गोल चक्कर

Literature

शहर से लौटते समय देखा कि दरवाजे पर दो सिपाही बैठे आराम से बैठे थे। घर पर पुलिस का छापा पड़ा देखकर हृदय जोर-जोर से धड़कने लगा- ‘ईश्वर भला करें।’ पुलिस की कहीं भी उपस्थिति किसी दुर्घटना, खतरे या बुरी खबर होने का अपशकुन है। घर में प्रवेश करते ही भैया बताते हैं कि पुलिस इंस्पेक्टर बहुत देर से मेरी राह देख रहे हैं। उसकी डरावनी शक्ल देखकर, उसे अपनी मूंछों पर हाथ फेरते हुए मेरी तरफ घूरता देखकर मुझे ऐसा लगता है कि मैंने जरूर कोई जघन्य अपराध किया होगा। हो सकता है वह अपराध करते हुए स्वयं मुझे भी आभास न हुआ हो। आखिर हजारों-लाखों कानून हैं। कोई भी धारा मुझ पर लग सकती है। पिछले सप्ताह के अपने कार्यो पर दृष्टिपात करना होगा।

वह अपराध कोई भी हो सकता है। बैंक डकैती, चोरी, ठगी, जालसाजी आदि-आदि…. न जाने संसार में कितने प्रकार के अपराध हैं। ‘आप खड़े क्यों हैं? यहां बैठिए। आप से कुछ प्रश्न पूछने हैं….।’ मैं आज्ञाकारी बालक सा उसके पास पड़ी खाली कुर्सी पर बैठ जाता हूं। अपना कोई रहस्य खुलने का भय होने लगता है। वह भी बड़े भाई और घर के बच्चों के सामने। बच्चे पर्दे के पीछे से झांक कर मेरी इस स्थिति पर शायद तरस खा रहे होंगे। जो कुछ मैं पूछूं उसका ठीक-ठीक उत्तर दीजिएगा…. जी, हुक्म कीजिए। ‘मैं हिचकते हुए उसे कहता हूं। मानो मैं अपराधी के कठघरे में खड़ा हूं। पुलिस इन्सपेक्टर सरकारी वकील की तरह एक समाचार-पत्र हवा में हिलाते हुए मुझे धमकाते हुए पूछता है- ‘समाचार -पत्र में यह लेख आपने लिखा है?

समाचार-पत्र…! लेख…! मैं तो कहानियां और उपन्यास लिखता हूं। यह किस लेख की बात कर रहा है? पर तब भी इसे मेरे लेखकीय नाम की जानकारी कैसे हुई? क्यों न बिल्कुल ही इंकार कर दूं? इसके पास क्या प्रमाण है कि यह लेख मैंने लिखा है। पर मेरे कुछ कहने से पहले ही वह किसी पत्रिका के सम्पादक को लिखे पत्र की तरफ संकेत करते हुए कहता है-
‘आपने इस पत्र में अधिकारियों का भी ध्यान आकर्षित किया है, कि शहर में सिनेमा की टिकटें ब्लैक में बिकती हैं। इतना ही नहीं, आपने यह आरोप भी लगाया है कि सिनेमा मालिक और पुलिस की निगरानी में यह ब्लैक होता है। इस लूट में दलाल, मालिक और पुलिस बराबर के भागीदार हैं। यह तो बहुत बड़ा अपराध है। मैं इनक्वायरी करने आया हूं….आप…’
अब याद आ रहा है कि महीना भर पहले अपनी घरवाली, बड़ी भाभी और बहन को फिल्म दिखाने ले गया था।

टिकट खिड़की पर ‘हाउस फुल’ का बोर्ड लगा था और बाहर लुंगी और गंजी पहिने, गले में लाल रूमाल बांधे लड़के खुल्लमखुल्ला आओ बीस रूपये वाला चालीस रूपये में…. चालीस रूपये में…..चिल्ला रहे थे। मुझे बहुत क्रोध आया। घरवाली को मुश्किल से तो तैयार करके साथ पिक्चर देखने को मनाकर लाया था और यहां किसी भी क्लास की टिकटें नहीं मिल रही। मेरी जेब में केवल डेढ़ सौ रुपए थे। लड़कों से बहुत मिन्नतें की….एक-एक टिकट के तीस-तीस रुपए लेने को कहा। पर वे सब मेरी अनदेखी कर, कारों से उतरती मोटी आसामियों की तरफ बढ़ गए। मैं बहुत परेशान हो रहा था, यह कैसा अत्याचार है। मैं अपनी पत्नी को पिक्चर भी नहीं दिखा सकता। वह जरूर मन ही मन मुझ पर हंस रही होगी। चालीस-चालीस में ही दो टिकटें ले लूं, पर वह मेरे साथ अकेली चलने को कभी नहीं मानेगी। भाभी और इंदिरा को भी अकेला वापस भेजना ठीक नहीं होगा।

मेरी नजर अचानक सिनेमा के सामने वाले फुटपाथ पर खडेÞ, खाकी वर्दीधारी लाल पगड़ी वाले कानून के रखवाले पर जा पड़ी….उनकी पीठ सिनेमा की तरफ थी। पर तब भी उसे हजारों की भीड़ में पहचाना जा सकता है। मेरे मन में आशा का झरना कलकल कर फूट पड़ा, गीता के श्लोक के साथ…यदा यदा ही धर्मस्य…मैंने दौड़कर उसकी शरण लेनी चाही और उससे विनती करनी चाही। हे धर्म के रखवाले। मेरी लाज रख लो। मुझे इन अधर्मियों से केवल चार टिकटें लेकर दो। पर निराशा ही पल्ले पड़ी। बाहर निकले पेट पर से खिसकती निकर को बार-बार संभालते हुए, पान से भरे मुुंह के साथ, वह केवल अपनी अंगुलियों से डंडे को घुमाने के खेल दिखाता रहा। महात्मा गांधी के तीन बन्दरों की तरह उसका मुंह, कान और आंखें बंद थे।

मैं मन ही मन जल भुनकर, अपने आपको कोसता हुआ घर लौट आया। मन में एक तूफान सा उठ रहा था। महात्मा गांधी के ही शब्द मेरे अन्तस के लेखक को झकझोरने लगे….। उनसे डरो जो शान्ति से अत्याचार और अन्याय सहन करते हैं। क्योंकि ऐसे ही लोग अत्याचार और अन्याय की नींव होते हैं…. बस अधिक सह न सका और लेखनी का विष कागज पर उंडेल दिया। ‘…इधर ध्यान दीजिए, मैं आपसे पूछ रहा था। आपका नाम? पिता का नाम? जन्म तारीख? शहर? शिक्षा? व्यवसाय?’ वह एक साइक्लोस्टाईल फार्म पर दर्ज करने के लिए तैयार बैठा है। मैं डरते हुए पूछता हूं- ‘इन्सपेक्टर साहब। ब्लैक में बिकती हुई टिकटों का मेरी जन्म-पत्री से क्या लेना-देना है?’ ‘है। लेना-देना है। हमें यह देखना है कि शिकायत करने वाला व्यक्ति जेनुइन है या नहीं। अब बताइए, आपने कौन से सिनेमा घर हॉल में ब्लैक होते देखा?’

‘वाह! यह भी कोई पूछने की बात है? शहर के हर सिनेमा हॉल में ब्लैक होता है।’ ‘आपका दूसरे सिनेमा-घरों से कोई लेना-देना नहीं। आपने अपनी आंखों से जिस सिनेमा में ब्लैक होते देखा है उसका नाम बताइए।’ ‘ठीक है, लिखिए रीगल सिनेमा।’ अच्छा, रीगल। किस तारीख को? दिन? समय? पिक्चर? ब्लैक करते हुए आदमी का नाम? उसकी पहचान…..
पुलिस इन्सपेक्टर के प्रश्न पूछने के ढंग पर मुझे बहुत गुस्सा आता है, पर अपने आप पर अधिकार रखकर उससे कहता हूं- ‘इन्सपेक्टर साहब। मुझे उन ब्लैक करने वालों के नाम और पते की जानकारी कैसे होगी? पर आप अभी चलकर खुद अपनी आंखों से देखिए, एक नहीं, कई…..।’

‘देखिए मिस्टर, आप इन्क्वायरी के क्षेत्र से बाहर जा रहे हैं। मैं जो कुछ पूछता हूं, उसका उसका सीधा सा उत्तर ‘हां’ या ‘ना’ में दीजिए। तो आपको टिकटें ब्लैक में बेचने वाले का नाम, पता और शक्ल-सूरत की कोई पहचान नहीं है। मैं यही उत्तर यहां दर्ज करता हूं।’ ‘ठीक है। आप बताइए, जिस पुलिस वाले को आपने रिपोर्ट की, उसका नंबर तो आपने नोट किया ही होगा?’ ‘नहीं।’ ‘नहीं?’ आप ब्लैक करने वालों की शिनाख्त नहीं कर सकते, पुलिस वाले के नंबर की आपको जानकारी नहीं। आप सिर्फ समाचार-पत्र में हल्के फुल्के लेख लिखना जानते हैं। मिस्टर, नहीं-नहीं, ऐसे काम नहीं चलेगा। मैं आपको यहां नहीं समझा सकूंगा। आपको मेरे साथ थाने चलना होगा?’

थाने के चित्र ने मेरे शरीर में कंपकपी उत्पन्न कर दी। मुझे वह दृश्य अच्छी तरह से याद है जब हमारे घर के एक बूढ़े ईमानदार नौकर की पुलिस थाने में मरम्मत की गई थी। उससे सच उगलवाने के लिए, कि हमारे घर में चोरी उसी ने की है। हमने उन्हें हर प्रकार से विश्वास दिलाने की कोशिश की कि यह नौकर हमारे यहां पिछले बीस वर्षों से है। वह अब हमारे घर का सदस्य है। हमारा इस पर रत्ती भर संदेह नहीं है। पर वे मानने को तैयार नहीं थे। उल्टा हमें ही इन्क्वायरी में हस्तक्षेप करने के लिए डांट-डपट की। आखिर, और कोई चारा न देख, शिकायत वापस लेनी पड़ी और बड़ी मुश्किल से काफी खर्च करने के बाद बूढ़े नौकर को हवालात से मुक्ति मिली।

मैं उसे विश्वास दिलाने के लिए अनुनय करता हूं-‘इन्स्पेक्टर साहब। आप विश्वास करिए। मैंने वह लेख शौकिया नहीं लिखा। मैंने खुद अपनी आंखों से ब्लैक होते देखा है। आपको विश्वास नहीं आता तो मेरी बहन और घरवाली से पूछ सकते हैं।’ कहने को तो मैं कह गया, पर उसी समय पछताने लगा। बेकार को अपनी बहन और घरवाली को भी घसीटा। इन्स्पेक्टर के चेहरे पर नर्मी आ गई।

‘अच्छा, तो आपके साथ, आपकी घरवाली और बहिन भी थी और कोई भी आपके साथ था? मुझे उनके बयान भी रिकार्ड करने होंगे, फिर जब केस चलेगा तो कोर्ट में आकर उन्हें गवाही देनी होगी और ब्लैक करने वाले की उन्हें पहचान करनी होगी। हम शहर के सभी गुण्डों बदमाशों की उनके सामने परेड कराएंगे।’

भैया, जो अब तक शान्ति से इन्सपेक्टर और मेरे बीच होने वाले वार्तालाप का मजा ले रहे थे और मेरे उतरे हुए चेहरे को देख, खुश हो रहे थे….अब इन्सपेक्टर की उक्त बातें सुनकर आपे से बाहर हो गए। मेरी बांह पकड़कर मुझे खींचकर अंदर ले गए। तेरी क्या मति मारी गई है जो ऐसे लेख लिखते हो? पुलिस से लड़ने का मतलब होता है मधुमक्खियों के छत्ते में पत्थर फेंकना। अब दो जवाब पुलिस को। अरे, सिनेमा कहीं भागा जा रहा था? आज हर एक ब्लैक में दो पैसे कमाता है,…अब घर की औरतों को भी घसीटेगा कोर्ट में? ऊपर से वह गुण्डे बदमाश…..मेरा मस्तिष्क सुन्न होने लगा, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। बेकार ही ऐसा पत्र लिखा। मुझे क्या पता था कि बात इस सीमा तक बढ़ जाएगी। पहले तो कभी पुलिस से पाला नहीं पड़ा था….अब मैं क्या कहूं? भैया की तरफ उदास-उदास सा विनय भरी दृष्टि से देखने लगा। मानो उनसे कह रहा होऊं…भैया इन कामों में आप ही अनुभवी हैं….. अब जैसे भी हो इस घर की लाज आप ही बचाइए।

भैया ने मेरी पुकार सुन ली, वे इन्स्पेक्टर के पास आकर बड़े ही विनीत स्वर में कहने लगे-‘क्षमा कीजिएगा इन्सपेक्टर साहब। यह अभी बच्चा है, इसे सांसारिक बातों का ज्ञान नहीं है। इसने कहीं भी किसी को ब्लैक-विलेक करते नहीं देखा। यूं ही इसे अंग्रेजी में लिखने का कुछ शौक है…।’ ‘वाह भाई वाह। सरकार पर आरोप, पुलिस विभाग को निकम्मा कहना, समाचार-पत्र का अमूल्य स्थान घेरना और पढ़ने वालों का समय बर्बाद करना, यह सब आपके भाई का शौक है? नहीं भाई नहीं। केस गंभीर हो चुका है। आपका भाई स्वीकार कर चुका है कि उसने रीगल में ब्लैक होते देखा है और आपके घर के और लोग भी उस बात के गवाह हैं। अब पुलिस को तो अपनी कार्यवाही करनी ही होगी। आपके भाई द्वारा लगाए गए आरोप तो उसे प्रमाणित करने ही होंगे। दूसरी स्थिति में गलत आरोप की सजा…आप समझ सकते हैं।’

भैया निराश होने लगते हैं….यह इन्सपेक्टर तो बड़ा ही कांइयां लगता है। भैया दूसरा रूप अपनाते हुए कहते हैं-‘देखिए इन्स्पेक्टर साहब। हम घर गृहस्थी वाले, भला हम क्या जाने इन कोर्ट-कचहरियों को। यह नादान है, अभी खून गर्म है, गलती कर बैठा है। आप खुद अनुभवी हैं, कानून के जानकार हैं। आप ही कोई रास्ता निकालिए और इन्क्वायरी को यहीं खत्म कर दीजिए।’ इन्सपेक्टर के चेहरे का रंग बदल जाता है। वह कुछ नर्म होकर कहता है-‘देखिए भाई साहब। हम भी सरकारी नौकर हैं। पुलिस कमिश्नर या मिनिस्टर का आदेश मानना ही है। वैसे भला हमें क्या पड़ी है जो इन मामूली केसों में अपना सिर खपाएं? पर यह केस तो ऊपर तक पहुंच गया है। इसलिए इसकी इन्क्वायरी तो करनी ही होगी।’

‘देखिए इन्स्पेक्टर साहब, इस केस में तो आपको कुछ करना ही होगा। हम आपके कहने से बाहर थोड़े ही जाएंगे…आपको कोई न कोई रास्ता तो निकालना ही होगा…।’ बस, आगे का वार्तालाप मैं सुन न सका। आखिर में शायद वह अपनी रिपोर्ट में लिख कर ले गया कि समाचार-पत्र में शिकायत करने वाले का पता जाली था। उसे ढूंढ नहीं सके। भैया ने उसे ऐसी रिपोर्ट लिखने के लिए कैसे मनाया यह वहीं जाने। मुझे इसका ज्ञान नहीं। उस दिन के बाद लिखना-पढ़ना छूट गया। अब मैं भी भैया के साथ दुकान की गद्दी पर बैठता हूं। दुकान, जिसके तराजू में कान हैं, नाप का मीटर कुछ छोटा है और वही इन्स्पेक्टर अब मेरा घनिष्ठ मित्र हो गया है।
लखमी खिलाणी

 

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