लू से बचने के लिए छाछ, दलिया व राबड़ी होते थे सुरक्षा कवच

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Sirsa News: लू से बचने के लिए छाछ, दलिया व राबड़ी होते थे सुरक्षा कवच

बिसरी यादें : बुजुर्गों ने साझा की पुराने समय की यादें | Sirsa News

सरसा/ओढ़ां (सच कहूँ/राजू)। Sirsa News: कभी छोटे से कार्य में कई-कई दिन लग जाते थे और अब पलक झपकते ही कार्य हो जाते हैं। यानि आधुनिकता के युग में जिंदगी बेहद आसान हो गई है। एक वो दौर था जब हर तरफ बारानी क्षेत्र था। लू का प्रकोप इस कदर था कि धरती मानों आग उगल रही हो। न तो बिजली थी और न ही पर्याप्त पानी था। बीमारियां न के बराबर थीं। अगर कोई बीमार भी पड़ जाता तो देसी नुस्खे से तंदुरुस्त हो जाते।

इस समय लू का प्रकोप चल रहा है। लू से बचने के लिए लोग जहां फ्रिज, कूलर व एसी का उपयोग कर रहे हैं वहीं खानपान में ठंडे खाद्य व पेय पदार्थ ले रहे हैं। पुराने समय में लोग इन संसाधनों के बिना कैसे जीवन व्यतीत करते थे इस बारे जब गांव नुहियांवाली के कुछ बड़े बुजुर्गांे से बात की गई उन्होंने कुछ यूं बताया। Sirsa News

मिट्टी से पुताई करते थे ताकि घर ठंडा रहे | Sirsa News

82 वर्षीय भजन लाल सहारण बताते हैं कि आज की अगर तुलना करें तो उस समय कुछ नहीं था। पहनने के लिए पैरों में चप्पल तक नहीं होती थी। हर तरफ बारानी क्षेत्र था। लू इस कदर चलती थी जैसे आग बरस रही हो। उस समय लोग खानपान के मामले में मजबूत बहुत थे। इसलिए इन चीजों की कम गौर करते थे। बिजली तब आई नहीं थी। कच्चे घरों में मिट्टी से पुताई करते थे ताकि घर ठंडा रहे। दोपहर के समय ऊंटों को बड़े दरवाजों में या बड़े वृक्षों के नीचे बांधकर खुद वहां चारपाई डालकर आराम करते थे।

सुबह उठते ही छाछ, राबड़ी व दलिया खाकर खेतों में चले जाते। दोपहर को रोटी खाते थे। लू से बचाने में यही देसी खानपान सुरक्षा कवच का काम करता था। घर में अगर कोई मेहमान आ जाता तो हाथ वाले पंखे से हवा करते। दिनभर खेतों में काम करते जिसके बाद रात को थक-हारकर चारपाई पर लेटते ही नींद आ जाती थी। हालांकि गर्मी इससे अधिक थी, लेकिन कभी महसूस नहीं करते थे। भीषण गर्मी में भी नंगे पैर ही स्कूल जाते थे।

घास फूंस की झोपड़ी बनाकर उसके अंदर घुस जाते | Sirsa News

76 वर्षीय लक्ष्मण राम गेदर बताते हैं कि हमने वो समय देखा है जिसे आज की पीढ़ी कभी नहीं झेल सकती। बिजली-पानी था नहीं। दूर-दराज से ऊंटों पर पानी लाना होता था। 2-2 महीने खेतों में अनाज काटकर निकालने में लग जाते। उस समय लू पानी की तरह चलती थी। चने की फसल के अवशेषों यानि घास फूंस की छोटी सी झोपड़ी सी बनाकर उसके ऊपर कभी पानी डाल देते और फिर उसके अंदर घुस जाते।

सुबह राबड़ी, छाछ व दलिया ही प्रमुख खानपान था। ये चीजें ही लू से बचाती थीं। लू के थपेड़ों से मटके में पानी एकदम ठंडा रहता था। अब तो न किसी में वो झेलने की ताकत रही और न वो जोर रहा। लोगों के घर कच्चे थे और दिल सच्चे थे। अब समय के साथ ही सब-कुछ लुप्त हो गया है। न वो लोग रहे और न वो समय।

कच्चे मकान गर्मी में इतने ठंडे रहते थे जैसे एसी लगा हो | Sirsa News

75 वर्षीय रामस्वरूप निमीवाल बताते हैं कि समय की समय की बातें हैं। पैरों में न चप्पल, न जूती और तन पर न ढंग का कोई कपड़ा होता था। क्योंकि वो वक्त ही ऐसा था। दोपहर के समय जब लू चलती थी तो कच्चे पुताई वाले घरों में दुबक जाते थे। कच्चे मकान गर्मी में ऐसे ठंडे रहते थे जैसे एसी लगा हो। बारानी क्षेत्र होने के चलते गर्म लू बहुत चलती थी। लू लगने पर देसी नुस्खे ही अपनाते थे। रात को दलिया बनाकर छोड़ देते थे और सुबह उठते ही छाछ के साथ मिलाकर खाते थे। बीमारियां तो नामात्र ही थीं।

आज बीमारियों का मुख्य कारण खानपान व मशीनों पर आश्रित होना है। मिक्स अनाज खाते थे जिससे बीमारियां दूर रहतीं और शरीर मजबूत होता। कड़कती धूप में गर्म रेत पर भी काम लगे रहते थे। गांव में जब कोई अफसर आता था तो गांव में बड़े दरवाजे में उसका ठहराव होता था। छत के नीचे लकड़ी से बना बड़ा पंखा लटकाया जाता था जिसे चौकीदार हिलाता रहता। बड़े बुजुर्ग आराम करते समय बारी-बारी से इसे हिलाते रहते थे। Sirsa News

रात को ठंडी हवा चलती तो चौपाल में चारपाई डालकर सो जाते

66 वर्षीय हनुमान दास गेदर बताते हैं कि वक्त के साथ ही सब लुप्त सा हो गया। खानपान में इतनी ताकत थी कि मुश्किल से मुश्किल काम को भी आसानी से कर देते। बुजुर्गांे के पास भले ही पर्याप्त मात्रा में संसाधन नहीं थे लेकिन लोगों में आपसी स्नेह बहुत था। रात को जब ठंडी हवा का दौर चलता तो गांव की चौपाल व चबूतरों पर चारपाई डालकर सो जाते थे। राबड़ी और दलिया बड़े चाव से खाते थे।

यही 2-3 चीजें एक तरह से गर्मियों के तोहफे के समान थी घर में मेहमान आ जाता तो ही गेहूं की रोटी बनती थी। उस समय ये चाव होता था कि आज गेहूं की रोटी खाने को मिलेगी। क्योंकि उस समय चने, मोठ व जौ आदि ही मुख्य अनाज था। गांव में जब बिजली आई तो लोगों ने अचंभित होकर खुशी मनाई थी। अब लोग संसाधनों पर पूरी तरह से आश्रित हो गए हैं। अब तो गर्मी में अगर एक मिनट भी बिजली चली जाए तो लोगों की जान सी निकल जाती है।

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