बुजुर्ग नेताओं की अनदेखी पर सियासत का औचित्य

Politicians ignoring the elderly leaders

कहते हैं कि प्यार और युद्ध में सबकुछ जायज है। फिलहाल भारत में लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया चल रही है। इस प्रक्रिया के पूरे होने के बाद देश का प्रधानमंत्री चुना जाएगा। प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने के लिए देश के तमाम बड़े नेता एंड़ी-चोटी का जोर लगाए हुए हैं। मतलब, यह चुनाव किसी अघोषित सियासी युद्ध से कम नहीं है। इस स्थिति में किसी का टिकट कटता है या किसी नए व्यक्ति को मिलता है तो इसमें आश्चर्य करने जैसी कोई बात नहीं है। यानी कुर्सी पाने के लिए किसी का भी टिकट काटा अथवा जोड़ा जा सकता है। जैसा कि देखने को मिल रहा है। फिलहाल, भाजपा की सूची जारी होने के बाद पता चला कि गांधीनगर से वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी का टिकट कट गया है। दिलचस्प यह है कि आडवाणी का टिकट कटने पर भाजपा में कितना मंथन हो रहा होगा, लेकिन विपक्ष तो भाजपा पर हमलावर हो ही गया है। उसका कहना है कि भाजपा में बुजुर्गों का सम्मान नहीं होता। बुजुर्गों को आदर नहीं दिया जाता। आडवाणी प्रेमी भाजपा नेताओं और विपक्ष को यह समझना होगा कि आज की भाजपा अटल-आडवाणी वाली नहीं है।

यह मोदी-शाह वाली भाजपा है, जहां सबकुछ मुमकिन है। वैसे देखा जाए तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि आडवाणी जैसे दिग्गज केवल भाजपा में ही किनारे नहीं किए जा रहे, बल्कि अन्य दलों में भी बुजुर्ग नेता या तो खुद ही अलग हो रहे हैं अथवा उन्हें इशारे-इशारे में अलग कर दिया जा रहा है। आपको बता दें कि भाजपा ने लोकसभा चुनाव के लिए अपने 184 उम्मीदवारों की पहली सूची जारी की तो पता चला कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वाराणसी से और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह गांधीनगर से चुनाव लड़ेंगे। गांधीनगर से पहले भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी चुनाव लड़ते थे, लेकिन भाजपा ने इस बार यहां से उनका टिकट काट दिया है और अब अमित शाह इस सीट पर प्रत्याशी होंगे। भाजपा के वरिष्ठ नेता जेपी नड्डा ने लोकसभा चुनाव के लिए उम्मीदवारों की पहली सूची जारी की। उन्होंने बताया कि 19 मार्च और 20 मार्च को भाजपा की केंद्रीय चुनाव समिति की बैठक हुई, जिसमें एक-एक करके राज्यों पर चर्चा हुई।

बैठक में भाजपा अध्यक्ष शाह, प्रधानमंत्री मोदी ने हिस्सा लिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वाराणसी से चुनाव लड़ेंगे। गृहमंत्री राजनाथ सिंह लखनऊ से लड़ेंगे जबकि नितिन गडकरी नागपुर से प्रत्याशी होंगे। स्मृति ईरानी अमेठी से चुनाव लड़ेंगी। स्मृति ईरानी के सामने अमेठी से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी मुकाबले में होंगे। नोएडा से डॉ.महेश शर्मा, मुजफ्फरनर से संजीव बालियान, गजियाबाद से वीके सिंह, बागपत से सत्यपाल सिंह, मथुरा से हेमा मालिनी को टिकट दिया गया है। उन्नाव से साक्षी महाराज को टिकट दिया गया है। केंद्रीय मंत्री कृष्णा राज की जगह अरुण सागर को शाहजहांपुर से भाजपा उम्मीदवार बनाया गया है। छत्तीसगढ़ से पांच सीटों पर उम्मीदवारों के नाम घोषित किए गए हैं, जिसमें बस्तर से बैदूराम कश्यप शामिल हैं। इस लिस्ट में जिन प्रमुख नामों की चर्चा की गई है, उसमें ज्यादा फोकस आडवाणी पर ही हो रहा है। इसी के मायने समझे जाने हैं।

हालात देखकर यह कहा जा सकता है कि साल 2019 का लोकसभा चुनाव कई बुजुर्ग दिग्गज राजनेताओं की आखिरी सियासी पारी का गवाह बनने वाला है। कई लीडर जो कल तक भारतीय राजनीति में छाए रहे, आज उम्र के उस मुकाम पर पहुंच गए हैं कि अगला चुनाव लड़ना तो दूर, उसमें कोई भूमिका भी वे शायद ही निभा पाएं। अलबत्ता इस चुनाव पर उनकी कुछ न कुछ छाप जरूर होगी। इनमें कुछ ऐसे भी हैं, जो राजनीति में अप्रासंगिक हो चुके हैं और स्वास्थ्य या अन्य कारणों से अपना रोल पर्दे के पीछे से ही निभाने को विवश हैं। इस तरह एक पीढ़ी धीरे-धीरे बाहर जा रही है और नई पीढ़ी उसकी जगह ले रही है। तमिलनाडु में करुणानिधि और जयललिता, दोनों के निधन के बाद यह पहला आम चुनाव होने जा रहा है।

दिलचस्प बात यह कि पुरानी पीढ़ी के ज्यादातर नेताओं ने अपनी विरासत अपने परिवार को ही सौंपी है। वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी का टिकट गया है। यदि उन्हें इस बार टिकट मिल भी जाता तो यह शायद उनकी आखिरी पारी होती। एक संभावना आडवाणी के बेटे जयंत या बेटी प्रतिभा के चुनाव लड़ने की भी है। बीजेपी के ही यशवंत सिन्हा को पार्टी से टिकट नहीं मिलनेवाला पर इस बार वे नेपथ्य से खूब सक्रिय रहेंगे। बहरहाल, उनकी भी उम्र इतनी हो चली है कि अगले चुनाव में शायद ही कुछ कर पाएं। पार्टी के 84 वर्षीय नेता शांता कुमार ने चुनाव न लड़ने की घोषणा कर दी है। महाराष्ट्र के दिग्गज एनसीपी नेता शरद पवार भी इस बार चुनाव न लड़ने की बात कह चुके हैं। उनकी बेटी सुप्रिया सुले और पोते पार्थ पवार का चुनाव लड़ना तय है। पंजाब के वयोवृद्ध नेता प्रकाश सिंह बादल शायद इस बार चुनाव लड़ें पर उनकी उम्र भी उन्हें अगला चुनाव लड़ने की इजाजत नहीं देने वाली। वैसे वे अपनी विरासत अपने बेटे सुखबीर सिंह बादल को सौंप चुके हैं, ठीक पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा की तरह।

खैर, चर्चा आडवाणी की हो रही है तो यह बताना जरूरी है कि गांधीनगर सीट से वे 1998 से चुने जीतते रहे थे लेकिन पार्टी ने इस बार उन्हें मौका नहीं दिया है। यह एक तरह से नैचुरल ट्रांजिशन है। आडवाणी अब उस स्थिति में नहीं है जो सक्रिय रूप से प्रचार अभियान चला सकें। चुनाव में जिस तरह से पसीना बहाना पड़ता है, धूल फांकनी पड़ती है, उसके लिए आडवाणी की उम्र कुछ ज्यादा है। इसे बीजेपी का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के हाथ में जाने के तौर पर देखा जा सकता है और कुछ नहीं। आडवाणी की सीट पर अमित शाह के लड़ने पर कुछ लोग भले ही ये कहें कि बीजेपी अध्यक्ष का कद आडवाणी के बराबर हो गया है लेकिन किसी सीट पर लड़ने से किसी का कद न बढ़ता है और न ही छोटा होता है।

अगर यही पैमाना होता तो आपको वाराणसी से कोई भी ऐसा नेता आपको याद नहीं होगा जिसका कद प्रधानमंत्री तक जाता हो। वाराणसी से मोदी के चुने जाने का ये मतलब नहीं है कि वे सीट की वजह से बड़े हो गए। ये नेता की अपनी शख्सियत पर निर्भर करता है। सीट का नेता के कद से कोई रिश्ता नहीं होता। वैसे ही गांधीनगर से अमित शाह लड़ रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि वे भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष हैं। गांधीनगर से चुनाव लड़ने की वजह से अमित शाह की तुलना आडवाणी से करना उचित नहीं होगा।

इसकी कई वजहें हैं। एक वजह तो ये है कि जमाना बदल गया है। लीडरशिप के तौर-तरीके बदल गए हैं। आडवाणी और अमित शाह दोनों अलग-अलग हैं। आडवाणी का कद कहीं ज्यादा बड़ा है। अमित शाह को वहां तक पहुंचने में काफी वक़्त लगेगा। लेकिन ये एक तरह से आडवाणी युग का अंत होने जैसा है। इसमें कोई शक भी नहीं रह गया है। साल 2009 के चुनाव के बाद से ही ये स्पष्ट होने लगा था कि उस जमाने के नेताओं का समय अब पूरा हो गया है। किसी की उम्र 90 साल हो गई हो और ये सोचना कि उसका युग रहेगा, तो ये बहुत बड़ी बात हो जाएगी। क्रिकेट में खिलाड़ी अपने रिटायरमेंट के फैसले खुद लेते हैं लेकिन राजनेताओं की विदाई के लिहाज से देखा जाए तो जिस तरह से आडवाणी ढलते चले गए कि अब कोई उनकी बात भी नहीं करता है।

हर किसी की जिÞंदगी में ढलान का वक़्त आता है। ये नहीं कहा जा सकता कि इस समय पूछ घट गई है या उस समय पूछा जा रहा था। अगर आप याद करें तो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में हरकिशन सिंह सुरजीत हुआ करते थे। वह लंबे समय तक राजनीति में सक्रिय रहे लेकिन आखिरी दौर में वह भी फीके पड़ गए थे। बहरहाल, आडवाणी का टिकट कटा, इस मुद्दे पर राजनीति नहीं की जानी चाहिए। हो सकता है कि आडवाणी ने खुद ही चुनाव लड़ने से मना कर दिया हो, जिसकी जानकारी मोदी-शाह को ही हो। खैर, देखना है कि क्या होता है?

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