भारत धर्मनिरपेक्ष था, है और रहेगा

India was, and will be, secular
क्या इन चंद सिरफिरों को अभिव्यक्ति के नाम पर यह हक भी हासिल है कि वे स्वयं को स्वयंभू रूप से किसी समाज या धर्म विशेष का प्रतिनिधि नेता मानने लग जाएं? क्या ऐसे ‘अवांछित’ लोगों को किसी धर्म या समाज के ‘स्वयंभू प्रवक्ता’ के रूप में अपने मस्तिष्क में पलने वाली गंदगी को समाज में बिखेरने का हक भी हासिल है?
स्वयं को ‘देश का नेता’ बताने व जताने वाले चंद आपराधिक मानसिकता के सिरफिरों ने मानो देश में अशांति फैलाने का ठेका ले रखा हो। आए दिन कोई न कोई तथाकथित स्वयंभू नेता समाज को तोड़ने वाला कोई न कोई बयान देता है। उधर व्यवसायिक मीडिया अपनी टी आर पी के मद्दे नजर उसी बयान को और भी सजा संवार कर, उसे और अधिक भड़काऊ व आग लगाऊ बनाकर पेश करता है। चंद ‘बदनाम ‘ टी वी एंकर जिन्हें गंभीर पत्रकारिता से अधिक चीखने चिल्लाने व अभिनय करने में महारत हासिल है, वे इन्हीं बयानों की ‘शल्य चिकित्सा’ शुरू कर देते हैं।
फिर पूछिए मत, बात कहीं तक भी जा सकती है। ‘आदि से अंत’ तक की एक लम्बी बहस छिड़ जाती है। टी वी पर अपना चेहरा चमकाने की लालसा रखने वाले कुछ रीढ़विहीन अर्धज्ञानी लोग इसे हवा देने का काम करते हैं। और देश के घर-घर में छिड़ जाती हैं, कुछ ऐसी बहसें जिससे देश व समाज ही नहीं बल्कि घर के रिश्ते भी दरक जाते हैं। और अफसोस तो यह कि यह सब कुछ ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ के नाम पर ही किया जाता है। ‘विषवमन’ को ही ऐसे लोग ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ का नाम देते हैं।
परन्तु क्या इन चंद सिरफिरों को अभिव्यक्ति के नाम पर यह हक भी हासिल है कि वे स्वयं को स्वयंभू रूप से किसी समाज या धर्म विशेष का प्रतिनिधि नेता मानने लग जाएं? क्या ऐसे ‘अवांछित’ लोगों को किसी धर्म या समाज के ‘स्वयंभू प्रवक्ता’ के रूप में अपने मस्तिष्क में पलने वाली गंदगी को समाज में बिखेरने का हक भी हासिल है? इस तरह की बातें क्या किसी एक ही धर्म या समाज की ओर से की जा रही हैं या सत्ता संरक्षण में भी ऐसे ही ‘विषैले उत्पाद’ तैयार किये जा रहे हैं?
देश ने पिछले दिनों पहली बार वारिस पठान नाम के किसी नेता का नाम सुना। यदि यह व्यक्ति समाज में भाईचारा बढ़ने वाला कोई बयान देता तो शायद आप वारिस पठान नाम के किसी नेता को जानते भी नहीं। परन्तु चूंकि उसने अत्यंत बेहूदा, भड़काऊ व वैमनस्यपूर्ण बयान दिया था इसलिए ‘मुख्य धारा’ के मीडिया ने इस बयान को एक व्यवसायिक अवसर के रूप में लेते हुए इसे ‘सजा संवार’ कर आप तक पहुँचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वारिस पठान हों या असदुद्दीन ओवैसी, आजम खान हों या मुख़्तार अब्बास नकवी या आरिफ मोहम्मद खान या फिर स्वर्गीय सैय्यद शहाबुद्दीन जैसे नेता रहे हों। किसी को भी इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि वे भारतीय मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करते हैं या भारतीय मुसलमानों ने अपना नेतृत्व करने का अधिकार उन्हें सौंप दिया है।
यदि प्रचार तंत्र की मानें तो अविभाजित भारत में अब तक के सबसे मजबूत मुस्लिम नेता का नाम मोहम्मद अली जिन्नाह था। बेशक वे इतने शक्तिशाली थे कि भारतीय मुसलमानों के एक वर्ग को ‘धर्म की अफीम’ चखाने के अपने मकसद में कामयाब रहे। परन्तु वे उतने ताकतवर व बड़े जनाधार वाले नेता भी नहीं थे की अविभाजित भारत का अधिकांश मुसलमान उनके साथ खड़ा होता।  केवल उत्तर भारत विशेषकर पंजाब व दिल्ली के ही मुसलमान उनके बहकावे में आए। आंकड़ों के मुताबिक मुसलमानों का 78 प्रतिशत स्थानांतरण मुख्यतय: अकेले पंजाब से ही हुआ था।
यानी 1947 में भी अधिकांश भारतीय मुसलमानों ने अपनी ही मातृभूमि भारत में हिन्दू भाइयों के साथ ही मिलजुलकर रहने का निश्चय किया। धर्म के नाम पर बनाया जाने वाला देश पाकिस्तान उस समय भी वतनपरस्त भारतीय मुसलमानों के गले नहीं उतरा। भारतीय मुसलमानों ने उस समय भी अशफाकुल्लाह खान व मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे नेताओं को अपना आदर्श माना तथा मोहम्मद अली जिन्नाह के मुस्लिम राष्ट्र के झूठे सपनों में उलझने से ज्यादा गाँधी के नेतृत्व व उनके आश्वासन पर धर्मनिरपेक्ष भारत में ही रहना मुनासिब समझा।
अब यह तो वारिस पठान जैसे कुँए के मेंढकों को स्वयं ही यह सोचना चाहिए कि जब जिन्नाह के आवाह्न पर देश का मुसलमान एकजुट नहीं हुआ तो इन तथाकथित बरसाती मेंढकों के किसी आवाह्न पर कैसे एक हो जाएगा? और वह भी इस जहरीली सोच के पीछे जो यह कहती हो कि हम 15 करोड़ ही 100 करोड़ लोगों पर भारी हैं?जिन्नाह से लेकर आज तक भारतीय मुसलमानों ने देश के किसी भी मुस्लिम नेता के प्रति अपना सामूहिक समर्थन नहीं जताया। भारतीय मुसलमानों की धर्मनिरपेक्षता का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि इस कौम ने आज तक धर्म के नाम पर कोई मुसलमान नेता चुनने के बजाए कभी गाँधी पर विश्वास किया तो कभी नेहरू पर,आज भी कभी लालू यादव की ओर यह कौम देखती है कभी मुलायम सिंह यादव,नितीश कुमार या ममता बनर्जी जैसे नेताओं की तरफ।
आज भी मुसलमानों में जितना जनाधार इन गैर मुस्लिम नेताओं का है उतना ओवैसी या किसी भी अन्य नेता का नहीं। ऐसे में भारतीय मुसलमानों ने किसी को भी ‘हम 15 करोड़’ की भाषा बोलने का अधिकार न कल दिया था न ही आज दे सकते हैं। निश्चित रूप से भारतीय समाज का समग्र स्वरूप न तो किसी वारिस पठान या अकबरुद्दीन ओवैसी या उसकी किसी जहरीली सोच को स्वीकार करता है न ही किसी गिरिराज सिंह, योगी, राजा सिंह, तोगड़िया, साक्षी अथवा प्रज्ञा जैसों की सोच को।
भारत की वैश्विक पहचान गाँधी के सत्य व अहिंसा का अनुसरण करने वाले भारत के रूप में बनी हुई है और हमेशा बनी रहेगी। यह गाँधी का देश है गोडसे का नहीं। सर्वेभवन्तु सुखन: और वसुधैव कुटुंबकम का सन्देश देने वाला भारत किसी एक समुदाय को किसी भी दूसरे समुदाय पर ‘भारी पड़ने’ का नहीं बल्कि एक दूसरे को गले लगाने व परस्पर सद्भाव प्रदर्शित करने का सन्देश देता है। वारिस पठान ने जो कहा वह निश्चित रूप से आपत्तिजनक है। परन्तु उसके जवाब में जो भाषा बोली जा रही है, वह भी बेहद खतरनाक व आपत्तिजनक है।
दरअसल किसी भी पार्टी का कोई भी नेता यदि भारतवासियों को धर्म के आधार पर विभाजित करने या दो समुदायों के मध्य नफरत फैलाने का सन्देश देता है, वह अपने ही समुदाय का दुश्मन है। ऐसी सभी जहरीली आवाजों को बंद किया जाना चाहिए। चाहे वे सत्ता विरोधी संगठन से उठने वाली आवाजें हों या सत्ता का संरक्षण पाने वाले नेताओं की। ऐसी आवाजों में भेद किया जाना भी खतरनाक है। देश के धर्मनिरपेक्ष व सच्चे देशभक्तों को सभी कट्टरपंथी व राष्ट्र विरोधी शक्तियों को राष्ट्रहित में यह सन्देश दे देना चाहिए कि नानक, कबीर, रहीम, जायसी, अशफाकुल्ला खान, वीर अब्दुल हमीद तथा कलाम का देश भारत कल भी धर्मनिरपेक्ष था आज भी धर्मनिरपेक्ष है और कल भी धर्मनिरपेक्ष ही रहेगा।
तनवीर जाफरी

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