रमेश सेठी बादल
Daughter Like Son: गाँव की पगडंडी पर धूप हल्की-हल्की बिखरी थी। मैं चक्की से आटा लेकर लौटती एक लड़की को देख रुक गया। सहज जिज्ञासा से पूछ बैठा – ‘बेटा, तुम किस घर की हो? किसकी बेटी हो?’ उसने बिना हिचक, आत्मविश्वास भरे स्वर में कहा – ‘अंकल जी, मैं मास्टर करमचंद की बेटी हूँ, जो पिछले वर्ष सेवानिवृत्त हुए हैं।’ मैंने मुस्कराते हुए पूछा – ‘पढ़ाई कर रही हो या छोड़ दी?’
वह बोली – ‘जी, मैं बी.ए. फाइनल में हूँ।’ मुझे हैरानी हुई। इतनी पढ़ी-लिखी लड़की घर का इतना कठिन काम! मैंने पूछा – ‘तुम्हारी मम्मी क्या करती हैं?’ उसने सहजता से कहा – ‘पापा-मम्मी दोनों बीमार रहते हैं, घर पर ही हैं। काम करना मेरी मजबूरी भी है और आदत भी।’ मैंने तारीफ के अंदाज में कहा – ‘फिर तो तुम बेटों जैसी बेटी हो।’ पर वह ठिठक गई। उसकी आँखों में एक अनकही पीड़ा चमक उठी। ‘अंकल जी, क्यों? सिर्फ बेटों जैसी बेटी क्यों? बेटियों जैसी बेटी क्यों नहीं? क्या बेटी की पहचान तभी होगी जब उसे बेटों से जोड़ा जाए?’ उसके सवाल ने मुझे भीतर तक हिला दिया। मैंने सोचा था कि यह प्रशंसा है, पर उसके लिए यह अपमान था। Daughter Like Son
वह आगे बोली- ‘अंकल जी, समाज की सोच ऐसी बन गई है कि बेटा सब कुछ है और बेटी पराया धन। लेकिन बेटियां भी तो आपका ही खून होती हैं। बेटों में से कितने ही शादी के बाद माता-पिता को छोड़ जाते हैं, केवल अपनी हिस्सेदारी में रुचि रखते हैं। पर बेटियां? वे निस्वार्थ सेवा करती हैं।’ उसने पड़ोसी का उदाहरण दिया- ‘बगल वाले घर में आंटी बीमार हैं। उनके बेटे उनकी देखभाल नहीं करते, लेकिन बेटियां आकर उनकी सेवा करती हैं। अस्पताल में भर्ती रहीं तो बेटी ने सब संभाला।’ उसके शब्द चुभ रहे थे, पर सच थे। वह रुकी नहीं- ‘अगर बेटियाँ भी बेटों जैसी खुदगर्ज हो जाएं तो बुजुर्गों का सहारा कौन बनेगा? माँ के साथ सुख-दुख कौन करेगा? बेटियां माता-पिता को वह सुकून देती हैं, जो बेटों से नहीं मिलता।’
अंकल जी! मैं घर में सबसे छोटी हूँ। बड़े चाव से मेरे दोनों भाइयों की शादियाँ की गईं। सारे रीति-रिवाज पूरे किए गए। कुछ दिनों तक तो मेरे माता-पिता खुशी के मारे जमीन पर पैर नहीं रख पा रहे थे। मेरी माँ का तो मानो खुशी से मन नहीं समा रहा था। घर में दो-दो बहुएँ आ गई थीं, पर यह खुशियाँ कुछ ही दिनों तक रहीं। फिर घर में तकरार शुरू हो गई। बहुओं के नखरे मेरी माँ से बर्दाश्त नहीं हुए। पापा रिटायरमेंट के करीब थे, इसलिए भाइयों ने अलग हो जाने में ही भलाई समझी और अपना-अपना हिस्सा लेकर अलग हो गए। कई दिनों तक माँ रोती रही।
फिर उसने हालात से समझौता कर लिया। मैंने माँ को ढांढस बंधाया— माँ, मैं जो हूँ, तुम चिंता मत करो। और उसी दिन से मैंने घर के सारे कामों की जिम्मेदारी संभाल ली। अब न पापा से काम होता है, न मम्मी से। हाँ, जो पेंशन आती है, उससे घर का गुजारा चल जाता है। बाकी काम की कोई चिंता नहीं है।‘क्या अब भी आप मुझे बेटों जैसी बेटी कहेंगे? क्या मैं आपको सिर्फ बेटी जैसी बेटी नहीं लगती?’ मेरे पास उत्तर नहीं था। मैं चुप रहा, लेकिन भीतर से उसकी बातों को स्वीकार कर चुका था। Daughter Like Son