न्यायपालिका की स्वतंत्रता आवश्यक

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भारत के अगले होने वाले मुख्य न्यायधीश रंजन गोगोई ने हाल ही में न्यायपालिका की समस्याओं का विश्लेषण किया और विशेषकर इसलिए भी कि न्यायपालिका में लोगों का अत्यधिक विश्वास है। ऐसे समय में जब राजनीतिक व्यवस्था से लोगों का विश्वास समाप्त हो रहा है संभवतया न्यायपालिका ही एकमात्र ऐसा अंतिम स्तंभ है जिस पर लोग निर्भर रह सकते हैं। तीसरा रामनाथ गोयंका स्मारक व्याख्यान देते हुए न्यायमूर्ति गोगोई ने एक ऐसी न्यायपालिका का पक्ष लिया जो अग्रलक्षी हो तथा न्यायधीश न्याय प्रदान करने मे अग्रणी भूमिका निभा रहे हों। उन्होंने इस बात पर खेद व्यक्त किया कि मामलों के त्वरित निपटान के माध्यम से न्याय प्रदान करना संभव नहीं हो सका क्योंकि न्यायधीश ऐसे कामगार बन गए जिनके पास साधन नहीं हैं अर्थात बड़ी संख्या में लंबित मामलों के निपटान के लिए अपेक्षित अवसंरचना नहीं है। वस्तुत: आज ऐसी स्थिति बन गयी है कि यदि न्यायपालिका में विशेषकर निचले स्तर पर समुचित सुविधाएं उपलब्ध नहीं करायी गयी तो लोगों का न्यायपालिका में से विश्वास उठ सकता है।

उल्लेखनीय है कि न्यायपालिका ने सामाजिक, पर्यावरणीय और राजनीतिक क्षेत्र में ऐसे महत्वपूर्ण निर्णय दिए हैं जिससे देश की तस्वीर ही बदल गयी है। भ्रष्टाचार से संबंधित निर्णयों का उच्चतम न्यायालय ने स्वागत किया है और दोषी तथा कुछ राजनेताओं और उच्च पदाधिकारियों को दंडित किया गया है। किसी भी देश में न्यायपालिका संविधान की अभिरक्षक और लोगों के मूल अधिकारों की गारंटीदाता होती है। इसे राज्य का न केवल सबसे पवित्र स्तंभ माना जाता है अपितु ऐसी आधारशिला भी माना जाता है जिस पर सभ्यताओं का विकास होता है। विभिन्न सिद्धान्तों में न्यायपालिका की स्वतंत्रता को स्वीकार किया गया है ताकि सामाजिक समानता, राजनीतिक विकास, शांति और प्रगति सुनिश्चित हो सके।

हमारे देश में न्यायपालिका विभिन्न दौरों से गुजरती है और उनमें से एक दौर आवश्यकता के सिद्धान्त के नाम से जाना जाता है जिसमें न्यायापालिका की भूमिका की उपेक्षा की गयी। किंतु न्यायिक आंदोलन के बाद न्यायपालिका की गरिमा बहाल होने लगी। इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि न्यायपालिका देश की सामाजिक, राजनीतिक व्यवस्था में बदलाव लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है और न्यायधीश इस कार्य में अग्रणी रहते हैं क्योंकि इस संबंध में उन्हें स्वतंत्रता प्राप्त है। न्यायपालिका द्वारा उठाए गए अनेक कदमों से लोगों में विश्वास बहाल हुआ है कि सरकार का यह अंग कार्यपालिका और विधायिका की तुलना में सर्वोत्तम अंग है।

वर्तमान में न्यायालयों में विशेषकर निचले न्यायालयों में मामलों के लंबित रहने का कारण सरकार की उपेक्षा है और सरकार ने इस संबंध में कोई कदम नहीं उठाया है। इसका कारण संसाधनों की कमी बताया जा सकता है किंतु लोगों को अब संदेह होने लगा है कि इस उपेक्षा का कारण यह भय है कि मामलों के त्वरित निपटान से सरकार के कुकृत्यों का पदार्फाश होगा। हाल के वर्षों में न्यायिक सक्रियता बढ़ी है और इसके बारे में अनेक प्रश्न उठे हैं। किंतु कानूनी विशेषज्ञों के एक वर्ग का मानना है कि ऐसा दृष्टिकोण आवश्यक है और समाज के हित में है। तथापि न्यायालयों को इस बात को ध्यान में रखना होगा कि वे अपनी न्यायिक कृत्यों की सीमा का उल्लंघन न करें और कार्यपालिका और विधायिका के क्षेत्रों में अतिक्रमण न करें।

तथापि संवैधानिक और सांविधिक उपबंधों के उल्लंघन के मामलों में न्यायपालिका द्वारा हस्तक्षेप किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए यदि कोई ऐसा नीतिगत निर्णय लिया जाता है जिसका किसी कानून के साथ टकराव हो या जो लोक हित में न हो तो न्यायालय को इस पर विचार करना चाहिए। हालांकि यह कार्यपालिका का क्षेत्र है। जब एक से अधिक विकल्प उपलब्ध हों और सरकार उनमें से कोई निर्णय नीतिगत निर्णय लेती हो तो न्यायालयों को ऐसे मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए और ऐसे नीतिगत मामलों में अपील लटकानी नहीं चाहिए। इसका उदाहरण बाल्को बनाम भारत संघ 2002 है। न्यायालयों द्वारा न्याय निर्णयन के लिए जो भी मार्ग अपनाया जाएं वह न्यायिक सिद्धान्तों के अनुरूप हो। आज न्यायपालिका के सामने सबसे बड़ी चुनौती इस संस्था पर अधिक ध्यान देने और समाज में स्वतंत्रत भूमिका निभाने की है। निचली अदालतों में अवसंरचना में सुधार के लिए अधिक धनराशि की आवश्यकता है। फास्ट टैÑक न्यायालयों की स्थापना की जानी चाहिए और राज्यों की राजधानी से अलग अन्य शहरों मे उच्च न्यायालयों की पीठ स्थापित की जानी चाहिए। न्यायालयों को त्वरित न्याय देना चाहिए और इसे लोगों की पहुंच में रहना चाहिए।

ऐसा माना जाता है कि धनी और प्रभावशाली लोग निचली अदालतों में सौदेबाजी करते हैं और इस आशंका को दूर किया जाना चाहिए। देश सामाजिक और आर्थिक मोर्चे पर आगे बढ़ रहा है इसलिए आम आदमी को यह आश्वासन दिया जाना चाहिए कि न्यायपालिका धन, बल बाहुबल या किसी अन्य शक्ति द्वारा प्रभावित नहीं की जा सकती है और इसके लिए उच्च न्यायपालिका को जिला और उपमंडल न्यायालय पर निगरानी रखनी चाहिए। इसके अलावा न्यायिक अधिकारियों और न्यायधीशों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के कथित आरोपों की गंभीरता से जांच की जानी चाहिए। राजनेताओं और नौकरशाहों में भ्रष्टाचार आम बात है। किंतु न्यायपालिका के बारे में ऐसी धारणा नहीं है। लोगों को विश्वास है कि न्यायपालिका बिना किसी भय या पक्षपात के न्याय प्रदान करेगी। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि न्यायिक सक्रियता बढने का कारण सरकार का अकुशल कार्यकरण और विभिन्न क्षेत्रों में नीतियों और नियमों का लागू न होना है। न्यायपालिका की पहुंच बढ़ायी जानी चाहिए ताकि लोगों को न्याय मिल सके। यदि तथाकथित न्यायिक सक्रियता का समुचित विश्लेषण किया जाए तो यह सामाजिक न्याय की दृष्टि से उचित नहीं है।

ऐसा माना जाता है कि आगामी वर्षों में सामाजिक आर्थिक बदलाव और समाज को सुदृढ़ करने में न्यायपालिका की महत्वपूर्ण भूमिका रहेगी और यह न्याय, समानता और भ्रातृत्व के लक्ष्यों को पूरा करने में मदद करेगी। तथापि सबसे बड़ी चुनौती अभी भी बनी हुई है कि क्या न्यायपालिका अपनी वास्तविक स्वतंत्रता बनाए रखेगी या नहीं। इस संदर्भ में पूर्व मुख्य न्यायधीश आरएम लोढ़ा के ये शब्द उल्लेखनीय हैं मुझे विश्वास है कि देश में सुदृढ कानून का शसन होगा क्योंकि न्यायपालिका की स्वतंत्रता लोगों के मन में विश्वास पैदा करती है कि देश में न्यायपालिका है और यदि कार्यपालिका या किसी अन्य द्वारा उनके साथ कुछ गलत किया जाता है तो न्यायपालिका उनके बचाव के लिए आगे आएगी।

धुर्जति मुखर्जी (इंफा)

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