Munshi Premchand: वाराणसी के लमही गाँव में 31 जुलाई 1880 को धनपत राय श्रीवास्तव के रूप में जन्मे मुंशी प्रेमचंद हिंदी-उर्दू साहित्य के ऐसे स्तंभ थे, जिन्होंने कलम को तलवार की धार दी। पिता मुंशी अजायब राय डाकखाने में मुंशी थे, माता आनंदी देवी का साया मात्र सात वर्ष की आयु में छिन गया, जिसके बाद सौतेली माँ के कठोर व्यवहार ने उनके बचपन को कठिन बना दिया। फिर भी, लमही के प्राथमिक पाठशाला से शिक्षा ग्रहण करने वाले प्रेमचंद ने गोरखपुर के मिशन स्कूल में दाखिला लिया, जहाँ अंग्रेजी माध्यम की कठिनाइयों के बावजूद उन्होंने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। इलाहाबाद के क्वीन्स कॉलेज से स्नातक होने के बाद वे शिक्षक बने, लेकिन साहित्य की ललक ने उन्हें हमेशा खींचा। Munshi Premchand
प्रेमचंद का साहित्यिक सफर 1901 में उर्दू में ‘नवाब राय’ छद्म नाम से शुरू हुआ। उनकी पहली रचना ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन’ (1907) ने सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार किया। लेकिन 1920 में एक कहानी ‘सौत’ के कारण ब्रिटिश सरकार की नाराजगी झेलनी पड़ी, जिसके फलस्वरूप ‘नवाब राय’ त्यागकर उन्होंने ‘प्रेमचंद’ नाम अपनाया- एक ऐसा नाम जो प्रेम और सादगी का प्रतीक बन गया। प्रेमचंद ने लगभग डेढ़ दर्जन उपन्यास और तीन सौ से अधिक कहानियाँ रचीं, जो गरीबी, जातिवाद, स्त्री-शिक्षा और स्वतंत्रता संग्राम की कथा कहती हैं। उनका पहला उपन्यास ‘सेवासदन’ (1918, उर्दू में ‘बाजार-ए-हुस्न’ के नाम से) वेश्यावृत्ति और विधवा जीवन की मार्मिक पड़ताल करता है।
1920 के दशक में प्रेमचंद गांधीवादी विचारों से प्रभावित हुए। प्रेमाश्रम (1922) में जमींदारी प्रथा पर चोट की गई, जबकि रंगभूमि (1924) में अंधे भिखारी सुरदास के माध्यम से विकलांगों के अधिकारों को उभारा। ‘निर्मला’ (1927) बाल-विवाह की विडंबना दिखाती है, जहाँ नायिका की मृत्यु समाज की क्रूरता का प्रतीक बन जाती है। ‘गबन’ (1928) में भ्रष्टाचार और लालच की कहानी है, जो मध्यमवर्गीय नैतिक पतन को उजागर करती है। ‘कर्मभूमि’ (1932) स्वराज आंदोलन को चित्रित करता है। लेकिन उनकी कृति ‘गोदान’ (1936) हिंदी साहित्य का महाकाव्य है—किसान होरी की संघर्षपूर्ण जिंदगी, जहाँ एक गाय का सपना पूँजीवाद की चक्की में पिस जाता है। यह उपन्यास उनकी मृत्यु से ठीक पहले प्रकाशित हुआ, मानो उनकी अंतिम वसीयत। Munshi Premchand
कहानियों में ‘कफन’ (1936) गरीबी की ऐसी गहराई छूती है कि पिता-पुत्र लकड़ी चुराने के बजाय भांग-भुन्ना खरीद लेते हैं, जो मानवता की विडंबना पर करारा प्रहार है। 8 अक्टूबर 1936 को मात्र 56 वर्ष की आयु में तीसरे गले के आॅपरेशन के बाद वाराणसी में उनका निधन हो गया, लेकिन उनकी रचनाएँ अमर हो गईं। प्रेमचंद ने हिंदी को खड़ी बोली में समृद्ध किया, जहाँ उर्दू का लहजा और लोकभाषा का मिश्रण भाषा को जीवंत बनाता है।