, बल्कि मानवता के विरुद्ध अपराध है। जो दवाएँ जीवन देती हैं, यदि वे ही विष बन जाएँ, तो यह पूरे स्वास्थ्य ढांचे की विफलता है। इसलिए अब समय आ गया है कि इस विषय पर समग्रता से विचार हो, और दवा की गुणवत्ता को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाए, ताकि भारत का स्वास्थ्य ढांचा सुरक्षित, विश्वसनीय और जीवनदायिनी बन सके।
(यह लेखक के अपने विचार हैं)