करेला: औषधीय गुणों से भरपूर, किसान मुनाफा भी कमाए खूब

Bitter-gourd

(Bitter Gourd) भारत में करेले की खेती सदियों से होती आ रही है। इसका ग्रीष्मकालीन सब्जियों में महत्वपूर्ण स्थान है। करेला अपने पौष्टिक एवं औषधीय गुणों के कारण काफी लोकप्रिय सब्जी है। मधुमेह के रोगियों के लिए करेला की सब्जी का सेवन बहुत लाभदायक है। इसके छोटे-छोटे टुकड़ें करके धूप में सुखाकर रख लिया जाता हैं। जिनका बाद में बेमौसम की सब्जी के रूप में भी उपयोग किया जाता है।

उन्नत किस्में

हिसार सेलेक्शन, ग्रीन लांग, फैजाबाद स्माल, जोनपुरी झलारी, सुपर कटाई, सफेद लांग, आॅल सीजन, हिरकारी, भाग्य सुरूचि, मेघा-एफ-1, वरून-1, पूनम, तीजारावी, अमन नं. 24, नन्हा क्र-13।

जलवायु

उत्पादन के लिए गर्म एवं आर्द्र जलवायु इसके लिए उपयुक्त है। करेले कि बढ़वार के लिए न्यूनतम तापमान 20 डिग्री सेल्सियस तथा 35-40 डिग्री सेल्सियस होना चाहिए।

बुवाई को समय

प्रदेश में करेले की फसल का बुवाई का समय फरवरी-मार्च और जून-जुलाई माह सबसे उपयुक्त माना जाता है।

बीज की मात्रा व नर्सरी

ग्रीष्म ऋतु की फसल हेतु बीज को बुवाई से पूर्व 12-18 घंटे तक पानी में रखते हैं। पॉलिथिन बैग में एक बीज प्रति बैग ही बोते है। बीज का अंकुरण न होने पर उसी बैग में दूसरा बीज पुन: लगा देना चाहिए। इन फसलों में कतार से कतार की दुरी 1-5 मीटर एवं पौधे से पौधे की दूरी 60-120 सेमी. रखनी चाहिए

रोपाई की विधि

बीजों को नालियों के दोनों तरफ बुवाई करते हैं। नालियों की सिंचाई करके मेढ़ों पर पानी की सतह से ऊपर 2.3 बीज एक स्थान पर इस प्रकार लगाए जाते हैं कि बीजों को नमी कैपिलटीमुखमेंट से प्राप्त हो। अंकुर निकल आने पर आवश्यकतानुसार छंटाई कर दी जाती है। बीज बोने से 24 घंटे पहले पानी में भिगोकर रखें। जिससे अंकुरण में सुविधा होती है।

खाद एवं उर्वरक (Bitter Gourd)

उर्वरक देते समय ध्यान रखें की नाइट्रोजन की आधी मात्रा तथा सल्फर एवं पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय देनी चाहिए। शेष नाइट्रोजन की आधी मात्रा टाप ड्रेसिंग के रूप में बुवाई के 30-40 दिन बाद देनी चाहिए। फूल आने के समय इथरेल 250 पीपीएमासांद्रता का उपयोग करने से मादा फूलों की संख्या अपेक्षाकृत बढ़ जाती है और परिणामस्वरूप उपज में भी वृद्धि होती है।

सिंचाई

फसल की सिंचाई वर्षा आधारित है। साधारणरूप से प्रति 8-10 दिनों बाद सिंचाई की जाती है।

निराई-गुड़ाई

प्राथमिक अवस्था में निराई-गुड़ाई करके खेत को खरपतवारों से मुक्त रखना चाहिए। वर्षा ऋतु में इस फसल को डंडों या मचान पर चढ़ाना चाहिए। करेले की फसल ड्रीपइरिगेशन पर भी ले सकते है।

फसल की सुरक्षा

करेले की फसल में कीटों का प्रकोप अपेक्षाकृत कम होता है। किन्तु अधिक स्वस्थ फसल हेतु नियमित अन्तराल पर कुदरती कीट रक्षक का छिड़काव करते रहना चाहिए। ताकि फसल उपज ज्यादा एंव उत्तम गुणवत्ता के साथ प्राप्त हो सके।

रैडबीटल

यह एक हानिकारक कीट है। जोकि करेला के पौधे पर प्रारम्भिक अवस्था पर आक्रमण करता है। यह कीट पत्तियों का भक्षण कर पौधे की बढ़वार को रोक देता है। इसकी सूंडी काफी खतरनाक होती है। जोकि करेला पौधे की जड़ों का काटकर फसल को नष्ट कर देती है।

रोकथाम

रैडबीटल से करेला की फसल सुरक्षा हेतु पतंजलिनिम्बादी कीट रक्षक का प्रयोग अत्यन्त प्रभावकारी है। 5 लीटर कीट रक्षक को 40 लीटर पानी में मिला कर सप्ताह में दो बार छिड़काव करने से रैडबीटल से फसल को होने वाले नुक्सान से बचा जा सकता है।

पाउडरी मिल्ड्यू रोग

यह रोग करेला पर एरीसाइफीसिकोरेसिएटम की वजह से होता है। इस कवक की वजह से करेले की बेल एंव पत्तियों पर सफेद गोलाकार जाल फैल जाते हैं, जो बाद में कत्थई रंग के हो जाते हैं। इस रोग में पत्तियां पीली होकर सूख जाती है।

उपचार

इस रोग से करेले की फसल को सुरक्षित रखने के लिए 5 लीटर खट्टी छाछ में 2 लीटर गौमूत्र तथा 40 लीटर पानी मिलाकर इस गोल का छिड़काव करते रहना चाहिए। प्रति सप्ताह एक छिड़काव के हिसाब से लगातार तीन सप्ताह तक छिड़काव करने से करेले की फसल पूरी तरह सुरक्षित रहती है।

एंथ्रेक्वनोज रोग

करेले की फसल में यह रोग सबसे ज्यादा पाया जाता है। इस रोग से ग्रसित पौधे की पत्तियों पर काले धब्बे बन जाते हैं, जिससे पौधा प्रकाश संश्लेषण क्रिया में असमर्थ हो जाता है। फलस्वरूप पौधे का विकास पूरी तरह से नहीं हो पाता।

उपचार

रोग की रोकथाम हेतु एक एकड़ फसल के लिए 10 लीटर गौमूत्र में 4 किलोग्राम आडू के पत्ते एवं 4 किलोग्राम नीम के पत्ते व 2 किलोग्राम लहसुन को उबाल कर ठण्डा कर लें, 40 लीटर पानी में इसे मिलाकर छिड़काव करने से यह रोग पूरी तरह फसल से चला जाता है।

करेले की तुड़ाई

सब्जी के लिए फलों को साधारण: उस समय तोड़ा जाता है, जब बीज कच्चे हों। यह अवस्था फल के आकार एवं रंग से मालूम की जा सकती है। जब बीज पकने की अवस्था आती हैं। तो फल पीले-पीले होकर रंग बदल लेते हैं।

पैदावार

130 से 150 क्विवंटल प्रति हेक्टेयर तक हो जाती है। बीज उत्पादन के लिए प्रमाणित बीज के लिए 500 मीटर व आधारीय बीज के लिए 1000 मीटर अलगाव दूरी रखें। फल पूरी तरह पकने के बाद बीज निकालकर लग करें व सुखाकर अपरिपक्व कच्चा बीज अलग करें।

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