जलवायु संकट पर सभी पहलुओं को ध्यान में रख हो हल

Climate Change

जलवायु संकट पर चर्चा करने के लिए जब तमाम वैश्विक नेता कॉप-26 (संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन) के लिए ब्रिटेन में मिले, यह अच्छा है कि वो सब मन बनाकर बैठे कि इस बार संकट से निपटने के लिए तत्काल और कठोर कार्रवाई की जरूरत से कतई पीछे नहीं हटना है। जलवायु परिवर्तन के आसन्न खतरे को समझने के लिए हमें अब किसी विज्ञान की दरकार नहीं है। हम इसे अपने आसपास देख रहे हैं। चरम मौसमी घटनाओं की आमद बढ़ रही है, और वे अर्थव्यवस्था व जान-माल के लिए भी विनाशकारी साबित होने लगी है। तो कॉप-26 का एजेंडा क्या होना चाहिए? सबसे पहला और महत्वपूर्ण एजेंडा तो यही हो कि यह सम्मेलन जलवायु न्याय की अनिवार्यता को समझे। यह केवल नैतिकता का मसला नहीं है। इसके कारण बेशक असहज करते हैं, लेकिन काफी सरल है।

कार्बन डाई-आॅक्साइड लंबे समय तक आबोहवा में बना रहता है, इसलिए अतीत में जो उत्सर्जन हुआ है, वह वायुमंडल में जमा है और तापमान को बढ़ाता है। फिर, कार्बन डाई-आॅक्साइड का जुड़ाव दुनिया के आर्थिक पहिए से भी है। यह आश्चर्य का विषय नहीं होना चाहिए कि राष्ट्रीय निर्धारित योगदान (एनडीसी) दुनिया को न्यूनतम तीन डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि या उससे भी अधिक की ओर ले जाता है। एनडीसी राष्ट्र के स्तर पर कमी लाने संबंधी लक्ष्य के लिए संयुक्त राष्ट्र का महज शब्दजाल है। यही कारण है कि भविष्य की कार्रवाइयां इस सच को जानते-समझते हुए तय की जानी चाहिए कि हमें जलवायु समानता की जरूरत है और इस पर हर हाल में काम होना चाहिए। यदि अन्य देशों के उत्सर्जन के साथ भारत की तुलना करें, तो यह अपेक्षाकृत कम है।

चीन के उत्सर्जन का आंकड़ा जहां 27 प्रतिशत है, वहीं अमेरिका का योगदान 11 प्रतिशत है. यूरोपीय संघ के देश सात प्रतिशत ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जित करते हैं। भारत की आबादी चीन के लगभग बराबर है, पर अमेरिका और यूरोप से बहुत अधिक है। चीन समेत इन सभी देशों ने तो बड़ी आर्थिक प्रगति की है। भारत के लिए कोयले का सवाल घरेलू वजहों से भी खासा महत्वपूर्ण है। हमें पुराने व बेकार हो चुके बिजली संयंत्रों को चरणबद्ध तरीके से खत्म करना होगा और यह सुनिश्चित करना पड़ेगा कि सभी मौजूदा संयंत्र अत्याधुनिक तकनीक से सुसज्जित हों, ताकि प्रदूषण पर नियंत्रण पाने में सफलता मिले।

निश्चित रूप से भारत की भी जिम्मेदारी है, लेकिन उत्सर्जन में कटौती धीरे-धीरे ही हो सकती है, अन्यथा औद्योगिक और अन्य गतिविधियों पर नकारात्मक असर पड़ेगा। पृथ्वी का तापमान बढ़ाने में ऐतिहासिक रूप से विकसित देश जिम्मेदार हैं। ऐसे में उन्हें अविकसित और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को सहयोग भी देना चाहिए। हालिया ऊर्जा संकट ने फिर इंगित किया है कि चीन और पश्चिमी देश भी जीवाश्म-आधारित ईंधनों पर आश्रित हैं तथा उनका प्रति व्यक्ति औसत कार्बन उत्सर्जन भारत से बहुत अधिक है। उम्मीद है कि सम्मेलन सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए व्यावहारिक हल तय करेगा।

 

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