गुरु प्रेम अमूल्य वस्तु

Guru Prem
गुरु प्रेम अमूल्य वस्तु

Guru Prem प्रात: काल का समय था। वायु पेड़ों के पत्तों से खेल रही थी। भोर का नभ पूर्व में पहाड़ियों के काले बादलों से ढका था। पक्षियों की चहचहाट सारे वातावरण को जगाने का प्रयत्न कर रही थी। फूलों के पराग की महक संपूर्ण सृष्टि को मदमस्त बना रही थी। ऐसे खुशमिजाज प्राकृतिक परिवेश में गुरु जी अपने समक्ष उपस्थित शिष्य-मंडली को अपनी अलौकिक वाणी से समझा रहे थे। नगरी शोरगुल से दूर उस पवित्र स्थल पर गुरु जी की मधुरमयी वाणी सारे आश्रम को प्रेम की धारा में डुबो रही थी। Guru Prem

गुरु जी बोले-‘‘प्रिय वत्सों, हमारी देह और प्रेम में से सबसे पहले परमपिता ने प्रेम भाव को बनाया था और बाद में मानव तन का सृजन किया। ईश्वर ने प्रेम को इसलिए उपजा क्योंकि प्रेम में वह मालिक स्वयं प्रकट रूप में विराजमान है। इसलिए यदि हमें तन को त्यागने के बदले प्रभु प्रेम की एक क्षणिक झलक भी मिलती है तो ग्रहण कर लेना चाहिए क्योंकि प्रभु प्रेम का वह क्षणिक आनंद हमारी आत्मा का उद्धार है।’’ गुरु जी की इस ईश्वरीय वाणी को एक नवागंतुक सुन रहा था। Guru Prem

वह आजादगढ़ का राजकुमार था जो कई महीनों से शांति की तलाश में घूम रहा था। उस रात उसने आश्रम में ही अपनी रात गुजारी। राजकुमार का नाम उद्दंड बहादुर था। वह गुरु जी के समीप आकर करबद्ध हो विनम्र वाणी से बोला, ‘‘हे प्रेम पुंज गुरु जी! मैंने आपकी वाणी में शांति की झलक तथा प्रेम की ईश्वरीय धारा बहती हुई देखी है। अत: हे दीनबंधु! मुझे भी अपने पवित्र प्रेम की एक किरण बख्श कर अपनी शिष्य-मंडली में शामिल करने की अनुकंपा करें।’’

गुरु जी ने उनकी विनती सुनकर पूछा-‘‘हे नवयुवक! तुम कौन हो और यहाँ आश्रम में कब आए?’’
‘‘हे गुरु जी! मैं आजादगढ़ का राजकुमार हूँ। मेरा नाम उद्दंड बहादुर है। मेरा राज्य ईर्ष्या की आग में जल रहा है। उस ईर्ष्या की आग को शांत करने हेतु मैं शांति की टोह में निकला हूँ ताकि मैं स्वयं शांति पाकर राज्य पर भी शांति नीर छिड़क कर ईर्ष्या अग्नि को बुझा सकूँ।’’ नवागंतुक ने झुककर अपने उद्गार प्रकट किए।
‘‘इसके लिए परीक्षा ली जाएगी।’’-गुरु जी गंभीर वाणी में बोले

‘‘मैं तैयार हूँ।’’-राजकुमार ने सविनम्र कहा
‘‘हे उद्दंड बहादुर! यदि तुम दुनिया की सबसे अमूल्य वस्तु प्राप्त करके हमारे पास ले आओ तो हम तुम्हें अपनी प्यारी शिष्य-मंडली में शामिल कर लेंगे व शांति प्राप्ति का मूल माध्यम गुरुमंत्र तुम्हें बख्श देंगे।’’

गुरु जी की शर्त का उत्तर ढूँढने के लिए राजकुमार उद्दंड बहादुर तुरंत आश्रम से निकल पड़ा। वह जंगलों, पहाड़ों, उजाड़ों और वीरानों को पार करता हुआ एक छोटे से गाँव के समीप से गुजर रहा था। भूख-प्यास के कारण शरीर जर्जर कंकाल-सा नजर आ रहा था। वह गाँव के शमशानघाट के पास एक भारी विशालकाय बरगद के पेड़ के नीचे कुछ समय तक बैठ पाया था कि उसे शमशान की ओर से रोने की ऊँची-ऊँची आवाजें सुनाई दीं। उसने अपनी पुतली शमशानघाट की ओर घुमाने पर देखा कि लगभग 20 वर्ष के एक युवक की गोदी में उसी के हमउम्र का एक शव पड़ा है। लोगों की भीड़ उसके चारों ओर खड़ी है। कुछ समय उपरांत शव को अंत्येष्टि के लिए शैया पर रखकर मुखाग्नि दे दी गई। अग्नि की लपटें ऊँचाई को छूने लगीं। तभी एकाएक दूसरा युवक भी उस अग्नि में कूद गया और देखते ही देखते वह 20 वर्षीय युवक भी उन प्रचंड लपटों में स्वाह हो गया। Guru Prem

‘‘यह दूसरा नौजवान आग की इन प्रचंड लपटों में क्यों समा गया?’’-उद्दंड बहादुर ने भीड़ में से एक व्यक्ति से पूछा
‘‘ये दोनों गहरे मित्र थे। जन भलाई के कामों में हमेशा आगे रहते थे और बड़े-बुजुर्गों को बहुत सम्मान करते थे। इन्होंने साथ मरने-जीने की कसम खा रखी थी। इसलिए दूसरा अपने मित्र का वियोग सहन न कर सका और उसके साथ एक ही शैया में समा कर अपनी पक्की दोस्ती का प्रमाण दे गया।

वाह, क्या दोस्ती थी, बिल्कुल पूजने लायक!’’-व्यक्ति ने नम आँखों को पोंछते हुए कहा।
कुछ समय बाद भीड़ अपने-अपने घर को चली गई तथा दोनों युवकों की देह राख ठंडी हो गई। उद्दंड बहादुर उनकी देह से बनी राख उठाकर गुरु जी के पास पहुँचा। उसने गुरु जी को दोनों युवकों का किस्सा सुनाया व उनकी देह की राख गुरु जी के चरणों में रखते हुए कहा-‘‘गुरु जी, दोनों युवकों की प्रेम से सनी ये भस्म मुझे दुनिया की सबसे अमूल्य वस्तु लगी। कृपया मेरी ओर से इस अमूल्य वस्तु को स्वीकार करें।’’

गुरु जी ने उसकी हिम्मत को बल देते हुए कहा-‘‘राजकुमार, तू वास्तव में बहादुर है परंतु अमूल्य वस्तु कोई और भी तो हो सकती है। जाओ, और प्रयत्न करो।’’

उद्दंड बहादुर को शांति की चाह थी। इसलिए वह पुन: अपने उद्देश्य की ओर चल पड़ा। लगातार कई दिन भटकने के बाद वह एक राज्य की राजधानी में पहुँचा। उसने वहाँ देखा कि राजा ने एक प्रसिद्ध नामी हत्यारा पकड़ा था जो बच्चों के कलेजे निकालकर खाया करता था। उसकी दहशत से उस राज्य के सभी नागरिकों ने अपने बच्चों को कैद सा कर लिया था। आज उसी हत्यारे को हत्थे पर चढ़ाया जाना था। राजा के जल्लाद उस हत्यारे को हत्थे पर चढ़ाने हेतू फाटक तक ले गए व फाटक उसके गले में डाल दिया गया। उसी समय एक छोटा-सा बच्चा मैदान में उछल-कूद कर रहा था। उसकी माँ उसे पकड़ने की कोशिश करती व बच्चा पुन: मैदान के बीच उछल-कूद करने लग जाता। इतने में मौत की सजा पाने से पूर्व वह नामी हत्यारा बोला-‘‘हे राजा! मैं अंतिम समय दो मिनट के लिए इस मासूम बच्चे से मिलना चाहता हूँ, इसे गले लगाने की इच्छा है। कृपया स्वीकार करें।’’

‘‘आज्ञा है’’-राजा ने हत्यारे की आखिरी इच्छा पूरी करते हुए कहा

जल्लादों ने दो मिनट के लिए हत्यारे को छोड़ दिया। उसने बच्चे के पास जाकर उसे गोद में उठाकर बहुत प्यार किया व अपने बचपन के दिनों को याद करने लगा। वह भी बचपन में स्वतंत्रतापूर्वक उछल-कूद करता था। उसकी माँ उसके कौतुक देख खुशी से भर जाती थी। अपने बचपन के उन दृश्यों को याद करके हत्यारे की आँखों से आँसू बहने लगे। जो व्यक्ति कठोर शिला-सम हृदय वाला, बच्चों के कलेजों को निकाल कर खाने वाला तथा जो उनकी मौत एक झटके में कर देता था, वह आज पश्चाताप के आँसू बहा रहा था। Guru Prem

उद्दंड बहादुर उसके पास गया और उसके गालों पर गिरे पश्चाताप की आग से तृप्त एक बूंद आँसू को उठाकर एक छोटी डिब्बी में रख लिया। इसके पश्चात हत्यारे को हत्थे पर चढ़ाकर मौत की नींद सुला दिया गया। उद्दंड बहादुर आँसू के उस मोती को लेकर गुरु जी के पास पहुँचा। गुरु जी को पूरी कथा सुनाते हुए आँसू रूपी अमूल्य वस्तु को उनके कर-कमलों में रख दिया।

‘‘राजकुमार! तुम बलवान होने के साथ-साथ बुद्धिमान भी हो। वास्तव में तुम शांति की झलक के पुजारी हो, परंतु दुनिया की अमूल्य वस्तु कोई और भी तो हो सकती है। इसलिए हम तुम्हें एक और अवसर देते हैं। यदि तुम इस बार अमूल्य वस्तु ढूँढ सके तो शांति प्राप्ति के गुरुमंत्र के अधिकारी बनोगे और यदि असफल हुए तो…………….।’’

‘‘नहीं, गुरु जी, नहीं, इस बार मैं आपकी कृपा से दुनिया की अमूल्य वस्तु जरूर प्राप्त करूँगा क्योंकि मुझे आपके स्वर में, आपकी फटकार में उस वस्तु की चमक नजर आ रही है। अत: हे गुरु जी! मुझे लक्ष्य प्राप्ति हेतु जाने की आज्ञा दीजिये।’’
‘‘जाओ और विजयी होकर लौटों, गुरुमंत्र पाकर स्वयं व अपनी प्रजा का भला करो।’’-गुरु जी ने आशीर्वाद देते हुए कहा।

गुरु जी की आज्ञा लेकर उद्दंड बहादुर पुन: अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ गया। कई दिनों तक घूमता हुआ अनजाने में वह दूसरे राज्य की सीमा में प्रवेश कर गया। शरीर का अंग-अंग थकान से चूर-चूर हो गया था। होंठ प्यास से फट गए थे। आँखों की लाली व चेहरे की चमक मलीन-सी हो गई थी। तन पर शाही पोशाक की जगह चीथड़े हवा में लहरा रहे थे। उम्मीद टूट सी गई थी। अमूल्य वस्तु के ख्यालों में पत्थरों में ठोकरें मारता व ज्यों ही उस राज्य की सीमा पार कर कुछ दूरी पर आगे बढ़ा तो उसने देखा कि वहाँ दो गुटों का आपस में द्वंद्व चल रहा था। एक गुट प्यार की भीख माँग रहा था तो दूसरा उग्रता से अपनी बुद्धिहीनता का परिचय दे रहा था। प्रेम भिखारी समूह किसी समाज सुधार प्रवर्तक गुरु का शिष्य था। उनके प्रेरणा स्रोत समाज से बुराई निकालने का भरसक प्रयास कर रहे थे और सामाजिक बुराई से जुड़ा उग्र समूह उनके मार्ग में बाधक बन रहा था।

इस कारण उग्र समूह उस गुरु व उसके प्रेम पुजारी जनमानस का विरोध कर रहा था। अत: दोनों समूहों में देखते ही देखते युद्ध हो गया और दोनों ओर से लोगों के सिर धड़ से अलग हो जमीन पर गिरने लगे। कुछ ही समय में चारों ओर लाशें ही लाशें बिछ गर्इं। उन्हीं लाशों में पड़ा एक घायल व्यक्ति पानी-पानी पुकार रहा था। राजकुमार उद्दंड बहादुर जैसे ही उसके पास पहुँचा तो देखा कि उसका तन खून से लथपथ है। शरीर का सारा रक्त बह गया है। एक-आध बूंद कभी-कभी गिर पड़ती थी। उद्दंड बहादुर ने उसे अपनी गोद का सहारा दिया और उससे पूछा-‘‘हे वीर! तुम कौन हो? इस तरह लड़ते-लड़ते शहीद होने का क्या प्रयोजन है?’’

‘‘हमने अपने पीरो-मुर्शिद गुरु जी की सेवा में अपने नश्वर तन को लगाकर गुरु भक्ति की परंपरा का निर्वाह किया है।’’ यह कहते-कहते उसके तन से लहू की अंतिम बूंद बह निकली। प्रेम भिखारी समूह का वह वीर सैनिक शहीद हो गया। खून के उस अंतिम कतरे को उद्दंड बहादुर ने अपनी अंगुली पर उठाकर डिब्बी में रख लिया और बिजली की गति से चलकर अपने गुरु के समक्ष उपस्थित हो गया। उद्दंड बहादुर ने गुरु जी को सारी घटना सुनाकर उस वीर उपासक की अंतिम लहू की बूंद गुरु जी को देकर कहा, ‘‘हे गुरु जी! अपने गुरु के लिए कुर्बान होने वाले शहीद के इस खून के कतरे से बढ़कर मुझे दुनिया की और कोई अमूल्य वस्तु नजर नहीं आती। कृपया इसे स्वीकार करें।’’

गुरु जी ने उद्दंड बहादुर के गुरु प्रेम को देखकर उसे अपनी छाती से लगा लिया तथा उसे गुरुमंत्र प्रदान करते हुए वचन फरमाए-‘‘हे वत्स, तुम और तुम्हारा राज्य शांति की शैया पर शयन करेगा!’’

गुरु जी की अलौकिक वाणी से विभूषित हो उद्दंड बहादुर अपने राज्य आजादगढ़ लौटकर शांति संपन्न राज करने लगा।