कहानी: आत्म-मंथन

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Story: कहानी: आत्म-मंथन

Story: सुनो सखी रेवा, कैसा जमाना आ गया है? कैसी विक्षिप्त मानसिकता में जी रहे हैं लोग? कैसी विक्षिप्त चाहत है लोगों की? औरत ही जन्म का आधार होती है लेकिन जन्म का आधार ही आधार को जन्म नहीं देना चाहता।

मीनू मेरे पड़ोस में रहती है। तीन बहनों में सबसे बड़ी। बड़ी होने का मतलब जिम्मेदारियों को ढोना।
‘‘देखो मीनू मेरे जाने के बाद दादी को परेशान नहीं करना और नीनू और पिंकी भी आपस में झगड़ें नहीं। सुबह जल्दी उठना। दोनों बहनों को भी उठा देना। सही समय पर तैयार हो कर स्कूल जाना। अपना होमवर्क पूरा करना और देखना नीनू और पिंकी भी अपनी पढ़ाई ठीक से करें। हम लोग बस दो दिन में ही आ जायेंगे।’’

मीनू बड़े ध्यान से माँ की बातें सुन रही थी। तीनों बहनों में सबसे बड़ी होने के कारण जब भी माँ कहीं जाती, सारी जिम्मेदारियाँ उसके नन्हे कंधों पर डाल जाती। Story

पिछली बार माँ और पिताजी इंदौर गये थे तब भी इसी तरह की ढेर सारी हिदायतें उसे मिली थीं। जाते वक़्त माँ कितनी खुश थी लेकिन लौटने पर उतनी ही उदास। मीनू को कुछ समझ नहीं आया इस बार इंदौर जाने के एक सप्ताह पहले से रोज दोपहर को दादी माँ के साथ बाहर जाती-कभी इस मंदिर तो कभी उस मंदिर, कभी किसी दरगाह के बाबा के पास तो कभी किसी तांत्रिक के पास। पिताजी के आॅफिस जाने के बाद दादी और माँ खाना खाकर दो-तीन घंटे के लिए चली जातीं फिर लौट कर आपस में बातें करतीं-‘‘भगवान ने चाहा तो इस बार मुराद पूरी हो जाएगी।’’

इंदौर जाते समय तीनों बेटियों को बहुत प्यार करती, लेकिन लौट कर तीनों बहनों को बात-बात पर डाँटती, उनकी शक्ल भी देखना पसन्द नहीं करती, पास जाने पर झिड़क देती। फिर दो दिन बाद पिताजी के साथ अस्पताल जाती, शाम तक लौटती, फिर तीन-चार दिन बिस्तर पर पड़ी रहती। इन दिनों दादी, माँ की खूब सेवा करती। उनके के लिये खूब मेवा डाल कर घी-गुड़ के लड्डू बनाती, घर का कोई काम भी नहीं करने देती। रिश्तेदार और पड़ोस की औरतें आ-आ कर मीनू की माँ का हाल-चाल पूछतीं, फिर आश्वासन सा देतीं, ‘‘मीनू की माँ कोई बात नहीं, इस बार नहीं तो अगली बार। अभी कौन-सी तुम्हारी उमर निकल गई है। एक-दो बार तो और कोशिश कर सकती हो। तकदीर में होगा, तो लड़का जरूर होगा।’’

‘‘एक मोड़ा के चक्कर में तीन-तीन मोड़ियाँ हो गईं। राम जाने इतनी महँगाई में कैसे ब्याही जाएँगी? पर बहू तुम चिंता न करो, ऊपर वाले ने चाहा तो एक मोड़ा भी हो जायेगा। आखिर वंश भी तो चलना चाहिए।’’ फिर हिकारत भरी नजरों से मीनू और उसकी बहनों की ओर देख कर कहती, ‘‘ये सब तो पराया धन हैं, चलीं जाएँगी, बाप को लूट कर।’’ इस तरह की बातें सुन कर छोटी बहनों के पल्ले चाहे कुछ न पड़ा हो लेकिन मीनू अवश्य समझने लगी थी और अपने लड़की होने की कुंठा भी धीरे-धीरे डसने लगी थी। अब वह अकेले में बैठकर गम्भीरता से इस बारे सोचने लगी थी।

एक साल यूँ ही बीत गया। इस बार उसने दसवीं कक्षा में प्रवेश किया था। बोर्ड की परीक्षा होनी थी इसीलिए इस बार उसे ज्यादा मेहनत करनी थी लेकिन अपने ऊपर अचानक आ जाने वाली जिम्मेदारियों के कारण वह चाह कर भी उतनी मेहनत नहीं कर पा रही थी। वह चाह कर भी यह बात किसी से नहीं कह सकती। अगर वह बोर्ड की परीक्षा का हवाला देगी तो दादी गरियाने लगेगी ‘‘का होने है पढ़ाई कर के? करने तो वोई रोटी-पानी है फिर काय को अपनो हाड जला रहीं?’’

मीनू मन ही मन भगवान से प्रार्थना करती, ‘‘प्रभु ऐसा कोई जतन कर दो कि अच्छी तरह से पढ़ाई कर सकूँ और बोर्ड की परीक्षा में अच्छे नंबर लाकर फर्स्ट डिवीजन में पास हो सकूँ।’’

भगवान ने सुन ली मीनू की बात और कर दिया जतन। स्कूल से लौटी तो देखा—दादी की पंचायत जमी है। आज की ताजा खबर पर सभी महिलायें अपने-अपने विचार प्रगट कर रहीं थीं। खबर थी, ‘‘लिंग-परीक्षण पर सरकार द्वारा रोक’’ सभी महिलायें दादी की ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिला कर मीनू की माँ के प्रति सहानभूति जता रहीं थीं। अन्त में दादी के इस वक्तव्य से सभा बरखास्त हुई, ‘‘मीनू की माँ तुम चिंता न करो। जा रोक को असर कौन आजइ से होने है-साल दो साल तो लगाई जाहें।’’ मतलब सीधा है—मीनू की माँ एकाध कोशिश कर सकती हो।

मीनू की सहेली-अनुभा कई दिनों से स्कूल नहीं आ रही थी इसलिए मीनू रविवार के दिन कारण पता करने के लिए अनुभा के घर गई। वहाँ जाने पर पता चला-अनुभा की माँ को दिल का दौरा पड़ा है और उनकी हालत गम्भीर है। वे अस्पताल में भर्ती है। अनुभा के दो भाई और एक बहन और थे। भाइयों की शादी हो गई थी और वे लोग दूसरे शहर में नौकरी करते थे। अनुभा की बड़ी बहन की शादी इसी शहर में हुई इसलिए माँ के बीमार पड़ने पर उसी ने आकर घर सँभाल लिया। पिता ने दोनों भाइयों को माँ की बीमारी का हवाला देते हुए तत्काल आने के लिये कहा। बड़ा भाई अपनी पत्नी के साथ खबर मिलते ही आ गया था। एक दिन रुका, माँ को देखने अस्पताल भी गया फिर रिश्तेदारों से मिलने चला गया।

आखिर रिश्तेदारों को भी तो पता चलना चाहिए कि वह माँ की कितनी फिक्र करता है, लेकिन पिता से यह नहीं कह सका, ‘‘पापा, आप दो दिन से जाग रहे है, आज माँ के पास मैं रुक जाता हूँ, आप घर जाकर आराम कर लीजिए।’’ दूसरे दिन पिता के हाथ में पाँच हजार रुपये देकर कर बोला, ‘‘माँ के इलाज में किसी तरह की कमी नहीं करियेगा। पैसों की जरूरत हो कह दीजिएगा, भेज दूँगा।’’ और दफ़्तर से छुट्टियाँ न मिलने का बहाना कर के वापस चला गया।

छोटा भाई तीन दिन बाद आया। आते ही माँ से मिलने अस्पताल चला गया। फिर पिता के हाथ में पैसे थमा कर बोला-बच्चों के टैस्ट चल रहे हैं, इसलिए मधु नहीं आ सकी। और पैसों की जरूरत हो तो भेज दूँगा। बेटों के इस तरह से चले जाने से माँ को दु:ख न हो इसलिए उन्होंने खुद को और माँ को समझाया-तुम परेशान न हो राजरानी, ‘‘वे दोनों तो रुकना चाहते थे लेकिन मैंने ही उन्हें रुकने से मना कर दिया। अभी मुझे उनसे ज्यादा, तुम्हारे इलाज के लिए उनके पैसों की जरूरत है।’’ राजरानी क्या अपने पति को जानती नहीं थी। सब समझ कर धीरे से मुस्का कर उनके हाथ पर अपना हाथ रख दिया।

रह गई अनुभा की दीदी और अनुभा। दीदी घर सँभालती तो अनुभा घर से अस्पताल और अस्पताल से घर के चक्कर लगाया करती। दीदी के ससुराल वाले बहुत अच्छे थे। उन लोगों ने इस भाग-दौड़ में बहुत मदद की। इन्हीं परेशानियों के कारण अनुभा स्कूल नहीं आ रही थी। Story

अनुभा के घर से आकर मीनू ने सारी बातें माँ को बतार्इं। बगल के कमरे में बैठे पापा आॅफिस की फाइलें निपटा रहे थे, उन्होंने भी मीनू की सारी बातें सुन ली थीं। मीनू ने अनुभा की माँ से सुनी बातें माँ को बतार्इं कि कैसे बेटों के जन्म पर घर में कितना बड़ा आयोजन किया जाता था। बेटों को जन्म देने के कारण घर-परिवार में भी उनका कितना मान बढ़ गया था जबकि पुत्री-जन्म पर बिना किसी आयोजन के रिश्तेदारों और मिलने वालों को मात्र सूचित कर दिया जाता था। आज माँ के बीमार होने पर उन्हीं भाइयों ने बाप को माँ के इलाज के लिए मात्र पैसे दे कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली। आज माँ की बीमारी में अनचाही बेटियाँ ही माँ-बाप और घर को सँभाल रहीं हैं।

आज मीनू की माँ बिना कुछ खाये-पिये बाबूजी के साथ अस्पताल गयी। सुबह की गई शाम को लौटी। लौट कर निढाल हो कर बिस्तर पर गिर पड़ी। मीनू का मन वितृष्णा से भर गया। लेकिन… उसे अचरज तो इस बात पर हुआ जब दादी ने माँ की सेवा करना तो दूर, माँ से सीधे मुँह बात भी नहीं की। Story

आठ दिन बाद जब माँ फिर से तैयार हो कर बाबूजी के साथ अस्पताल जाने लगी तो मीनू से नहीं रहा गया, ‘‘माँ आपने देख तो लिया-अनुभा के दो-दो भाई हैं लेकिन माँ की बीमारी में सिर्फ पैसे देने आये थे, देख-भाल करने नहीं। इतना पैसा तो हम लड़कियाँ भी कमा के दे सकती हैं फिर आपको लड़के की इतनी चाह क्यों?’’

माँ ने मीनू का माथा चूमते हुए कहा, ‘‘बस मैं टाँके कटवा कर आती हूँ। तू परेशान मत हो। मेरी आँखें खुल चुकी हैं।’’
मुझे खुशी है कि मीनू की माँ ने आत्म-मंथन किया और निष्कर्ष निकाला कि घर संतान की किलकारियों से गूँजना चाहिए फिर वह चाहे लड़का हो या लड़की।

अच्छा अब मैं तुमसे विदा लेती हूँ। फिर कभी आऊँगी तुमसे अपना दर्द बाँटने के लिए। तब तक मैं तुम्हारी लहरों से निनादित होती संगीतमयी ध्वनि को अपने मस्तिष्क में सँजो के रखूँगी जो सदा मुझे तुम्हारे सानिध्य का एहसास कराती रहेगी। Story

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