विकास की परिभाषा बदलने की आवश्यकता

Economic experts

आर्थिक उदारीकरण के 30 वर्षों बाद इसकी उपलब्धियों व खामियों पर चर्चा शुरू हो गई है। सन 1991 में नरसिम्हा राव की सरकार में आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के निर्णय को उस वक्त देश की अर्थव्यवस्था के लिए बेहद आवश्यक व समय की मांग बताया गया और इस बड़े निर्णय ने देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाया। यह भी कहा जा रहा है आर्थिक उदारीकरण के कारण 2005-06 और 2007-08 के बीच विकास दर 9.2 प्रतिशत रही थी, इसे विकास के तौर पर महत्वपूर्ण समझा गया लेकिन यह बात भी देखने वाली है कि निजीकरण उदारीकरण से निजी क्षेत्र में रोजगार बढ़ा लेकिन पब्लिक सैक्टर में नौकरियों पर बुरी तरह संकट छा गया।

सरकारी विभाग फेल होते गए, निवेश को भी फैशन की तरह अपनाया गया। सरकारी क्षेत्र में नौकरियों में छंटनी निरंतर जारी है जिस कारण आज प्रतिभावान लोगों का विदेश जाने का चलन बढ़ रहा है। उदारीकरण का स्पष्ट अर्थ निजी कंपनियोें को बढ़ावा देना था, लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि पब्लिक सैक्टर को भुला दिया जाए। विशेष तौर पर ऐसी कंपनियां जहां पर लोगों की संख्या ज्यादा थी, वे रोजगार भी दे रही थीं। बच्चों से संबंधित प्रोजैक्ट बेच दिए गए। सरकारी मिलों में उल्लू बोलने लगे हैं। होना तो यह चाहिए था कि निजीकरण के कारण सरकारी कंपनियां उनके मुकाबले में काम करती लेकिन हमारे देश में निजीकरण को इस रूप में पेश किया गया कि अब सरकारी क्षेत्रों की आवश्यकता नहीं।

फिलहाल हमारा देश मिसाइलें, टैंक, हवाई जहाज व सैटेलाइट स्वदेशी तकनीक से बना रहा है लेकिन साइकिल, स्कूटर, ट्रैक्टर, वाशिंग मशीन, फ्रिज, कूलर, कृषि यंत्र, मेडिकल औजार और अन्य सामान केवल निजी कंपनियां ही बना रही हैं। यदि सरकार इन सभी सामान के निर्माण को सरकारी कंपनियों के हाथ में सौंप देती तो यही सामान सस्ता मुहैया होने से रोजगार की संभावनाएं बढ़नी थी। निजीकरण से ही अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी, इसका सबसे ज्यादा लाभ निजी कंपनियों को मिलता है। सरकारी कंपनियों को जिंदा रखना देश की अर्थव्यवस्था के लिए कोई नुक्सान वाली बात नहीं। घाटे में जा रही कंपनियों को मुनाफे में लाने के लिए प्रयास करने में झिझक नहीं होनी चाहिए। निजीकरण, उदारीकरण की भूमिका को अस्वीकार नहीं जा सकता लेकिन इसका मतलब सरकारी कंपनियों से कन्नी कतराना नहीं होना चाहिए।

 

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