राजनीतिक निष्ठा से मुक्त होंगे राज्यपाल?

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उच्चतम न्यायालय द्वारा कर्नाटक विधानसभा में 19 मई की शाम को शक्ति प्रदर्शन का आदेश दिए जाने के पश्चात् शक्ति परीक्षण से पहले ही भाजपा की येदियुरप्पा सरकार के धराशयी हो जाने के बाद अंतत: कर्नाटक के 55 घंटे के हाई वोल्टेज ड्रामे का अंत हो गया और जद (एस)-कांग्रेस सरकार के गठन का रास्ता साफ हो गया लेकिन इस पूरे प्रकरण से एक ओर जहां फिर से यह देखने को मिला कि देश में त्रिशंकु विधानसभा या लोकसभा जैसी स्थिति बनने पर राजनीति कितने निचले स्तर तक गिर जाती है, साथ ही कर्नाटक प्रकरण के बाद एक बार फिर देश में राज्यपालों की भूमिका को लेकर गंभीर सवाल उठने तय हैं।

हालांकि तर्क दिया जा रहा है कि राज्यपाल को सबसे बड़े दल को ही सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करना चाहिए था तो गत वर्ष गोवा, मणिपुर और इस वर्ष मेघालय के मामलों के दृष्टिगत यह तर्क भी दिया गया कि यदि गठबंधन बहुमत वाला है तो सबसे बड़े घटक दल को सरकार बनाने का मौका मिलना चाहिए था। वैसे किसी भी प्रदेश में त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में राज्यपाल को यह अधिकार होता है कि वह अपने विवेक के अनुसार किस दल को सरकार बनाने का न्यौता दे किन्तु कर्नाटक में जिस प्रकार भाजपा द्वारा बहुमत सिद्ध करने के लिए एक सप्ताह का समय मांगने पर राज्यपाल वजुभाई वाला द्वारा 15 दिन का समय दे दिया गया,

उसके चलते उनकी भूमिका पर सवाल उठने स्वाभाविक ही हैं क्योंकि इतना लंबा समय दिए जाने से विधायकों की खरीद-फरोख्त और बाड़बंदी की आशंकाएं प्रबल होने लगी थी। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर कड़ी टिप्पणी करते हुए पूछा था कि बहुमत साबित करने के लिए 15 दिन का समय क्यों दिया गया? यह आरोप भी लगने लगे थे कि कांग्रेस और जेडीएस के विधायकों को पाला बदलने के लिए 100-150 करोड़ रुपये का लालच दिया जा रहा है। इन आरोपों पर बहस करने के बजाय फिलहाल राज्यपालों की भूमिका पर चर्चा करना ज्यादा मुनासिब होगा।

दरअसल राज्यपाल रूपी संवैधानिक संस्था से यह उम्मीद की जाती है कि वह किसी दल विशेष का पक्षधर बनने के बजाय संविधान की व्यवस्था के अनुरूप कार्य करे किन्तु यह देश का दुर्भाग्य ही है कि ऐसे मामलों में अक्सर राज्यपालों पर राजनीतिक वफादारी और केन्द्र सरकार के एजेंट के रूप में कार्य करने के गंभीर आरोप लगते रहे हैं और पिछले कुछ दशकों में बार-बार देखा भी गया है कि राजभवन किस प्रकार केन्द्र में सत्तारूढ़ दल की जागीर बनकर रहे हैं।

हालांकि यह परम्परा रही है कि त्रिशंकु स्थिति बनने पर राज्यपाल सबसे बड़ी पार्टी को ही सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करते हैं और कर्नाटक में भी अगर राज्यपाल द्वारा ऐसा ही किया गया तो इस पर सवाल नहीं उठने चाहिएं लेकिन यहां भी यह सवाल अवश्य उठता है कि अगर ऐसा है तो फिर यही परम्परा पूरे देश में समान रूप से क्यों नहीं निभाई जाती?

कांग्रेस के शासनकाल में भाजपा शासित राज्यों में राज्यपाल के पद का दुरूपयोग होता कई अवसरों पर देखा गया और अब इसी तरह के आरोप भाजपा पर लग रहे हैं। चाहे कांग्रेस के दशकों के शासनकाल की बात करें या वर्तमान सरकार की, कई ऐसे मौके आए हैं, जब राज्यपाल द्वारा सबसे बड़ी पार्टी के बजाय दूसरे स्थान पर रहे केन्द्र में सत्तारूढ़ दल या उसके सहयोगी को ही सरकार बनाने के लिए निमंत्रण दिया गया।

2002 में जम्मू कश्मीर में नेशनल कांफ्रैंस के 28 विधायक विजयी हुए थे लेकिन राज्यपाल ने कांग्रेस के 21 और पीडीपी के 15 विधायकों के गठबंधन को सरकार बनाने के लिए बुलाया। 2005 में झारखण्ड में 81 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा को 30 सीटें मिली थी जबकि झारखण्ड मुक्ति मोर्चा को 17 और कांग्रेस को मात्र 9, शेष अन्य दलों को लेकिन राज्यपाल सैयद सिब्ते रजी ने जेएमएम के शिबू सोरेन को सरकार बनाने का न्यौता दिया,

जिन्होंने कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाई लेकिन विश्वास मत हासिल न कर पाने के चलते 10 दिन में ही धराशायी हो गई। 2013 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा को 70 में से सर्वाधिक 31 सीटें मिली थी जबकि केजरीवाल की ‘आप’ को 28 और कांग्रेस को 8 किन्तु उपराज्यपाल ने भाजपा को सरकार बनाने का न्यौता देने से इन्कार कर दिया और इस तरह आप ने कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाई। गत वर्ष 40 सदस्यीय गोवा विधानसभा में कांग्रेस 17 सीटों पर विजयी हुई थी जबकि भाजपा को 13 सीटें मिली थी किन्तु राज्यपाल द्वारा सरकार बनाने का निमंत्रण दिया गया भाजपा को,

जिसने एमजीपी, जीपीएफ तथा अन्य क्षेत्रीय दलों का समर्थन जुटाकर आसानी से सरकार बना ली। इसी प्रकार 60 सदस्यीय मणिपुर विधानसभा में कांग्रेस को 28 सीटें मिली जबकि भाजपा को 21 लेकिन भाजपा को सरकार बनाने का न्यौता दिया गया, जो एनपीएफ, एनपीपी और लोजपा के समर्थन से सरकार बनाने में सफल हुई। इसी साल हुए मेघालय चुनाव में कांग्रेस को 21 सीटें मिली जबकि एनपीपी को 19 और भाजपा को दो लेकिन राज्यपाल द्वारा एनपीपी-भाजपा को सरकार बनाने के लिए कहा गया।

जहां तक राज्यपाल की भूमिका पर उठते सवालों की बात है तो यह सिलसिला देश की आजादी के महज 7 साल बाद 1954 में ही शुरू हो गया था, जब मद्रास के राज्यपाल ने कम्युनिस्ट सरकार न बनने देने के लिए और कांग्रेस की सरकार बनवाने में अहम भूमिका निभाई थी। उसके बाद 1958 में धारा 356 का दुरूपयोग कर प्रदेश की कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त कर दिया गया।

तब से लेकर आज तक राज्यपालों की भूमिका पर बार-बार गंभीर सवाल उठते रहे हैं किन्तु केन्द्र में सत्तारूढ़ किसी भी दल की सरकार द्वारा कभी ऐसे प्रयास नहीं किए, जिससे यह बेहद महत्वपूर्ण संवैधानिक पद बार-बार विवादों में न घसीटा जा सके।

अक्तूबर 2005 में बिहार में तो एक अनोखा इतिहास ही रचा गया था, जब देश के इतिहास में पहली बार बिना शपथ लिए किसी विधानसभा को भंग कर वहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया, जिसके लिए जनवरी 2006 में सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश योगेश कुमार सब्बरवाल, न्यायमूर्ति बी एन अग्रवाल तथा न्यायमूर्ति अशोक भान ने राज्यपाल बूटा सिंह द्वारा बिहार विधानसभा भंग करने की सिफारिश को संविधान की आत्मा तथा लोकतांत्रिक प्रक्रिया के विपरीत आचरण करार देते हुए उन्हें कड़ी फटकार लगाई गई थी

और कहा गया था कि राज्यपाल ने असंवैधानिक निर्णय लेते हुए केन्द्रीय मंत्रिमंडल को गुमराह किया, राज्यपाल के पास कोई प्रासंगिक सामग्री नहीं थी, जिसके आधार पर विधानसभा भंग करने की अतिवादी कार्रवाई की जाए बल्कि राज्यपाल का मूल उद्देश्य किसी राजनीतिक दल को सरकार बनाने का दावा पेश करने से रोकने का था। बूटा सिंह द्वारा बिहार में जद-यू तथा लोजपा की सरकार बनने से रोकने के लिए यह सारा खेल खेला गया था।

केन्द्र में भले ही किसी भी दल की सरकार बने, वह सदैव अपने चहेतों को ही राज्यपाल के पद पर आसीन करती है और यही कारण है कि राज्यपाल का पद हमेशा विवादों में रहा है। धारा 356 के उपयोग को लेकर तो राज्यपाल सदा विवादों में रहे हैं, जिसका उपयोग केन्द्र सरकारें राज्यपाल के माध्यम से विरोधी दल की सरकार को धराशायी करने के लिए करती रही हैं। विड़म्बना देखिये कि इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए केन्द्र सरकारें अब तक सैंकड़ों बार इस धारा का उपयोग कर चुकी हैं। उ.प्र. के तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी, आंध्र प्रदेश के रामलाल, बिहार के विनोद चंद्र पांडे, बूटा सिंह सहित ऐसे दर्जनों राज्यपालों के नाम आपको मिल जाएंगे, जिन्होंने इस पद की गरिमा को तार-तार किया।

1979 में सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान के तत्कालीन राज्यपाल रघुकुल तिलक के मामले में राज्यपालों की स्थिति की विवेचना करते हुए यहां तक कहा था कि राज्यपाल केन्द्र सरकार का कर्मचारी नहीं है बल्कि वह एक संवैधानिक मुखिया है, जिसके लिए यह जरूरी नहीं कि वह हर मामले में केन्द्र के निर्देशों का पालन करे। 1983 में राज्यपालों की नियुक्ति को लेकर परामर्श देने हेतु सरकारिया आयोग का गठन किया गया था और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश आर एस सरकारिया ने 1988 में राज्यपालों की नियुक्ति को लेकर अपनी रिपोर्ट में कई अहम सिफारिशें की थी। क्या थी सरकारिया आयोग की सिफारिशें?

किसी एक क्षेत्र में ख्याति प्राप्त व्यक्ति को ही राज्यपाल बनाया जाना चाहिए। जिस व्यक्ति को राज्यपाल बनाया जाए, वह उस राज्य का न हो, जहां राज्यपाल के रूप में उसकी नियुक्ति की जानी हो। वह व्यक्ति स्थानीय राजनीति से गहराई से जुड़ा न हो।

वह ऐसा व्यक्ति हो, जिसने सामान्यत: राजनीति में हिस्सा न लिया हो, विशेषत: उस दौरान जब उसे राज्यपाल नियुक्त किया जा रहा हो और उसका राज्य की राजनीति से कुछ लेना-देना न हो। केन्द्र में सत्तारूढ़ किसी भी दल के किसी भी नेता को उस राज्य में राज्यपाल नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए, जहां विपक्षी दल की सरकार हो।

राज्यपाल को किसी पार्टी के बहुमत के बारे में स्वयं फैसला करने के बजाय यह मामला विधानसभा तथा उसके अध्यक्ष पर छोड़ देना चाहिए। प्रधानमंत्री राज्यपाल की नियुक्ति करने से पूर्व उपराष्ट्रपति तथा लोकसभाध्यक्ष से अनौपचारिक तौर पर विचार-विमर्श कर सकते हैं किन्तु यह गोपनीय होना चाहिए और इसे संवैधानिक दायित्व का हिस्सा नहीं बनाया जाना चाहिए।

यह विड़म्बना ही है कि राज्यपालों पर बार-बार लगते गंभीर आरोपों के बावजूद पिछले 30 वर्षों में किसी भी सरकार ने सरकारिया आयोग की सिफारिशों की सुध लेना जरूरी नहीं समझा। सुप्रीम कोर्ट कई वर्ष पूर्व भी राजनेताओं को राज्यपाल बनाए जाने पर टिप्पणी करते हुए कह चुका है कि यह काम राज्यपाल का नहीं है कि वह यह देखे कि किस दल की सरकार बने और किसकी नहीं बल्कि राज्यपाल का संवैधानिक दायित्व विधानसभा का गठन, विधानसभा सत्र आहूत करना, कानून-व्यवस्था की स्थिति गंभीर होने पर विधानसभा भंग करने की सिफारिश करना तथा विधायकों, मंत्रियों व मुख्यमंत्री को शपथ दिलाना है

लेकिन वास्तविकता यह है कि हमारे देश में शुरू से ही राज्यपाल को केन्द्र के हाथों की कठपुतली माना जाता रहा है, जिसे केन्द्र सरकार जिस तरह नचाना चाहती है, वह उसी तरह नाचता है। जब केन्द्र अथवा राज्य में मंत्री या मुख्यमंत्री रह चुके किसी व्यक्ति को चुनाव हार जाने के उपरांत केन्द्र सरकार पार्टी के प्रति उसकी वफादरी का इनाम देते हुए महामहिम राज्यपाल का ताज पहनाकर किसी राजभवन में पदासीन करती है तो ऐसे व्यक्ति से यह अपेक्षा भी कैसे की जा सकती है कि वह केन्द्र के इशारों पर नहीं नाचेगा।

दरअसल कटु सत्य यही है कि केन्द्र में सत्तासीन होने वाला हरेक दल विभिन्न राज्यों में वहां दूसरे दलों की सरकारों पर नियंत्रण रखने और अवसर मिलते ही उस सरकार को अस्थिर करने, बर्खास्त करने के उद्देश्य से अपने नफा-नुकसान के हिसाब से अपने नेताओं की ही नियुक्ति इस महत्वपूर्ण पद पर करता रहा है और जाहिर सी बात है कि इसी के साथ उस दल के राजनीतिक हितों का पुख्ता प्रबंध भी कर लिया जाता है। ऐसे में राज्यपालों के राजनीतिक निष्ठा से प्रेरित अलग-अलग तरह के फैसले संसदीय और लोकतांत्रिक प्रणाली की जड़ें कमजोर करने में ही अहम भूमिका निभाते हैं।

-योगेश कुमार गोयल