पूर्वी लद्दाख में चीन की नाफरमानी

सेना की क्षमता बढ़ाना सैन्य नीति का एक हिस्सा होता है। इसी को देखते हुए इन दिनों सैन्य बलों को किसी भी परिस्थिति से निपटने के लिए तैयार करने के मकसद से सभी स्तरों पर सशस्त्र बलों और सम्बन्धित प्रतिष्ठानों का एकीकरण सुनिश्चत करने के प्रयास जारी हैं। मौजूदा समय में भारत, चीन और पाकिस्तान के मामले में कई अधिक सजग प्रतीत होता है। नई तकनीकों को लेकर भारत की पहल इस मामले में कहीं अधिक सराहनीय हैं। खरीद से लेकर स्वीदेशीकरण तक के मामले में क्षमता विकास और प्रशिक्षण को प्राथमिकता देने की फिलहाल आवश्यकता भी है। गौरतलब है कि अफगानिस्तान में तालिबान की बहाल स्थिति इस बात को और पुख्ता कर रही है कि भारत के लिए चुनौती तुलनात्मक अधिक है। एक ओर पाकिस्तान की आतंकी गतिविधियां सीमा पर चलायमान है तो दूसरी तरफ पूर्वी लद्दाख पर अभी भी तनातनी का माहौल जारी हैं। इतना ही नहीं तालिबानियों का समर्थक चीन भविष्य में क्या गुल खिलाएगा इसका अंदाजा लगाना भी कठिन नहीं है। भारत और चीन के बीच पूर्वी लद्दाख में बातचीत के भले ही 13 दौर हो चुके हों मगर चीन का अड़ियल रवैया स्थिति को बेनतीजा बनाये हुए है।

गौरतलब है कि चीन ने पूर्वी लद्दाख में हॉट स्प्रिंग और डेप्सांग से पीछे हटने के भारतीय प्रस्ताव को मानने से मना कर दिया है। जाहिर है इन दो स्थानों पर सेनायें डटी हुईं हैं जबकि चार स्थानों से पीछे हट चुकी हैं। गौरतलब है कि बीते 10 अक्टूबर दोनों देशों के बीच हुई सैन्य बैठक में भारत ने मई 2020 से पहले की स्थिति को बहाल करने की बात पर जोर दिया और चीन इसे भारतीय सेना की अनुचित और अवास्तविक मांग करार दे रहा है। दो टूक यह भी है कि चीन के वादे हों या इरादे दोनों पर कभी भी भरोसा फिलहाल नहीं किया जा सकता। दरअसल चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर अमन-चैन की बहाली का इरादा रखता ही नहीं है। कोरोना काल में जब दुनिया स्वास्थ की समस्या से जूझ रही थी तब उसने पिछले साल अप्रैल-मई में अपनी कुटिल चाल पूर्वी लद्दाख की ओर चल चुका था जो अभी भी नासूर बना हुआ है। 1954 के पंचशील समझौते को 1962 में तार-तार करने वाला चीन कई बार भारत के लिये मुसीबत का सबब बनता रहा है। जब-जब भारत दोस्ती का कदम बढ़ाता है चीन विस्तारवादी नीति के चलते दुश्मनी की राह खोल देता है।

इतिहास के पन्नों में इस बात के कई सबूत मिल जायेंगे कि भारत और चीन के बीच सम्बंध भी पुराना है और रार भी पुरानी है। 1962 के युद्ध के बाद 1967 मे नाफला में चीन और भारत के कई सैनिक मारे गये थे। संख्या के बारे में दोनों देश के अपने-अपने दावे हैं। 1975 में भारतीय सेना के गश्ती दल पर अरूणाचल प्रदेश में चीनी सेना ने हमला किया था। भारत और चीन सम्बंधों के इतिहास में साल 2020 का जिक्र भी अब 1962, 1967, 1975 की तरह ही होता दिखता है। इसकी वजह साफ है भारत-चीन सीमा विवाद में 45 साल बाद भी सैनिकों की जान का जाना। ऐसा नहीं है कि दोनों देशों के बीच सीमा का तनाव कोई नई बात है व्यापार और निवेश चलता रहता है, राजनीतिक रिश्ते भी खूब निभाये जाते रहे हैं मगर सीमा विवाद हमेशा नासूर बना रहता है। कूटनीति में अक्सर यह देखा गया है कि मुलाकातों के साथ संघर्षों का भी दौर जारी रहता है। भारत और चीन के मामले में यह बात सटीक है पर यह बात और है कि चीन अपने हठ्योग और विस्तारवादी नीति के चलते दुश्मनी की आग को ठंडी नहीं होने देता। बावजूद इसके पूर्वी लद्दाख के मामले में भारत ने चीन को यह जता दिया है कि वह न तो रणनीति में कमजोर है और न ही चीन के मनसूबे को किसी भी तरह कारगर होने देगा। ऐसा करने के लिये जो जरूरी कदम होंगे वो भारत उठायेगा।

एलएसी की मौजूदा स्थिति की पड़ताल बताती है कि पिछले साल भारत और चीन की सेनाओं के बीच टकराव की स्थिति पैदा हुई थी। इनमें पेंगोंग उत्तर, पेंगोंग दक्षिण, गलवान घाटी और गोगरा से दोनों देशों की सेनायें पीछे हट चुकी है जबकि हॉट स्प्रिंग और डेप्सांग में अभी हालात जस के तस बने हुए हैं। खास यह भी है कि जिन चार स्थानों से सेनाएं पीछे हट चुकी हैं वहां भी मई 2020 से पूर्व की स्थिति बहाल नहीं हुई है। पिछली तमाम बैठकों के चलते जो समझौता इन्हें लेकर हुआ उसके अन्तर्गत विवाद वाले स्थान हेतु एक नॉन पेट्रोलिंग क्षेत्र भी बनाया गया है जिसे बफर जोन की संज्ञा दी गयी है। इस क्षेत्र में दोनों देशों की आवाजाही की गश्त बंद है। जाहिर है पहले दोनों देश की सेनाएं वहां गश्त करती थी जो क्षेत्र उनके दावे में आता था। शीशे में उतारने वाली बात तो यह भी है कि चीन एक ऐसा पड़ोसी देश है जो सिर्फ अपने तरीके से ही परेशान नहीं करता बल्कि अन्य पड़ोसियों के सहारे भी भारत के लिए नासूर बनता है। मसलन पाकिस्तान और नेपाल इतना ही नहीं श्रीलंका और मालदीव यहां तक कि बांग्लादेश से भी ऐसी ही अपेक्षा रखता है। इन दिनों तो अफगानिस्तान में तालिबानी सत्ता है जो चीन और पाकिस्तान की मुकम्मल सफलता का प्रतीक है। तालिबान के सहारे भी चीन भारत के लिये रोड़ा बनना शुरू हो चुका है।

पड़ताल तो यह भी बताती है कि चीन का पहले से लद्दाख के पूर्वी इलाके अक्साई चीन पर नियंत्रण है और चीन यह कहता आया है कि लद्दाख को लेकर मौजूदा हालात के लिये भारत सरकार की आक्रामक नीति जिम्मेदार है। यह चीन का वह चरित्र है जिसमें किसी देश और उसके विचार होने जैसी कोई लक्षण नहीं दिखते। दुनिया की दूसरी अर्थव्यवस्था चीन पड़ोसियों के लिये हमेशा अशुभ ही बोया है। चीन की दर्जन भर पड़ोसियों से दुश्मनी है और मौजूदा समय में तो ताइवान तो चीन से आर-पार करने को तैयार है। चीन के आरोपों पर भारत हमेशा साफकोई और ईमानदारी से बात कहता रहा है। सैन्य वार्ता का बेनतीजा होना यह चीन की नाकामियों का परिणाम है। इससे पहले दोनों देशों के बीच 12वें दौर की वार्ता इसी साल 31 जुलाई को हुई थी। वार्ता के कुछ दिनों के बाद दोनों सेनाओं ने गोगरा में सैनिकों की वापसी की प्रक्रिया पूरी की जिसे क्षेत्र विशेष में शान्ति की बहाली की दिशा में उठाया गया महत्वपूर्ण कदम के रूप में देखा गया मगर हॉट स्प्रिंग और डेप्सांग पर चीन का अड़ियल रवैया चुनौती को बाकायदा बरकरार किये हुए है हालांकि भारत भी इस मामले में जैसे को तैसा रूख अख्तियार करते हुए इंच भर पीछे हटने को तैयार नहीं है।

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