विदेश मोर्चे पर चुनौतियां कम नहीं

PM Narendra Modi

अफगानिस्तान के साथ हमारे बेहतर संबंध भी समय की मांग हैं। खासकर नाटो सेनाओं की वापसी के बाद। पिछले दिनों रूस ने तालिबान के साथ शांति प्रक्रिया को लेकर बातचीत की थी। इस बातचीत में चीन, पाकिस्तान व अमेरिका सहित कई देशों ने भाग लिया था। जबकि भारत केवल अतिथि की हैसियत से उपस्थित हुआ था। कुछ समय पहले अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई ने रायसीना डायलॉग को संबोधित करने हुए कहा भी था कि रूस और अमेरिका की अगुवाई में शुरू की गई शांति प्रक्रिा में भारत को और अधिक सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए।

एनडीए-2 ने साल 2019 में देश के भीतर एक के बाद एक जिस तरह से नीतिगत फैसले लेकर उनको लागू किया उससे देश व दुनिया में चचार्ओं का दौर शुरू हुआ। बीते वर्ष में भारत अपने आतंरिक मामलों के प्रंबध में तो व्यस्त रहा ही विदेश मोर्चे पर भी उसकी सक्रियता लगातार बनी रही। लाभ-हानी के बीच गठित बैठाते हुए भारत की विदेश नीति लगातार आगे बढ़ती रही।

हमारे प्रधानमंत्री व विदेशमंत्री ने साल भर में अनेक देशों की औपचाररिक और अनौपचारिक यात्राएं की। वैश्विक संस्थाओं व संगठनों के शिखर सम्मेलनों के लिए कुछ यात्राएं निर्धारित थी जो प्रतिवर्ष होती ही हैं, जबकि कुछ यात्राएं व्यापार व कूटनीतिक संबंधों के दायरे को बढाने के लिए की गई। बाहरी देशों के शासनाध्यक्षों व राष्ट्राध्यक्षों के आने का सिलसिला भी पूरे साल बना रहा। दक्षिण एशियाई देशों के साथ रिश्तों में कोई खास परिर्वतन या बहुत बड़ी उपलब्धि इस साल भारत के लिए नहीं रही। हां, मालदीव में सत्ता परिर्वतन के बाद व बांग्लादेश में शेख हसीना के फिर से प्रधानमंत्री बनने से भारत की राह आसान हुई है।

नेपाल को लेकर भारत पिछले कुछ वर्षों से असहज ही रहा है। कम्यूनिस्ट सरकार आने के बाद भारत-नेपाल संबंधों पर संशय के जो बादल मंडरा रहे थे वे ओर गहरा गए हैं। कालापानी इलाके पर नेपाल ने दो टूक कह दिया है कि भारत को इस क्षेत्र से अपनी सेनाएं हटा लेनी चाहिए, नेपाल भारत को अपनी एर्क इंच जमीन भी नहीं देगा। नेपाली पीएम केपीएस ओली की यह टिप्पणी भारत के लिए इस लिए महत्वपूर्ण हो गयी है क्योंकि ओली ने टिप्पणी चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नेपाल दौरे के बाद की है। जिनपिंग पिछले दिनों भारत आए थे। भारत यात्रा के बाद वे काठमांडू गए। यह दो दशक बाद किसी चीनी राष्ट्रपति का नेपाल दौरा था। भारत और नेपाल दोनों समान संस्कृती व मूल्यों वाले पड़ोसी होने के बावजूद आज तक संबंधों के एक निर्धारित दायरे से बाहर नहीं निकल पाए हैं। अब कालापानी विवाद से यह दायरा और अधिक बढ़ सकता है।

बाग्लांदेश में भारत समर्थक शेख हसीना के दुबारा सत्ता में आने से बांग्लादेश को लेकर भारत की चिंता कुछ कम हुई है। नदी जल को लेकर दोनों देशों के बीच जब-तब विवाद उठता रहता है। हालांकि इस विषय पर एक द्विपक्षीय संयुक्त नदी आयोग (जेआरसी) बना हुआ है जो समय-समय पर नदी संबंधी मुद्दों पर चर्चा करता है। जीआरसी के प्रयासों से भारत और बांग्लादेश के बीच नदी पानी को लेकर कई सफल समझौते भी हुए हैं, उनमें से मुख्य तीस्ता जल समझौता है जो वर्ष 2011 से लगातार चल रहा है, लेकिन केन्द्र और पश्चिम बंगाल की ममता सरकार की आपसी खिंचातनी के चलते अब तक दोनों देश इस पर आगे नहीं बढ़ पाएं है। देश में लागू किए जाने वाली एनआरसी को लेकर बांग्लादेश में चिंता का माहौल है।

हालांकि सरकार ने यह भरोसा दिया है कि बांग्लादेश पर एनआरसी का प्रभाव नहीं पड़ेगा और यह भारत का आंतरिक मामला है। भारत-श्रीलंका संबंधों की बात कि जाए तो दोनों देशों के बीच ऐतिहासिक व परंपरागत संबंध रहे हैं। गृह युद्ध के वक्त के मतभेदों को छोड़ दिया जाए तो लगभग संबंध सोहार्दपूर्ण ही हैं। नवनिर्वाचित राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे का चीन की ओर आकर्षण भारत के लिए चिंता का विषय है। अपने चुनाव प्रचार के दौरान भी गोटबाया ने यह बात खुलकर कही थी कि यदि वे सत्ता में आते हैं, तो चीन के साथ रिश्तों को मजबूत करने पर पर अधिक जोर देंगे। लेकिन अपनी पहली राजकीय यात्रा पर भारत आकर गोटबाया ने भारत की चिंताओं को कुछ कम जरूर किया है।

श्रीलंका के भीतर एक वर्ग ऐसा भी है जो चीन के बढते प्रभाव का लगातार विरोध करता रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले वर्षों में भारत श्रीलंका के साथ रिश्तों को बेहतर कर सकेगा। भूटान भी भारत का प्रमुख पड़ौसी देश है। भूटान का राजनीतिक रूप से स्थिर होना भारत की सामरिक और कूटनीतिक रणनीति के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है। डोकलाम विवाद के बाद चीन की विस्तारवादी नीति ने दोनों देशों के सामने सीमा सुरक्षा संबंधी चुनौतियॉं खड़ी कर दी है। चीन भूटान के साथ औपचारिक राजनयिक और आर्थिक संबंध स्थापित करने का इच्छुक है, इससे आने वाले दिनों में भारत के सामने कुछ नई चुनौतियां खड़ी हो सकती है।

साल के अंतिम दिनों में दक्षिण पूर्वी देश मलेशिया ने संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर पर बयान देकर भारत को सकते में डाल दिया। दोनों देशों का एक दूसरे के इतिहास में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। मुस्लिम बहुल देश होने और पाकिस्तान की तमाम कोशिशों के बावजूद मलेशिया और भारत के संबंध मधुर बने रहे। दुर्भाग्यवश, पिछले कुछ वर्षों से दोनों देश एक दूसरे से दूर होते जा रहे हैं। 1962 के भारत-चीन युद्ध में मलेशिया अकेला ऐसा देश था जिसने न केवल खुलकर भारत का साथ दिया बल्कि भारत को युद्ध में सहायता के लिए एक आर्थिक कोष की भी स्थापना की थी।

मुस्लिम कटटरपंथी और भारत में टेरर फाइनेंस के आरोपी जाकिर नाइक के मलेशिया भाग जाने और भारत सरकार की तमाम कोशिशों और दोनों देशों के बीच प्रर्त्यपर्ण संधि होने के बावजूद मलेशिया सरकार का उसे भारत नहीं भेजने के निर्णय ने राजनयिक स्तर पर पिछले कई वर्षों से एक तनाव की स्थिति पैदा कर दी है। ऐसा लगता है कि इस मुद्दे का निस्तारण किए बिना संबंधों को वापस सही दिशा में ले जाना मुश्किल होगा।

इस बीच देश के भीतर इस तरह की बातें भी आई कि भारत के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप को लेकर भारत सरकार मलेशिया पर कार्रवाई करे। पाम आॅइल का मुद्दा इस संदर्भ में प्रमुखता से उभरा। भारत मलेशियाई पाम आॅइल का सबसे बड़ा आयातक देश है। संभव है कि व्यापार के असंतुलन को दूर करने के लिए मलेशिया आने वाले दिनों में कोई कदम उठाए और भारत से चीनी और मीट उत्पादों का आयात बढ़ाकर मामले को फिलहाल रफा-दफा करने की कोशिश करे। स्थिति चाहे जो भी हो फिलहाल इस बात से इंनकार नहीं किया जा सकता है कि भारत मलेशिया संबंधों में दरार बढ़ी है, जिसे पाटने के लिए दोनों ही देशों को व्यापक और बड़े कदम उठाने होंगे।

साल 2019 में दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति सिरिल रामफोसा गणतंत्र दिवस समारोह में मुख्यअतिथि की हैसियत से भारत आए। रामफोसा की भारत यात्रा के दौरान भारत-दक्षिण अफ्रीका के बीच कई महत्वपूर्ण समझौते हुए। ब्रिटेन में बोरिस जॉनसन का सत्ता में आना भारत-ब्रिटेन संबंधों के लिए उचित ही है। लेकिन जॉनसन की जीत का एक अर्थ यह भी है कि अब अगले कुछ दिनों में ब्रिटेन यूरोपीय संघ से बाहर हो जाएगा । ऐसे में जहां एक ओर भारत को ब्रिटेन के साथ अपने संबधों को पुन: परिभाषित करना होगा वहीं यूरोपीय संघ के साथ भी बेहतर तालमेल के लिए आने वाले दिनों में मशक्त करनी होगी। साल 2020 में अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव है। पीएम मोदी के मित्र डोनाल्ड ट्रंप महाभियोग का सामना कर रहे हैं।

किसी कारण से अगर वे दोबारा राष्ट्रपति निर्वाचित नहीं होते हैं, तो भारत- अमेरिकी संबंधों के लिए एक मुश्किल दौर की शुरूआत हो सकती है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि तेजी से बदलते वैश्विक घटनाक्रम के बीच भारत ने कभी आक्रमक तेवर दिखाकर तो कभी शांत और सोम्यभाव से नपी-तुली प्रतिक्रिया देकर स्थितियों को अपने अनुकूल करने का प्रयत्न किया है, जो कूटनीतिक दृष्टि से सही ही है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि विदेश मोर्चें पर भारत के सामने चुनौतियां नहीं है। हाल फिलहाल जो स्थितियां बनी हुई हैं उन्हें देखते हुए यह कहा जा सकता है कि अगले साल भी भारत विदेश मोर्चें पर दो-दो हाथ करते दिखेगा।

एन.के.सोमानी

 

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