रक्षा तकनीक में भारत की बड़ी उपलब्धि

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रक्षा तकनीक में भारत की बड़ी उपलब्धि

Defense Technology : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) की पहली राजनयिक अमेरिका यात्रा रक्षा क्षेत्र में हुए समझौतों को लेकर अत्यंत फलदायी रही है। हालांकि इससे पहले मोदी अमेरिका की सात यात्राएं कर चुके हैं। बहरहाल यह खुशी की बात है कि भविष्य में भारतीय वायु सेना के हल्के लड़ाकू विमान (एलसीए) तेजस की अगली कड़ी में एमके-द्वितीय श्रेणी का जो विमान निर्मित होगा, उसमें वह स्वदेशी हाथों से बने इंजन से उड़ान भरेगा। इसमें लगने वाला जेट इंजन एफ-414 दुनिया की प्रतिष्ठित कंपनी जनरल इलेक्ट्रिकल (जीई) एयरोस्पेस, हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) के साथ मिलकर बनाएगी।

इस निर्णय की घोषणा जीई एयरोस्पेस के सीइओ एच लारेंस कल्प की मोदी के साथ हुई मुलाकात के कुछ घंटों के बाद की गई। इस इंजन के भारत में निर्माण की शुरूआत के बाद भारत उन चंद देशों की श्रेणी में शामिल हो जाएगा,जिनमें युद्धक विमानों के इंजन का निर्माण होता है। इस समझौते को भारत और अमेरिका के बीच सैन्य सहयोग की दृष्टि से उल्लेखनीय उपलब्धि माना जा रहा है। दरसअल यह सामरिक उपलब्धि  भारत की भू-राजनीतिक स्थिति को मजबूती देगी।

अमेरिका से हमारे रक्षा और आर्थिक संबंध पुख्ता होंगे | Defense Technology

यह समझौता इसलिए मील का पत्थर है, क्योंकि अभी तक अमेरिकी कंपनी ने इस तरह के सौदे केवल आठ देशों से ही किए हैं। अब इन देशों में भारत भी शामिल हो गया है। ये दोनों कंपनियां भारत में ही वायुसेना के हल्के युद्धक विमानों के लिए जेट इंजन बनाएंगी। इस यात्रा में जनरल एटमिक्स एमक्यू-9 ‘रीपर ड्रोन’ सहित कई ऐसे सौदे हुए हैं, जिनके चलते अमेरिका से हमारे रक्षा और आर्थिक संबंध पुख्ता होंगे। क्योंकि वर्तमान समय अनेक विडंबनाओं ओर विरोधाभासों से भरा है।

यूरोप में रूस और यूक्रेन के बीच डेढ़ साल से भीषण युद्ध चल रहा है, जिसमें दो पक्षों के बीच वर्चस्व की लड़ाई स्पष्ट दिखाई दे रही है। नतीजतन जो अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं युद्ध-विराम और शांति स्थापना के लिए बनी थीं, वे अप्रासंगिक हो गई हैं। एशिया में शीतयुद्ध की छाया पसरी है। इसलिए यह यात्रा भारत और अमेरिका के बीच नए आयाम स्थापित करने जैसी होगी,क्योंकि इससे पहले मोदी की सात यात्राओं में इतना विश्वास नहीं दिखा, जितना अबकी बार दिखा है। लिहाजा भारतीय प्रधानमंत्री के इस अति उत्साहपूर्ण स्वागत की पृष्ठभूमि में बाइडेन की अपनी कमजोरियां भी हैं।

2020 में बाइडेन ‘अमेरिका इज बैक’ के वादे के साथ सत्तारुढ़ हुए थे। लेकिन वे इन तीन सालों में ऐसी कोई प्रभावी पहल नहीं कर पाए,जिससे अमेरिका का पूर्ववर्ती वर्चस्व बहाल होता। चीन के बढ़ते सामरिक और आर्थिक वर्चस्व पर अंकुश नहीं लगा पाए। यूक्रेन युद्ध के बीच चीन रूस से निरंतर नजदीकियां बढ़ा रहा है। हिंद महासागर में अपने दखल का विस्तार कर रहा है। वियतनाम तो छोड़िए, अमेरिका से भी वह धमकी भरे लहजे में पेश आ रहा है। ईरान परमाणु समझौता शिथिल हो गया है। अमेरीका रूस को यूक्रेन पर वेबजह युद्ध थोपने से नहीं रोक पाया।

चीन की बेशर्मी हुई जाहिर | Defense Technology

अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी कर एक देश को अपने नागरिकों पर अत्याचार और मानवाधिकारों के हनन के लिए खुला छोड़ दिया। ऐसे में स्वयं को कमजोर महूसस कर रहे अमेरिका को भारत क उतनी ही जरूरत है, जितनी भारत को इसीलिए दोनों देशों द्वारा दिए संयुक्त बयान में पाकिस्तान का नाम लेकर घोषणा की कि वैश्विक आतंकवाद के विरुद्ध दोनों देश एक हैं। हर तरह के आतंकवाद और कट्टरवाद की निंदा करते हैं।

जबकि 2021 में मोदी और बाइडेन की पहली द्विपक्षीय वार्ता के बाद जारी संयुक्त बयान में पाकिस्तान का नाम नहीं लिया गया था। लेकिन चीन को अमेरिका और भारत के प्रगाढ़ होते संबंध शूल की भांति चुभ रहे हैं। अत: चालाक चीन ने अपनी खीझ निकालते हुए मुम्बई हमले की साजिश में शामिल आतंकी सरगना साजिद मीर का फेवर किया। दरअसल अमेरिका और भारत आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के आतंकी साजिद मीर को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में वैश्विक आतंकवादी घोषित करने का प्रस्ताव लाए थे, जिस पर चीन ने अड़ंगा लगा दिया। इससे चीन की बेशर्मी जाहिर हुई है।

उक्त संदर्भों में अमेरिका और भारत के बीच हुए रक्षा सौदे भारत की अस्मिता के लिए बेहद जरूरी थे। इसके पहले अमेरिका ने भारत को अहम तकनीक देने से मना कर दिया था। कारगिल की लड़ाई में वैश्विक स्थान-निर्धारण प्रणाली अर्थात जीपीएस देने से मुंह मोड़ लिया था। जबकि इसका आविष्कार अमेरिका के रक्षा विभाग ने ही किया है। अतीत के इन हालातों के परिप्रेक्ष्य में जेट इंजन और एमक्यू-9 रीपर ड्रोन  की बिक्री और तकनीक हस्तांतरण अमेरिका की नीति में बहुत बड़ा परिवर्तन है।

भारत के अमेरिका से हुए रक्षा सौदे बेहद महत्वपूर्ण हैं | Defense Technology

हालांकि इसके पीछे अमेरिका की छिपी मंशा भारत को रूस से रक्षा उपकरणों की खरीद के दायरे से निकालकर अपनी ओर मोड़ना भी है। इस वक्त यूक्रेन से चल रही लंबी लड़ाई के चलते रूस पूर्व से ही अनुबंधित हथियारों की प्रदायगी नहीं कर पा रहा है और न ही खराब हुए लड़ाकू विमानों के पुर्जों की सप्लाई कर पा रहा है। भारत ने रूस से जो पांच एस-400 धरती से आसमान में मार करने वाली मिसाइलों का सौदा किया था, उनमे से दो की आपूर्ति होना शेष है। रूस द्वारा विक्रय किए गए कई युद्धक विमान खराब पड़े हैं, इनके कल-पुर्जों की सप्लाई बाधित हो जाने से ये दुरुस्त नहीं हो पा रहे हैं। इसलिए भारत के अमेरिका से हुए रक्षा सौदे बेहद महत्वपूर्ण हैं।

पड़ोसी देश चीन और पाकिस्तान से युद्ध की स्थिति बनी होने के कारण और तालिबानी आतंक के निर्यात की आशंकाओं के चलते ऐसा अनुमान है कि भारत 2025 तक रक्षा सामग्री के निर्माण व खरीद में 1.75 लाख करोड़ रुपए (25 अरब डॉलर) खर्च करेगा। वैसे भी भारत शीर्ष वैश्विक रक्षा सामग्री उत्पादन कंपनियों के लिए सबसे आकर्षक बाजारों में से एक हैं। भारत पिछले आठ वर्षों में सैन्य हार्डवेयर के आयातकों में शामिल हैं। चीन से खरीदी गईं रक्षा सामग्रियां तो अत्यंत घटिया निकली हैं। चीन से लद्दाख सीमा पर संघर्ष के हालातों के चलते भारत ने कई देशों को करीब 38,900 करोड़ रुपए के 21 मिग, 29 जेट, 12 सुखोई लड़ाकू विमान और देसी मिसाइल प्रणाली व रडार खरीदने की स्वीकृतियां दी हैं। जिनकी आपूर्ति क्रमश: जारी है।

इसके पहले रक्षा क्रय परिषद भी लड़ाकू विमान और हथियार खरीदने की मंजूरी दे चुकी है। हमारे वैज्ञानिकों ने दृढ़ इच्छा शक्ति का परिचय दिया और स्वेदेशी तकनीक के बूते क्रायोजेनिक इंजन विकसित करने में सफलता हासिल की। अब इसरो की इस स्वदेशी तकनीक का दुनिया लोहा मान रही है। अब हम अंतरिक्ष तकनीक में लगभग आत्मनिर्भर हैं। गोया अमेरिका से जो रक्षा और उनकी तकनीक हस्तांतरण के समझौते हुए हैं वे भविष्य में भारत की भू-सामरिक ताकत तो बढ़ाएंगे ही स्वदेशी लड़ाकू विमान और ड्रोन निर्माण का रास्ता भी खोल देंगे।

प्रमोद भार्गव, वरिष्ठ लेखक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार लेखक के अपने विचार हैं)