बुराइयों से रोकते हैं, संत

Anmol Vachan

सरसा। पूज्य गुरू संत डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां फरमाते हैं कि सच्चे मुर्शिद-ए-कामिल शाह सतनाम जी महाराज ने वो सच, वो असलियत की राह दिखाई जिसके बारे में बोलना, बताना बड़ा मुश्किल होता है। जहां पर काल, नेगेटिव पावर का युग हो यानि एक बादशाह की बादशाहत हो और उसके ही खिलाफ बोलना कोई मामूली बात नहीं होती। मुर्शिद-ए-कामिल ने यही फरमाया कि हे इन्सान! तू हैवान बना बैठा है, पशु बन गया, जो काल की चालों में, काल के दलालों में फंसकर अपने अल्लाह-ताअला, मालिक, सतगुरु से दूर हो गया। आप जी फरमाते हैं कि इन्सान दिन-ब-दिन बुराई में फंसता जा रहा है लेकिन अल्लाह, मालिक, परमात्मा की चर्चा तो नाममात्र सुनता है और चुगली, निंदा, बुराइयां वहां जाकर सिर जरूर फंसाता है। चस्का आता ही उधर है, क्योंकि राम-नाम तो अलूणी सिल है।

भाई गुरदास जी ने लिखा है कि राम-नाम ऐसा है जैसे न नमक हो, न मिर्च हो, न मिठास हो एक पत्थर को चाटना! इस कलियुग में लोगों को ऐसा लगेगा। बिल्कुल इसमें कोई दो राय नहीं। राम-नाम से कन्नी कतराएंगे। कहीं झूठ बोल रहे हों, गप्प चल रही हो, चुगली, दूसरों की टांग खिंचाई चल रही हो उसमें जाकर कहता है, क्या हुआ? बड़ी खुशी से उसमें जाकर फंसेगा। आप जी फरमाते हैं कि संत वचनों का चाबुक मारते हैं कि रुक जा बुराइयों से। ये बुरे काम मत कर, निंदा करने वालों के पास मत बैठ, ये काम अच्छे नहीं। किसी के सामने बैठकर किसी की भी बुराई न गाओ। संत वचनों के बड़े चाबुक मारते हैं, सरेआम कहते हैं, फिर भी ढीठ बनकर बैठे रहेंगे। सत्संग खत्म हुआ नहीं कि हो गए शुरू। कहते हैं फिर क्या हो गया।

आप जी फरमाते हैं कि एक जगह पर गुरु-साहिबानों की पवित्र गुरवाणी चल रही थी। वहां पर एक आदमी पहली बार गया, सीधा-सादा जमींदार गया उसने वाणी को श्रवण किया, तौबा-तौबा, तौबा-तौबा कान पकड़े और नाक रगड़े बाहर आकर पसीने से लथपथ सर्दी का मौसम तो जो पढ़ने वाले थे वो भी सज्जन बाहर आ गए। उनको कहता यार मैं तो मर गया। पाठी कहता क्या हुआ? कहता गुरुओं ने बड़े भिगो-भिगो कर थप्पड़, जूते मारे हैं, कहता मेरे तो पसीने छूट गए, मेरा तो बुरा हाल है। तो आगे से वो ढीठ सज्जन उस सीधे-सादे जमींदार को कहने लगा कि बस एक दिन से ही हो गया काम। कहता यार एक दिन से मेरे पसीने छूट रहे हैं। इतना सच, हम इतनी बुराइयां कर रहे हैं और धन्य तू है। पाठी कहने लगा कि वाकई धन्य तो मैं ही हूं, रोज छित्तर खाता हूं और फिर रोज वैसे ही काम करता हूं।

ऐसे लोग भी होते हैं, जो रोज यही काम करते हैं। कितना ही समझा लो, कितना जोर लगा लो, कहता कोनी मानू। न मान जब तड़पेगा चारपाई पर पड़ा-पड़ा तब? माने न माने तेरी मर्जी। कबीर जी के वचन हैं कि जब शमशान को रवाना हो गया तब मान न मान तेरी मर्जी है भाई। तो बढ़िया है जब तक चलता-फिरता है मान ले, चलता-फिरता रहेगा। न माना तो चारपाई पर पड़ जाएगा। मतलब मन गिरा देगा। तड़पाएगा, परेशानी करेगा, तो क्यों मन की मानते हो, क्यों नहीं गुरु, पीर-फकीर की मानते। इसलिए मुर्शिद-ए-कामिल ने बताया कि पशु कभी किसी की नहीं माना करता। फिर भी पशु की नाक में नथ मार, उसे सुधारा जा सकता है। पर यह आदमी तो उससे भी गया-गुजरा हो गया। तेरा कोई ऐसा तो कर नहीं सकता। तू तो संतों के चाबुकों की परवाह नहीं करता बल्कि ढीठ बनकर सूई वहीं की वहीं रखता है। कोई परवाह नहीं। चाहे कुछ भी हो। कहता हम तो डटे हैं, अरे इतना राम-नाम की तरफ डट। अंदर-बाहर से मालामाल हो जाएगा और खुशियों से लबरेज हो जाएगा।

 

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