नेट जीरो के लिए चाहिए पृथ्वी प्रथम की नीति

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धरती का तापमान न बढ़े इसके लिए सारी कवायद हो रही है मगर न्यू क्लाइमेट इंस्टिट्यूट और कार्बन मार्केट वॉच के सहयोग से तैयार की गई रिपोर्ट यह बताती है कि 1.5 डिग्री तापमान के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कार्बन उत्सर्जन में 43 फीसदी की कमी लानी होगी जिसकी सम्भावना दूर-दूर तक नहीं है। नेट जीरो का दावा करने वाली विश्व की 24 बड़ी कम्पनियों की स्थिति यह बता रही है कि माथे पर चिंता की लकीरें मोटी हो जाएंगी। इन कम्पनियों की हालिया स्थिति जलवायु लक्ष्यों के अनुकूल नहीं है। रिपोर्ट में यह पता चलता है कि केवल 15 प्रतिशत तक ही कमी लाने में यह सक्षम है। यदि कम्पनियों की बात को सही माना जाए तो भी महज 21 फीसदी से ज्यादा कमी लाना असम्भव है। यह आंकड़ा दावे और वायदे की तुलना में आधे से भी कम ठहरता है।

पिछले जी-20 समिट में शामिल देशों में 2050 तक पृथ्वी के तापमान की इस बढ़ोत्तरी को डेढ़ डिग्री तक रखने पर सहमति बनी। इस वर्ष का केन्द्रीय बजट ऊर्जा परिवर्तन को तो बढ़ावा देता है लेकिन भारत के विकास लक्ष्यों के साथ जलवायु अनुकूलन का तालमेल स्थापित करने की महत्वपूर्ण आवश्यकता को सम्बोधित करने में कुछ कम सा रह जाता है। गौरतलब है कि 2023 के बजट का मुख्य ध्यान हरित विकास पर है। कार्बन उत्सर्जन व ग्रीन हाउस गैस के प्रभाव को इस आंकड़े से समझना और सहज होगा कि साल 2022 में भारत ने 88 फीसदी दिनों में गर्म हवाओं, बाढ़ और चक्रवात जैसी विषम मौसमी घटनाओं का सामना किया था जिसके परिणामस्वरूप जन-जीवन और आजीविका भी प्रभावित हुई है साथ ही बीते कई दशकों के विकास कार्यों के लिए यह खतरा बना।

विदित हो कि नेट जीरो का मतलब ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन शून्य करना नहीं है बल्कि इन गैसों को दूसरे कामों से संतुलित करना है। ऐसी अर्थव्यवस्था तैयार करना जिसमें जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल न के बराबर हो साथ ही कार्बन उत्सर्जन कम करने वाली दूसरी चीजों का इस्तेमाल भी अवशोषकों का भी इंतजाम हो जो पर्यावरणीय संरक्षण व पेड़-पौधों को बनाए रखने से ही सम्भव है। गौरतलब है यदि कार्बन उत्सर्जन एक निश्चित मात्रा में होता है और उत्सर्जन करने वाली इकाई उसी अनुपात में पेड़ों को तवज्जो देती है तो कार्बन उत्सर्जन और अवशोषकों की समानता के कारण नेट जीरो एमिशन को पाना सुनिश्चित हो जाएगा। मगर जिस प्रकार प्रकृति के साथ छेड़छाड़ और पर्यावरण की बर्बादी हो रही है उससे नेट जीरो एमिशन एक सपना सा ही लगता है।

स्पष्ट कर दें कि दुनिया में केवल दो देश भूटान और सूरीनाम ही ऐसे हैं जो नेट जीरो एमिशन के मामले में नकारात्मक श्रेणी में है। इसकी सबसे बड़ी वजह वहां की अल्प आबादी और चौतरफा मौजूद हरियाली है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि सुशासन का चश्मा आंखों पर पहनकर बड़े और छोटे देश कितने भी वादे और इरादे जताएं यदि कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण निश्चित तौर पर नहीं होता है तो कई समस्याओं के लिए तैयार रहना चाहिए। यदि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन इसी अवस्था में बना रहा तो 2050 तक पृथ्वी का तापमान 2 डिग्री बढ़ जाएगा जो किसी भी सूरत में तबाही का हस्ताक्षर होगा मसलन भीषण सूखा पड़ना, विनाशकारी बाढ़ आना, ग्लेशियर्स का टूटकर पिघलना और समुद्र का जलस्तर उफान लेना। ऐसे में कई सभ्यताएं समाप्त हो जाएंगी, कई डूब जायेंगी, कईयों का नामोंनिशान मिट जाएगा।

दुनिया के 192 देश संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन का हिस्सा हैं जिसमें से 137 नेट जीरो का समर्थन करते हैं। देखा जाए तो कुल ग्रीन हाउस उत्सर्जन में इनकी हिस्सेदारी 80 फीसदी है जिसमें सबसे ज्यादा उत्सर्जन करने वाले चीन और अमेरिका भी इसी में आते हैं। चीन ने साल 2026 तक इस मामले में नेट जीरो का लक्ष्य रखा है, उसकी बलवती होती आर्थिक नीति और दुनिया को मुट्ठी में करने वाली नीयत यह इशारा कर रही है कि चीन जो कह रहा है उसमें बिल्कुल खरा नहीं उतरेगा यानी कार्बन उत्सर्जन का सिलसिला उसके चलते बरकरार रहेगा।

जर्मनी और स्वीडन जैसे देश 2045 तक जबकि आॅस्ट्रिया, फिनलैण्ड, उरूग्वे ने अलग-अलग समय में नेट जीरो उत्सर्जन का लक्ष्य रखा है। अमेरिका के अलावा कई ऐसे देश हैं जो इस मामले में कहीं आगे जाकर 2050 तक नेट जीरो उत्सर्जन को अपनी लकीर बनाई हुए है। इस बीच एक सुखद बात यह है कि जलवायु परिवर्तन की इस चुनौती के बीच भारत के वन क्षेत्र में 2011 के मुकाबले 2021 में तीन प्रतिशत से अधिक की बढ़ोत्तरी हुई है। वैसे भारत जलवायु परिवर्तन की चिंता से कहीं अधिक चिंतित देशों में आता है साथ ही कार्बन उत्सर्जन की कटौती को लेकर पहला कदम उठाने में नहीं कतराता है।

भारत ने नेट जीरो को लेकर अपनी पूरी योजना को पंचामृत नाम से पेश किया। प्रधानमंत्री मोदी ने ग्लासगो में आयोजित संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (कॉप 26) में इसे पेश किया। सिलसिलेवार तरीके से इसे समझें तो 2030 तक गैर जीवाश्म ऊर्जा को 500 गीगाबाइट तक पहुंचाना। दूसरा संदर्भ इसी वर्ष के अंतर्गत अपनी 50 फीसदी ऊर्जा जरूरतों को रिन्यूवल एनर्जी से पूरा करना। तीसरे और चौथे संदर्भ में क्रमश: प्रोजेक्टेड कार्बन उत्सर्जन का एक बिलियन टन कम करना और अपनी अर्थव्यवस्था की कार्बन तीव्रता को 45 फीसदी तक कम करना। इसके अलावा 2070 तक नेट जीरो एमिशन को हासिल करने का लक्ष्य शामिल है। हालांकि वक्त की दहलीज पर कौन, कितना खरा उतरेगा यह तो समय ही बताएगा मगर ग्रीन हाउस गैस व कार्बन उत्सर्जन से पृथ्वी कराह रही है यह खुली आंखों से देखा जा सकता है।

सुशासन की परिपाटी यदि वैश्विक पृष्ठभूमि को अंगीकृत कर ले तो पृथ्वी का भला हो सकता है मगर असुविधा यह है कि प्रत्येक देश प्रथम की नीति ग्रहण किए हुए है। नतीजन कार्बन उत्सर्जन को लेकर दुनिया के देशों में कागजी एकजुटता तो कम-ज्यादा देखने को मिलती है मगर वास्तविकता में पृथ्वी इसके बोझ से तप रही है। विकसित और विकासशील देशों के बीच आरोप-प्रत्यारोप भी व्यापक रूप लेते रहे हैं। इस सुलगते सवाल को नजरअंदाज करते हुए कि धरती एक है, इसकी जरूरत एक है और इसे बनाए रखना सभी की जिम्मेदारी है। फिलहाल भारत की अपनी चिंताएं हैं और अपनी चुनौतियां हैं।

दुनिया में आबादी के मामले में भारत अच्छी खासी स्थिति रखता है यदि हालिया आंकड़े को सही माना जाए तो यह चीन से आगे निकलकर पहले स्थान पर है जहां गरीबी और भुखमरी से ऊपर उठना कमोबेश चुनौती है। यदि भारत कार्बन उत्सर्जन और नेट जीरो पर बहुत सशक्त कदम उठाता भी है तो उसकी अर्थव्यवस्था कमजोर हो सकती है मगर एक सच यह है कि अन्य विकसित और विकासशील देशों की तुलना में भारत कार्बन उत्सर्जन के मामले में संयमित देश है और अपने कथन को पूरा करने की जी-तोड़ कोशिश भी करता है। बावजूद इसके दुनिया को यह सोचना पड़ेगा कि पृथ्वी की तपिश को कम करने के लिए प्रथम की नीति नहीं बल्कि वैश्विक सुशासन की नीयत से काम करना होगा।
­(यह लेखक के अपने विचार हैं)

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