प्रतिबद्धता को प्रतिबिंबित करती प्रतिज्ञा

School Pledge

भारत मेरा देश है, सभी भारतीय मेरे भाई-बहन हैं, हम सभी ने स्कूल में यह प्रतिज्ञा ली है और आज भी स्कूल की प्रार्थना सभा का यह अभिन्न अंग है। वास्तव में राष्ट्र के प्रति हमारी प्रतिबद्धता को प्रतिबिंबित करती यह प्रतिज्ञा गहरे निहितार्थ लिये है। आमतौर पर इसे विद्यालयों की पाठ्य पुस्तकों के शुरूआती पन्ने पर छपा देखा जा सकता है। प्रतिज्ञा को मूल रूप से सन 1962 में लेखक पियदीमर्री वेंकट सुब्बाराव द्वारा तेलुगू भाषा में रचा गया था। इसका पहला सार्वजनिक पठन सन 1963 में विशाखापट्टणम के एक विद्यालय में हुआ था, बाद में इसका अनुवाद करके भारत की सभी अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में इसका प्रसार किया गया।

सार्वभौमिक भाईचारा हमारी संस्कृति के मूल में है। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आधुनिक समय में मातृ शक्ति के प्रति अनाचार की बढ़ती घटनाएं इस बात की तस्दीक करती हैं कि इस संकल्प का व्यावहारिक पहलू अभी भी गौण है। हमने इसके मर्म को भुला दिया है, जबकि यह चिरकाल तक अटूट रहने का व्रत है जिसमें हमारे वैदिक और सनातन मूल्य समाहित है। हम कहते हैं कि सभी भारतीय हमारे भाई-बहन हैं, लेकिन एक मजहब ‘सर तन से जुदा’ की सनक से ग्रस्त है। जगजाहिर है कि इसके पीछे एक दीर्घकालीन षड्यंत्र काम कर रहा है। भ्रम पैदा कर लोगों को उकसाया जा रहा है।

हम कहते हैं कि हमें भारत की संस्कृति पर गर्व है, लेकिन हमें उसी भारतीय संस्कृति को अपनाने में शर्म आती है और पश्चिमी संस्कृति में अपना अहम संतुष्ट होने लगता है। मातृभाषा हमें मजबूरी लगने लगती है, उसमें संवाद करने से हमारा स्तर गिरने लगता है और विदेशी भाषा हमारे लिए गर्व का विषय बन जाती है। राष्ट्र की संस्कृति और परंपरा महज एक संकल्पना नहीं होती है, बल्कि यह एक अभिमान और गर्व की बात होती है, जो हम सभी में एक भारतीय होने के नाते होनी चाहिए।

हम कहते हैं कि हम अपने माता-पिता और शिक्षकों का सम्मान करेंगे, लेकिन हम में से विरले ही हैं जो इस भाव का मान रखे हुए हैं। देश के प्रति हमारी निष्ठा भ्रष्टाचार के आगे पस्त है। हम कहते हैं कि हमारी समृद्धि देश के विकास में निहित है, लेकिन हम ही हैं जो सोचते हैं कि देश की जिम्मेदारी केवल नेताओं के पास है और हमारी जिम्मेदारी केवल नेताओं और व्यवस्था की आलोचना करना भर है। विचारणीय है क्या स्वयं के चरित्र निर्माण के बगैर राष्ट्र निर्माण संभव है? भारतीय समाज में मानवीय मूल्य, मर्यादा एवं आदर्शों के प्रति घोर उदासीनता और नैतिक विश्रृंखलता का परिणाम है कि आज देश के प्रति प्रेम, मैत्री और भाईचारे की भावनाएं लुप्तप्राय हो गई हैं।

भारत कोई मानचित्र नहीं है, यह एक भौगोलिक क्षेत्र में रहने वाले लोगों में एक ही कुल, इतिहास, धर्म, रीति-रिवाज के गहरे बोध की नींव पर खड़ा एक जीवित राष्ट्र है। इसके प्रति हमारा मस्तिष्क श्रद्धा से झुकना चाहिए, लेकिन आज व्यक्ति-केंद्रित मानसिकता के आगे हमारा राष्ट्रप्रेम भाव नदारद है। लिहाजा एक राष्ट्रीयता के लोगों में एकता की भावना होनी चाहिए। हमने देश को केवल एक जमीन के टुकड़े से अधिक कुछ माना ही नहीं। सिसकते संस्कार, बिखरती संस्कृति, दरकते रिश्तों के इस दौर में हमारा देश के प्रति भावनात्मक संबंध कहीं स्वाह हो गया है। बच्चों में संस्कार की नींव रखना केवल स्कूल के शिक्षकों का ही काम नहीं है, बल्कि माता-पिता की भी जिम्मेदारी है कि वे बच्चों में राष्ट्र प्रेम के बीज बोएं, जिससे यह संकल्प जमीनी स्तर पर अपनी सार्थकता सिद्ध कर सके।

– देवेन्द्रराज सुथार 

अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और TwitterInstagramLinkedIn , YouTube  पर फॉलो करें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here