सेवा एक ऐसा कार्य माना गया है, जिसके लिए समय अथवा पात्रता नहीं देखी जाती। गुरुकुल कांगड़ी की पुरानी बात है। एक विद्यार्थी रोग से बहुत पीड़ित था। गुरुकुल की पुरानी परंपरा के अनुसार उस रोगी विद्यार्थी को ड्यूटी पर लगाया गया था। आधी रात का समय था। सब रोगी और परिचारक सो रहे थे। अचानक वह विद्यार्थी रोग की अत्याधिक वेदना से तड़प उठा। वह उठा और उसे तेज उल्टी आई। उसी समय गुरुकुल भूमि का भ्रमण करते हुए महात्मा गाँधी जी वहाँ आ गए। उन्होंने अपने हाथों से उस रोगी विद्यार्थी की उल्टी को संभाला। उसे बाहर शौचालय में पहुँचाकर हाथ साफ कर, लोटे में पानी लेकर रोगी को चिलमची में कुल्ला कराया। उसी समय रोगी के साथ ड्यूटी पर आए विद्यार्थी की नींद खुल गई। वह महात्माजी को देखकर शर्मिंदा हो गया। बोला, ‘थकावट से नींद की झपकी आ गई। आपने व्यर्थ का कष्ट किया। मुझे आवाज दे देते।’ इस पर महात्माजी बोले, ‘इसमें कष्ट कैसा? रोगी की आर्त पुकार या उसकी मदद के लिए व्यक्ति को स्वयं ही जिम्मेदारी निभानी होती है। इस कार्य के लिए दूसरे को पुकारना कुछ मतलब नहीं रखता।’
सत्य की विजय
राजा भोज के दरबार में एक धनपाल नामक जैन पंडित थे। कहा जाता है कि वर्षों के अथक परिश्रम के बाद उन्होंने बाण रचित कादम्बरी का प्राकृत भाषा में अनुवाद किया था। जब वह पूरा हो गया तो राजा ने धनपाल से कहा-‘इस ग्रंथ के साथ मेरा नाम जोड़ दो, तो यथेच्छ स्वर्णमुद्राएँ दूंगा।’ धनपाल राजा के कर्मचारी थे, इसलिए वे दुविधा में पड़ गए। काफी सोच-विचार के पश्चात उन्होेंने नम्र दृढ़तापूर्वक राजा की बात मानने से इंकार कर दिया। अपना ही आश्रित पंडित ऐसी गुस्ताखी करे यह राजा को नागवार लगा और उन्होंने आगबबूला होकर सारा अनुवाद जला दिया। यह घटना देखकर धनपाल को गहरा क्षोभ हुआ। इससे उसका खाना-पीना तक छूट गया। उनको उदास देखकर उनकी पुत्री ने पूछा- ‘पिता जी, मैं काफी दिनों से देख रही हूँ कि आप किसी बात को लेकर शोकमग्न हैं? इस स्थिति का कारण क्या है मुझे तो बताइए।’ धनपाल ने सारा किस्सा सुना दिया। इस पर पुत्री बोली, अरे, इसमें क्या है? आपकी पांडुलिपि अल्पविराम सहित मुखाग्र है मुझे। आप लिखिए, मैं बोलती जाती हूँ। कादम्बरी प्राकृत भाषा में तैयार हो गई। पुत्री की इस अद्भूत शक्ति से धनपाल इतने मुग्ध हुए कि उसी के नाम पर उस पुस्तक का नाम ‘तिलक मञजरी’ रख दिया।
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