दलबदल का दौर

देश में कर्नाटक राज्य की विधानसभा व लोकसभा चुनावों सहित कई अन्य राज्यों में उपचुनाव होने जा रहा है। इस दौरान सबसे चर्चा का विषय दलबदल का है। टिकट लेने के लिए नेता तिकड़मबाजी लड़ा रहे हैं, जिस कारण नेताओं में दलबदल की होड़ भी मची हुई है। कर्नाटक में भाजपा के पूर्व उप-मुख्यमंत्री सावादी को टिकट नहीं मिली तब उन्होंने कांग्रेस का हाथ थाम लिया है, यही नहीं पार्टी ने सात मौजूदा विधायकों की टिकट भी काटी है। यही हाल पंजाब का है, जहां अकाली नेता का बेटा भाजपा में शामिल हो गया और अगले ही दिन उसे टिकट मिल गई। इसी तरह आप ने कांग्रेस के एक पूर्व विधायक को पार्टी में शामिल कर उसे अपना प्रत्याशी बना दिया।

दरअसल, चुनावों के दिनों में विधायकों की नाराजगी की बात आम हो जाती है। मौजूदा राजनीतिक दौर में ऐसी घटनाएं बेहद चिंताजनक हैं और यह राजनीति पर एक बदनुमा दाग भी है। इस मामले में पार्टी के अव्वल नेता भी बराबर के दोषी हैं। जहां तक पार्टी के कसूरवार होने की बात है, पार्टियों ने भी केवल सीट जीतने को ही अपना लक्ष्य बना लिया है और सभी दंडभेद लगा भी रही हैं। मौजूदा राजनीतिक गिरावट के दौर में टिकट के दावेदार की योग्यता केवल सीट जिताने तक ही सीमित हो गई है।

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उम्मीदवारों में कोई शैक्षिणक योग्यता, अनुभव व क्षेत्र में छवि पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। बस पार्टियां केवल पैसा लगाने वाला और बुरे हालातों में भी पार्टी को जीत दिलाने वाले चेहरे की तलाश में रहती हैं। जब ऐसे चेहरों को पार्टियां टिकट दे देती हैं, तो पुराने व मेहनती वर्करों को अनदेखा कर दिया जाता है, जिसके बाद पार्टियों में अनुशासन भंग होने लगता है। भले ही प्रत्येक नेता के लिए अनुशासन आवश्यक है लेकिन पार्टी के लिए भी अति आवश्यक है कि वे मेहनती व वफादार नेताओं को अनदेखा न करे।

दलबदल व पार्टी द्वारा नेताओं को केवल मौके का हथियार समझना, दोनों ही लोकतंत्र के रास्ते में बाधक हैं। होना तो यह चाहिए कि टिकट के लिए भी पार्टी चुनाव करवाए। पार्टी के बड़ी संख्या में वर्कर या डेलीगेट्स, जिस नेता के नाम पर मुहर लगाएं, उसे ही टिकट दी जानी चाहिए। यही नहीं उसकी जायदाद, जमा पूंजी या उसकी जाति, बरादरी, धर्म, भाषा, क्षेत्र को न देखा जाए। टिकट देने की योग्यता नेता की शिक्षा, मेहनत, लगन, चरित्र, ईमानदारी, जनसेवा की भावना को देखा जाना चाहिए। पार्टियां को चाहिए वे अपने वर्करों व जनता पर नेता न थोपें बल्कि यह फैसला जनता पर छोड़ देना चाहिए। यदि ऐसा होगा फिर ही दलबदल का चलन रोक पाना संभव होगा।

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