यह केवल एक जान है बेवकूफ!

JK Lone Hospital

-गुणवत्ता के बिना स्वास्थ्य देखभाल सुविधाएं उपलब्ध कराना क्या प्रभावी है? भारत में 24 लाख लोग प्रति वर्ष ऐसे रोगों के कारण मरते हैं जिनका उपचार किया जा सकता है। यह एक 136 देशों में सबसे खराब स्थिति है। देश में 1 हजार बच्चों में से 34 बच्चे मां के पेट में ही मर जाते हैं। 9 लाख बच्चे पांच वर्ष की आयु से पहले और 3 हजार बच्चे प्रतिदिन कुपोषण के कारण मर जाते हैं जबकि 19 करोड लोग खाली पेट सोेने के लिए बाध्य होते हैं।

अब आने का क्या मतलब है? वह पहले ही मर चुका है। सब मर चुके हैं, प्रशासन बेकार है। ये शब्द एक दुखी पिता के हैं किंतु क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि ये आम आदमी के शब्द हैं। हर दिन और हर माह भारत में ऐसे शब्द सुनने को मिलते हैं और हमारे नेतागण एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाते हैं। यह बताता है कि देश मे ंआम आदमी केवल एक संख्या मात्र है।

राजस्थान के कोटा में जेके लोन अस्पताल में 107 बच्चों की मौत और मौत का सिलसिला जारी रहना वास्तव में हृदय विदारक है किंतु यह त्रासदी होनी ही थी क्योंकि अस्पताल के 70 प्रतिशत वार्मर काम नहीं कर रहे थे। 553 में से 320 उपकरणों की मरम्मत की आवश्यकता है। अस्पताल में प्रत्येक 13.1 बिस्तर पर एक नर्स है जबकि 4.1 बिस्तर पर एक नर्स होनी चाहिए। नवजात देखभाल इकाई में आक्सीजन पाइपलाइन नहीं है और इससे भी दुखद बात यह है कि इस मुद्दे पर भाजपा और कांग्रेस के बीच तू-तू, मैं-मैं चल रही है। भाजपा मुख्यमंत्री गहलोत के त्यागपत्र की मांग कर रही है तो कांग्रेस का कहना है कि भाजपा ने 2014 से 2019 के बीच अस्पताल की चिकित्सा सुविधाओं को बर्बाद किया है और कहीं कोई लापरवाही नहीं हुई है। पिछले पांच वर्षों में 2019 में सबसे कम मौतें हुई हैं।

हमारे नेताओं के शार्टकट और तुरत-फुरत उपायों को ध्यान में रखते हुए उनसे इस घिसी-पिटी प्रतिक्रिया के अलावा कोई अपेक्षा भी नहीं की जा सकती है। उन्होंने 2017 में गोरखपुर की त्रासदी से भी सबक नहीं लिया जहां पर आक्सीजन की कमी और खराब प्रबंधन के कारण 300 शिशुओं की मौत हुई थी। यह बताता है कि हमारे नेता किसी भी त्रासदी के प्रति कितना उदासीन रवैया अपनाते हैं। वे मानते हैं कि कुछ दिनों बाद यह मुद्दा ठंडा पड़ जाएगा। वे नुकसान कम करने के उपाय भी नहीं करते हैं और न ही आहत माता-पिता के प्रति सहानुभुति रखते हैं। इसके लिए कौन जिम्मेदार और उत्तरदायी होगा? क्या कोई इसकी परवाह करता है? एक जमाना था जब 1956 में शास्त्री जी ने रेल दुर्घटना के बाद त्यागपत्र दे दिया था। आज हम दोगलेपन के शिकार हैं जहां पर त्यागपत्र की मांग को हमारे नेताओं द्वारा राजनीति कहा जाता है।

किंतु कोटा की यह त्रासदी हमारे देश में स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली की दयनीय स्थिति को उजागर करती है। भारत में स्वास्थ्य देखभाल पर सकल घरेलू उत्पाद का केवल 1.4 प्रतिशत खर्च होता है। इसका मतलब है कि हम स्वास्थ्य प्रणाली पर पर्याप्त खर्च नहीं करते हैं और गरीब लोगों को निजी अस्पतालों की दया पर छोड़ देते हैं। न केवल कोटा में अपितु संपूर्ण देश में अस्पतालों में सुविधाओं की स्थिति यही है। सरकारी अस्पतालों में रोगियों की संख्या को देखते हुए चिकित्सा सुविधाएं नही है। एक आईसीयू बिस्तर पर दो-तीन मरीज होते हैं। स्वच्छता का अभाव है। शिशु वार्डो में चूहे घूमते दिखाई देंगे और स्त्री रोग वार्डों में कुत्ते घूमते दिखाई देते हैं।

यही नहीं स्वास्थ्य के बारे में बुनियादी जानकारी सीखने और आपदा प्रबंधन के लिए कोई तैयार नहीं है। भारत में लगभग 6 लाख डाक्टरों और 20 लाख नर्सों की कमी है। शहरों में जो लोग स्वयं को डॉक्टर कहते हैं उनमें भी केवल 58 प्रतिशत के पास मेडिकल डिग्री है और ग्रामीण क्षेत्रों में यह संख्या 19 प्रतिशत है। लगभग एक तिहाई डॉक्टर केवल 10वीं पास हैं। देश में 10189 लोगों पर एक एलोपैथिक डॉक्टर और 2046 लोगों पर एक बिस्तर है और 90343 लोगों पर एक सरकारी अस्पताल है। देश में 130 करोड़ लोगों पर केवल 10 लाख एलोपैथिक डॉक्टर हैं जिसमें से केवल 10 प्रतिशत सरकारी क्षेत्र में कार्य करते हैं। देश में कुपोषण के कारण प्रतिदिन 3000 बच्चों की मौत होती है और हमारी जनसंख्या का लगभग 14.9 प्रतिशत कुपोषण का शिकार है।

चिकित्सकीय उदासीनता के अलावा संसाधनों की कमी, चिकित्साकर्मियों की कमी और डॉक्टरों की कमी है। साथ ही चिकित्सा उपकरणों की कमी है, 70 प्रतिशत मशीनें अक्सर खराब रहती हैं जिनमें आॅक्सीजन आपूर्ति मशीनें भी शामिल हैं। प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल की दशा दयनीय है। 51 हजार लोगों पर केवल एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र और एक डॉक्टर है। 1000 व्यक्तियों पर केवल 1.1 बिस्तर है। डॉक्टर और रोगी का अनुपात विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित मानक प्रति हजार व्यक्ति पर एक डॉक्टर से कहीं कम है।

ग्लोबल एंटीबायोटिक रिसिसटैंस पार्टनरशिव इंडिया वर्किंग ग्रुप और सेन्टर फॉर डिसीज डाइनेमिक इकोनोमिक्स एंड पॉलिसी द्वारा कराए गए अध्ययन के अनुसार भारत में अस्पतालों के वार्डों और सघन चिकित्सा इकाइयों में संक्रमण दर शेष विश्व से पांच गुणा अधिक है जिसके चलते कई बार रोगों का उपचार असंभव हो जाता है। यह बताता है कि स्वास्थ्य क्षेत्र की दयनीय दशा का मुख्,य कारण प्रशासनिक और राजनीतिक है। खराब देखभाल के कारण रोगियों की अधिक मौत होती है। वर्ष 2016 में खराब देखभाल के कारण 16 लाख भारतीय रोगियों की मौत हुई जबकि स्वास्थ्य सेवाओं का उपयोग न करने के कारण 838000 रोगियों की मौत हुई।

नियंत्रक महालेखा परीक्षक की पिछले साल की रिपोर्ट के अनुसार 28 राज्यों में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों और सामुदायकि स्वास्थ्य केन्द्रों में चिकित्सा कर्मियों की 24 से 38 प्रतिशत तक कमी थी जबकि 24 राज्यों में आवश्यक दवाएं उपलब्ध नहीं थी। 70 करोड ग्रामीण लोगों को विशेषज्ञ चिकित्सा सेवाएं उपलब्ध नहीं हैं क्योकि 80 प्रतिशत चिकित्सा विशेषज्ञ शहरों में रहते हैं। भारत की स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली आपात स्थिति में है और सरकार को इसे तत्काल आॅक्सीजन उपलब्ध करानी होगी और इन कमियों को दूर करने के लिए सरकारी और प्राइवेट अस्पतालों तथा चिकित्सा कर्मियों को प्रयास करने होंगे। हमारे राजनेताओं को मानव जीवन का सम्मान करना होगा और स्वस्थ भारत के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली को सुदुढ करना होगा।

देश में स्वस्थ दशाएं उपलब्ध कराने के लिए प्रशासनिक और राजनीतिक तंत्र को चुस्त करना होगा। भारत को अपनी लोक स्वास्थ्य सुविधाओं के संरक्षण, लोक स्वास्थ्य नीति बनाने, प्राथमिकताएं पुन: निर्धारित करने और सरकारी अस्पतालों में सेवा की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए रणनीति और दृष्टिकोण में बदलाव लाना होगा। सरकार अपनी जिम्मेदारियों से नहीं भाग सकती है। इस संबंध में मंत्रियों के सम्मेलन और केन्द्र से निदेर्शों से काम नहीं चलेगा। लोग अब इन घिसी-पिटी बातों से ऊब गए हैं कि: घबराने की जरूरत नहीं। सरकार हर संभव प्रयास कर रही है और स्थिति में सुधार हो रहा है। हर संकट का समाधान किया जा सकता है किंतु उदासीनता का समाधान असंभव है और हमारे राष्ट्र की यही त्रासदी है। अब वह समय नहीं रह गया कि सरकार यह दृष्टिकोण अपनाए कि ‘‘की फरक पैंदा है’’। क्या हमारे उदासीन नेता हमारी भावी पीढियों का ध्यान रखेंगे क्योंकि हमारे नेता अक्सर कहते हैं कि अरे एक जान ही तो है यह बेवकूफ।

-पूनम आई कौशिश

 

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