रूहानी करिश्मा : जब सच्चे सतगुरू जी मुरीद को स्वयं लेने आए

shah mastana ji sach kahoon

भक्त जोगिन्द्र सिंह पुत्र स. वीर सिंह निवासी गांव गंधेली ने बताया कि सन् 1958 की बात है। हमारे भाईचारे के बहुत से व्यक्तियों ने पूजनीय बेपरवाह शाह मस्ताना जी महाराज से नाम-शब्द ले रखा था। पूजनीय शाह मस्ताना जी महाराज ने हमारे भाईचारे के भक्तों को वचन किए थे कि तुम मांगना छोड़ दो, मेहनत की करके खाओ नहीं तो तुम्हें लेखा देना पड़ेगा। पूजनीय शहनशाह मस्ताना जी महाराज के वचनानुसार ही हमारे भाईचारे के बहुत से लोगों ने गंधेली में आकर जमीन खरीद ली। मैं भी उन लोगों में शामिल था।

हमारी बिरादरी के लोगों ने मुझसे कहा कि तू भी सच्चे पातशाह पूजनीय शाह मस्ताना जी महाराज से नाम-शब्द ले ले। मैं नाम तो लेना चाहता था परंतु मेरे मन में कई भ्रम थे। हमारी बिरादरी के बहुत से लोगों ने सत्संग सुनने के लिए डेरा सच्चा सौदा, सरसा आना था। मैं भी उनके साथ चल पड़ा। उस समय आने-जाने के साधन बहुत ही कम हुआ करते थे। हम सब पैदल ही दरबार आ रहे थे। जब हम नोहर पहुंचे तो तब तक अंधेरा हो चुका था। हमनें रात नोहर की एक धर्मशाला में गुजारने का निर्णय लिया। वहां धर्मशाला में कई भक्त चादर से अपना मुंह ढ़ककर नाम-सुमिरन करने बैठ गए। मैं पूजनीय शाह मस्ताना जी महाराज के प्रति उन्हीं ख्यालों में खोया हुआ था।

मैं सच्चे सतगुरू जी से मिलना चाहता था परंतु मेरा मन मुझे ख्याल नहीं करने दे रहा था कि वे कुल मालिक पूर्ण सतगुरू हैं। मैं सतनाम, वाहेगुरू बोलता हुआ लेट गया। मैं अर्द्धनिद्रा की अवस्था में लेटा हुआ था कि मुझे एकदम पीछे से बहुत ही सुंदर नूरी प्रकाश दिखाई दिया। उस नूरी प्रकाश में मुझे पूजनीय शाह मस्ताना जी महाराज के दर्शन हुए। उन्होंने सफेद वस्त्र धारण किए हुए थे। शीश पर सफेद रंग का परना बांधा हुआ था और हाथ में डंगोरी लेकर खड़े थे। पूजनीय शाह मस्ताना जी महाराज के दर्शन करके मुझे असीम खुशी मिली। मैं एकदम उठकर बैठ गया तो वे तुरंत आलोप हो गए। मैंने इधर-उधर दूर तक देखा परंतु मुझे कहीं भी कुछ दिखाई नहीं दिया।

अगले दिन सुबह हम डेरा सच्चा सौदा, सरसा की ओर चल पड़े। जब हम रंगड़ी गांव के पास पहुंचे तो फिर मेरे मन में ख्याल आया कि शाह मस्ताना जी महाराज कोई जादूगर न हों, कहीं धोखा न हो जाए। मेरे मन में तरह-तरह के ख्याल आ रहे थे कि यह अब कैसे पता चलेगा कि शाह मस्ताना जी पूर्ण गुरू हैं। इतने में हम आश्रम के बिल्कुल नजदीक पहुंच गए। मेरे मन में ख्याल आया कि मैं यही रास्ते में बैठ जाता हूं, अगर पूरा गुरू है तो मुझे जरूर लेने आएगा। क्योंकि मैंने श्री गुरू नानक देव जी की एक साखी में पढ़ा था कि श्री गुरू नानक देव जी, श्री गुरू अंगद देव जी(भाई लैहणा जी) को लेने स्वयं आए थे। फिर दिल ने ख्याल दिया कि तू चल, सत्संग सुन, अगर मन न माना तो नाम न लेना।

मैं अभी यही सोच-विचार कर रहा था कि साध-संगत डेरा सच्चा सौदा के गेट के पास पहुंच गई और मैं अपने साथियों से थोड़ा पीछे रह गया। अंदर से ऊंची आवाज आई कि ‘खिड़की खोल दो’। सेवादारों ने गेट में बनी खिड़की खोल दी। साध-संगत अंदर चली गई। जब मैं गेट पर पहुंचा तो फिर अंदर से ऊंची आवाज आई कि ‘गेट खोल दो’। सेवादारों ने पूरा दरवाजा खोल दिया। जब मैं दो-तीन कदम अंदर गया तो सामने से पूजनीय शाह मस्ताना जी महाराज गेट की तरफ आ रहे थे। मुझे देखकर बोले, ‘‘हम तेरे को ही लेने आ रहे थे।’’ मैंने सच्चे पातशाह जी को अपना सिर झुकाकर नारा लगाया। पूजनीय शहनशाह जी ने मुझ पर अपनी पूरी तवज्जोह देते हुए फरमाया, ‘‘आओ भई।’’ यह कहकर मेरे मन के सभी भ्रम चकनाचूर कर दिये। मैं शर्मिंदा था और खुश भी था कि ऐसा अन्तर्यामी मालिक स्वरूप संत-महापुरूष कहीं नहीं देखा।

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