सोशल मीडिया के दौर में संस्कृति का न हो पतन

Media Rumors

आधुनिक युग की भागदौड़ के बावजूद पश्चिमी संस्कृति के लोग मानवीय मूल्यों को जिस प्रकार अपना रहे हैं, वह एशिया के देशों विशेष तौर पर भारतवासियों के लिए जागरूकता का संदेश है। न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जैसिंडा अर्डर्न ने देशवासियों के लिए फेसबुक लाइव को बीच में छोड़कर अपनी तीन वर्षीय रो रही बच्ची को संभाला और उसे चुप करवाया। लाइव से हटने के लिए प्रधानमंत्री ने देशवासियों से माफी भी मांगी, दूसरी तरफ हमारे देश में आधुनिकता का ऐसा दौर है कि वट्स-एप देखने में व्यस्त माताओं को बच्चे नजर नहीं आते या वे बच्चे को अपने मनोरंजन में खलल डालता देखकर चुप करवाने की बजाय एक थप्पड़ जड़ देती हैं। न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री का व्यवहार जहां मातृृत्व भरा है वहीं एक मां के बच्चे प्रति कर्तव्यों को भी बताया।

एक प्रधानमंत्री होने के बावजूद वह माँ भी हैं, भले ही देश की जिम्मेदारी के मुकाबले पारिवारिक जिम्मेवारियां छोटी होती हैं लेकिन मानवीय रिश्तों और इंसानी कर्तव्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। जहां तक हमारे मुल्क के मां-बाप और बच्चों के रिश्तो का संबंध है, हमारी संस्कृति बहुत महान थी। माँ बच्चों के लिए गीली जगह पर सोती थी और बच्चे को सूखी जगह पर सुलाती थी। माँ का ध्यान हमेशा अपने बच्चे में लगा रहता है लेकिन आधुनिकता की आंधी में अब माता-पिता भी अपनी भावनाओं से कोरे होकर केवल अपने तक सीमित होते जा रहे हैं। आजकल बच्चों की संभाल को बोझ समझकर महिलाएं अपने बच्चों को समय से पहले क्रैच भेजने या केवल नौकरानियों के सहारे छोड़ने का रास्ता अपना रही हैं। माँ-बाप और बच्चों के बीच बढ़ती दूरियों से न केवल बच्चों के पालन पोषण में कमी आ रही है बल्कि नई पीढ़ी संस्कारों से भी वंचित होती जा रही है।

पहले बच्चे को दादा-दादी का प्यार और कहानियों के रूप में संस्कार मिलते हैं। समय बदलने से अब बच्चों का दादा-दादी के बाद मां-पिता से संपर्क टूटता जा रहा है। बच्चे संस्कारों के आभाव में मशीनी जीवन जीने लगे हैं। अब बच्चों के लिए समाज शब्द का अर्थ माता-पिता, बहन-भाई, दादा-दादा, मामा-मामी नहीं बल्कि फेसबुक, वट्स-एप और इंस्टाग्राम है। हाईप्रोफाईल वर्ग के बच्चों को मां-बाप के साथ मिलने के लिए अप्वाइंटमेंट लेनी पड़ती है। माँ और बच्चे के बीच अब निजी सचिव का केबिन आ गया है। इसका परिणाम भी सबके सामने है, बालीवुड में केवल छोटी उम्र में नशा और अदालतों के चक्कर काटने के पीछे बच्चे ही कसूरवार नहीं बल्कि माता-पिता भी बराबर के जिम्मेदार हैं। यदि सही अर्थों में कहें तो ऐसे बच्चे दोषी नहीं, माता-पिता की लापरवाही से पीड़ित हैं जिन्हें सभ्य जीवन जीने के लिए सभ्य संस्कार नहीं मिले। भारत की नई पीढ़ी का कल्याण भारतीय संस्कृति को अपनाने में है और इसे अपनाने में शर्म नहीं बल्कि गर्व होना चाहिए।

 

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