एसवाईएल मुद्दे पर केंद्र सरकार द्वारा पंजाब व हरियाणा के मुख्य मंत्रियों की आयोजित बैठक एक बार फिर बेनतीजा रही। हालांकि इस बैठक से पहले ही उम्मीद नहीं थी, क्योंकि दोनों राज्य के मुख्यमंत्रियों ने अपनी प्रतिक्रियाएं पहले ही स्पष्ट कर दी थी। जब दोनों राज्य पुराने रुख पर कायम रहे तब समाधान की उम्मीद कैसे की जा सकती है। वास्तव में यह मामला राजनीतिक पेंच व तकनीकी उलझनें में इतना ज्यादा फंस चुका है कि इसका समाधान बहुत मुश्किल नजर आ रहा है। ये सरकार में रहने के बावजूद भी कई पार्टियां इसका समाधान नहीं निकाल सकी। वे अपने रुख पर अडिग हैं। प्रत्येक सत्ताधारी पार्टी को यही भय रहता है कि यदि वह थोड़ा सा भी नरम पड़ गए तब विपक्षी पार्टियों को बोलने का मौका मिल जाएगा।
इस मामले का राजनीतिक समाधान होने की उम्मीद तब ही खत्म हो गई थी जब केंद्र, हरियाणा व पंजाब में एक पार्टी की सरकारें होने के बावजूद इसका समाधान नहीं निकल सका। पंजाब के मुद्दों पर सत्ता में आए शिरोमणी अकाली दल की हरियाणा ईकाई भी एसवाईएल नहर के मुद्दे पर पंजाब के खिलाफ चलती रही है। वास्तव में राष्टÑीय पार्टी की विचारधारा व प्रदेश ईकाईयों की विचारधारा में तालमेल नहीं बनाया जा सका। यदि राष्टÑीय पार्टियों की विचारधारा में अंतर न हो तब इस मामले को सुलझाने में आसानी हो सकती है। दूसरी तरफ नदियों के पानी संबंधी राष्टÑीय कानून न होना भी बड़ी समस्या है। इसीलिए अब तक यह मामला समझौते तक सीमित रह गया है। राज्यों के पुर्नगठन एक्ट की सही व्याख्या व बदलती परिस्थितियों में पुर्नगठन एक्ट की व्याख्या में फेरबदल भी इस समस्या को सुलझाने में बाधा बन रहा है।
विधानसभा की वैधानिक शक्तियों व विधान सभाओं के संवैधानिक प्रावधान भी इस मामले से जुड़े हुए हैं, जिन्हें नकारना व स्वीकारना जटिलता भरा कार्य है। दूसरी तरफ एसवाईएल का सुप्रीम कोर्ट में लंबे समय तक लटकना इस मामले में संवैधानिक व कानूनी पहलूओं की अस्पष्टता की तरफ इशारा करता है। वास्तव में इस मुद्दे का समाधान गैर-रानीतिक व वैज्ञानिक नजरिया अपनाने से ही संभव है। राज्यों के पुर्नगठन के बाद बदलती परिस्थितियों पर राष्टÑीय भावना के नजरिये से कार्य करने की आवश्यकता है।
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