असंवेदनशील सिस्टम, सरकार और समाज

Insensitive, Systems, Government, Society, India

झारखंड के कोडरमा जिले में भुखमरी के कारण हुई एक ग्यारह वर्षीय बच्ची की मौत का मामला इन दिनों सुर्खियों में है। भोजन के अभाव में हुई बच्ची की मौत ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, सरकारी कार्यशैली और मानवता को कठघरे में ला खड़ा किया है। जनकल्याण पर आधारित लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में भूख से किसी नागरिक की मौत होना सामान्य बात नहीं है। इसे शासन की विफलता के प्रतिबिंब के रुप में देखा जाना चाहिए। यह हाल तब है, जब देश में समाज के गरीब तबकों के सामाजिक और आर्थिक कल्याण के लिए जन-वितरण प्रणाली, अंत्योदय अन्न योजना, मध्याह्न भोजन योजना, एकीकृत बाल विकास सेवाएं, समेकित बाल विकास परियोजना व राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम सहित दर्जनों सरकारी कार्यक्रम सक्रिय रुप से काम कर रही हैं।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत, गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे परिवारों को जहां रियायती दर पर खाद्यान्न उपलब्ध कराया जा रहा है, वहीं खाद्य सुरक्षा अधिनियम-2013 के माध्यम से देश के सभी राज्य सरकारों ने अपने यहां हरेक नागरिक के भोजन के अधिकार को सुनिश्चित करने की कानूनी पहल की है। भुखभरी से निपटने के नाम पर देश में अनेक योजनाएं बनी हैं, लेकिन कहीं न कहीं उसके क्रियान्वयन में लापरवाही बरती जा रही है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या दोषियों पर कोई कार्रवाई होगी या सबक लेने के लिए अगली घटना होने तक का इंतजार किया जाएगा? एक तरफ, हम देश को महाशक्ति बनाने की बातें करते हैं, लेकिन भूख व कुपोषण जैसी समस्याओं की वजह से हमें शर्मिंदा होना पड़ता है। क्या इन समस्याओं से भारतीय समाज कभी स्थाई रुप से उबर भी पाएगा?

घटना 28 सितंबर की है, लेकिन उसे खबर बनने में बीस दिन लग गये। समझ में नहीं आता कि यहां गरीबों के जीवन की कोई कीमत है या नहीं? लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत, ग्रामीण क्षेत्रों में 75 फीसदी तथा शहरी क्षेत्रों की 50 फीसदी आबादी को प्रतिमाह, पांच किलोग्राम चावल, गेहूं व मोटा अनाज क्रमश: 3, 2 और 1 रुपये प्रति कि.ग्रा. की रियायती दर पर उपलब्ध कराया जाना है। जानकारी के मुताबिक, पीड़ित परिवार को जन-वितरण प्रणाली के तहत पिछले 8 महीनों से सिर्फ इस वजह से राशन नहीं दिया गया, क्योंकि उसका राशन कार्ड आधार से जोड़ा नहीं जा सका था। ऐसा करना इसलिए जरुरी था, क्योंकि राज्य की मुख्य सचिव ने इस मामले में सख्त आदेश दिये थे।

जबकि, रांची हाईकोर्ट ने अपने एक आदेश में कहा भी था कि जिनके राशन कार्ड आधार से नहीं जोड़े गए हैं, उन्हें भी राशन दिया जाए। राशन के अभाव में, पीड़ित परिवार के घर पर कई दिनों तक चूल्हा नहीं जला। 28 सितंबर को कई दिनों से भूखी लड़की भोजन के अभाव में दम तोड़ने को विवश हो गई। हाईकोर्ट के आदेश की अवहेलना क्यों की गई, राशन कार्ड को आधार से लिंक नहीं किया गया था, तो इसकी पहल क्यों नहीं की गई, जैसे सवाल अनुत्तरित हैं। लगभग 8 महीने से राशन का न मिलना हमारी जन-वितरण प्रणाली की पारदर्शिता पर भी सवाल खड़े करता है। साथ ही, बच्ची की मौत से कहीं न कहीं मानवता भी शर्मसार हुई है। एक औरत अपने मरणासन्न बच्ची के भोजन के लिए भटकती है, लेकिन मदद के लिए एक भी हाथ नहीं उठता! आखिर हमारा सिस्टम, सरकार और समाज इतना असंवेदनशील क्यों हो गया है?

भौतिक संसाधनों की उपलब्धता के मामले में, झारखंड की गिनती देश के संपन्न राज्यों में की जाती है। लेकिन, इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि राजनीतिक अस्थिरता की वजह से यह राज्य विकास की मनचाही गति को स्थापना के 17 वर्ष बाद भी प्राप्त नहीं कर सका है। 2019 में यहां पुन: चुनाव होने वाले हैं। एक बार फिर, राजनीतिक पार्टियां गरीबों के कल्याण की तमाम बातें करेंगी, लेकिन हालात नहीं बदलेंगे। क्योंकि देश में गरीबी हटाने की बात कई दशकों से की जा रही हैं। दरअसल, गरीबों के कल्याण के नाम पर राजनीति करना फैशन बन गया है। वहीं, गरीबों के साथ सहानुभूति सत्ता तक पहुंचने का माध्यम बन चुकी है।

सच तो यह है कि देश में गरीबों के नाम पर केवल सियासत होती है। नेताओं के लिए गरीब ‘वोट बैंक’ के सिवा कुछ नहीं है। गरीबों की जगह केवल राजनीतिक पार्टियों के घोषणापत्रों में होती है। इधर, भूख से हुई मौत पर झारखंड की राजनीति एक बार फिर गरमा गई है। सवाल यह है कि क्या हर बार सबक ठोकर लगने के बाद ही सीखा जाए? वर्ष 2011 में जब अर्जुन मुंडा झारखंड के मुख्यमंत्री थे, तब उन्होंने जरुरतमंदों को सस्ते दर पर भोजन उपलब्ध कराने के लिए, राज्य में ‘मुख्यमंत्री दाल-भात योजना’ की शुरूआत की थी। योजना काफी चर्चित रही और सफल भी। राज्य के करीब 22 लाख से अधिक लोगों के प्रतिदिन भूख मिटाने का वह महत्वपूर्ण जरिया बन गई।

राज्य के सभी 24 जिलों में 400 से अधिक केंद्र खोलकर वंचितों व जरुरतमंदों को मात्र पांच रुपये में एक वक्त का खाना सुनिश्चित कराने की पहल की गई थी, लेकिन, 2014 में फंड की कमी बताकर सरकार ने इस योजना पर ब्रेक लगा दिया और इस तरह आश्रित 22 लाख लोगों के प्रतिदिन का निवाला छीन लिया गया। उसके बाद, मुख्यमंत्री बनने वाले हेमंत सोरेन और वर्तमान सीएम रघुवर दास ने वैसी कल्याणकारी योजनाओं पर दोबारा ध्यान नहीं दिया। अगस्त महीने में कुपोषण की वजह से राज्य के तीन जिलों रांची, जमशेदपुर व धनबाद के नामी अस्पतालों में सैकड़ों बच्चों की मौत हो गई थी। लेकिन, उस घटना से भी सबक लेने की कोशिश नहीं की गई!

संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2030 तक समस्त विश्व को भुखमरी से मुक्त करने का आह्वान किया है। लेकिन, भुखमरी से जंग के मामले में हम कितने पीछे हैं, इसे वैश्विक भुखमरी सूचकांक की ताजा रिपोर्ट से स्पष्टत: समझा जा सकता है। इस बार, 119 देशों की सूची में हम सौवें पायदान पर हैं, जबकि पिछले वर्ष 97वें नंबर पर थे। तीन पायदान के इस फिसलन पर जवाब देने के लिए कोई राजी नहीं है। जाहिर है, देश में सरकारें केवल उच्च विकास दर बरकरार रखने के दावे करती हैं, लेकिन भुखमरी व कुपोषण के मामलों में किसी तरह की कमी आती नहीं दिख रही है। बाल कुपोषण और बाल मृत्यु दर में कमी लाकर नेपाल जैसा संसाधनविहीन देश भारत से मजबूत स्थिति में पहुंच गया है, जबकि 31.4 स्कोर के साथ भारत की स्थिति ‘गंभीर’ है।

गौरतलब है कि मौजूदा समय में भारत में विश्व की भूखी आबादी का करीब 23 फीसदी हिस्सा निवास करता है और करीबन 39 फीसदी बच्चे देश में पर्याप्त पोषण से वंचित हैं। ऐसी स्थिति को देखते हुए, किस आधार पर माना जाए कि हमारी सरकार वर्ष 2022 तक ‘न्यू इंडिया’ बनाने जा रही है! क्या हमारे ‘नये भारत’ में भी वर्तमान की तरह भूख और कुपोषण को जगह मिलेगी? अत: आज के संदर्भ में जरुरी है कि भूख और कुपोषण से निपटने के लिए राष्ट्रीय विमर्श हो।

धरातल पर कुछ काम हो। 2022 तक देश को कुपोषण मुक्त करने के लिए देश में तीन स्तरों पर व्यापक अभियान की शुरूआत की गई है, बावजूद इसके भोजन के अभाव में किसी की मौत हो जाती है, तो यह बड़े दुख व शर्म की बात है। भुखमरी के शिकार लोगों की पीठ से पेट की सटने की स्थिति लोकतांत्रिक व्यवस्था और सरकारी कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े करती है। जरूरी यह है कि हमारी सरकार ‘सबका साथ, सबका विकास’ अथवा समावेशी विकास के अपने ध्येय पर खरा उतरे।

-सुधीर कुमार