संसदीय प्रणाली व चुनौतियां

Parliament Monsoon Session

संविधान निर्माताओं ने ब्रिटेन के राजनीतिक ढांचें के अनुसार देश में संसदीय प्रणाली को स्थापित किया। संघ के साथ-साथ राज्यों में भी संसदीय प्रणाली ही लागू की गई है लेकिन यह व्यवस्था राजनीतिक अस्थिरता का भी कारण बन गई है। यही कारण है कि कई बार केंद्र के साथ-साथ राज्यों में भी सरकारें पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा करने के पहले ही टूटती रही हैं। भले ही 1985 का दलबदल विरोधी कानून भी बना दिया गया। फिर भी राजनीतिक पार्टियां कई पैंतरों को अपनाकर कानून को कमजोर कर देती हैं। जहां तक महाराष्टÑ का सवाल है इसका कारण सत्तापक्ष दल शिवसेना की आंतरिक कलह के साथ-साथ पार्टी की विचारधारा व परंपराएं भी हैं।

शिवसेना न कभी कांग्रेस की कट्टर विरोधी पार्टी मानी गई लेकिन स्पष्ट बहुमत न मिलने पर राजनीति में न कोई घनिष्ठ मित्र है और न ही कोई दुश्मन। इसी विचारधारा को अपनाते हुए शिवसेना ने अपनी पुरानी गठबंधन पार्टी भाजपा से नाता तोड़ा था। दूसरी तरफ शिवसेना के बागी विधायक मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे पर उनकी सुनवाई न करने का आरोप लगा रहे हैं। उनके आरोपों में कितनी वास्तविक्ता है यह एक अलग मामला है लेकिन यह स्पष्ट है कि पार्टी के प्रति विधायकों की नाराजगी सरकार की अस्थिरता का कारण बन जाती है। इन परिस्थितियों में राज्यपाल व स्पीकर का विवेक ही निर्णायक भूमिका निभाएगा। भले ही सरकारों की अस्थिरता एक बड़ी समस्या है लेकिन मौजूदा हालात सरकार की प्रतिबद्धता व जिम्मेवारी पर भी सवाल उठाते हैं कि सरकार में किसी कमी के चलते विधायकों को बागी बनना पड़ा। ऐसी चर्चा भी है कि उद्धव अपनी पार्टी के विधायकों को समय नहीं देते थे।

इस मामले में मुख्यमंत्री की भी जिम्मेवारी है। दरअसल, जहां तक संवैधानिक ढांचों का संबंध है संसदीय प्रणाली में कुछ कमियां होने के बावजूद भी वह मजबूत व महत्वपूर्ण है। वास्तव में कमियां संवैधानिक ढांचें में नहीं बल्कि राजनीतिक पार्टियों में है। न केवल महाराष्टÑ बल्कि अन्य राज्यों में भी राजनीतिक कल्चर में गिरावट पर सवाल उठ रहे हैं। जहां तक बागी नेताओं पर यह सवाल उठते रहे हैं कि वह मंत्री पद न मिलने के चलते बागी सुर अलापते रहे हैं, वहीं यह आरोप भी अहमियत रखते हैं कि मुख्यमंत्री कुछ चहेते विधायकों के कार्य करने तक सीमित रह जाते हैं व बहुसंख्य विधायक अपने हलके के कार्य नहीं करवा पाते जिस कारण विधायक जनता में जाने से कतराते हैं। नजरअंदाज किए विधायकों की आवाज को पार्टी अनुशासन के नाम पर दबाया जाता है। वास्तव में लोकतंत्र केवल दिखाने के लिए बाहरी नहीं पार्टी के अंदर भी होना चाहिए। प्रत्येक बागी गलत नहीं हो सकता व न ही हर मुख्यमंत्री तानाशाह हो सकता है।

इस मामले का समाधान पारदर्शिता ही है। सरकार के साथ-साथ पार्टियां भी अपने कार्य की पहचान लोकतांत्रिक कसौटी पर करने के लिए कोई ढांचा या परम्परा शुरू करें। पार्टियां जिस तरह टिकट देने वाले विधायकों के पांच वर्ष के कार्यकाल की पहचान करती हैं, उसी तरह सत्तापक्ष पार्टी/गठबंधन को क्षेत्र या विधायक के नजरिए से भी टटोलना चाहिए कि सरकार ने जिन विधायकों की आवाज पर गौर किया है उनके कितने मामलों को अनदेखा छोड़ दिया। सरकार को अपने कार्यों की समीक्षा भी निष्पक्ष व पारदर्शी तरीके से करनी चाहिए। यदि समीक्षा होगी तो सरकारों की जवाबदेही के परिणाम भी सामने आएंगे व विधायकों की मेहनत व लोगों के प्रति वचनबद्धता भी दिखेगी। सत्तापक्ष में बगावत का कारण पारदर्शिता का अभाव व विधायकों की न सुनना रहता है।

अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और TwitterInstagramLinkedIn , YouTube  पर फॉलो करें।