सब्सिडी की समस्या का बड़ा हल है बुनियादी आय

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हालांकि इसे राजनीतिक लाभ की घोषणा नहीं कहा जा सकता, पर इससे बड़ा राजनीतिक लाभ भी मिल सकता है। इसी तरह से इसे बंदरबाट भी नहीं कहा जा सकता हांलािक यह सीधा सीधा नागरिकों के हाथ में जाने वाला लाभ है। विशेषज्ञों की माने तो इससे सरकार की अर्थव्यवस्था भी इतनी ज्यादा प्रभावित नहीं होगी क्योंकि इससे ज्यादा पैसा तो आज भी सरकार के खजाने से सब्सिडी के रुप में जा रहा हेैं।

यही कुछ कारण है कि अंतरराष्टÑीय मुद्रा कोष यानी की आईएमएफ की केन्द्र सरकार को सलाह है कि सरकार आर्थिक असमानता को दूर करने और सब्सिडी के नाम पर होने वाली लीकेज को रोकने के लिए सभी को 2600 रुपए प्रतिमाह की बुनियादी आय उपलब्ध करा सकती है।
हालांकि यह सलाह आईएमएफ ने हाल ही में दी है, पर सरकार भी इसे लेकर गंभीर है।

अभी यह ख्याली पुलाव लग रहा हो या इस विषय में चर्चा करना जल्दबाजी लगे, सरकारी स्तर पर अंदरखाने ही सही पर यूबीआई पर गंभीरता से विचार हो रहा है। यूबीआई यानी कि यूनिवर्सल बेसिक इनकम। देश के प्रत्येक नागरिक की न्यूनतम आय तय की जाए और यह राशि जो पांच-सौ हजार से लेकर दो-ढ़ाई हजार तक कुछ भी हो सकती है, प्रत्येक नागरिक को हर महीने मिले।

हालांकि अब आईएमएफ 2600 रुपए की राशि तय करने का सुझाव दे रहा है। इसका मतलब यह है कि देश के प्रत्येक नागरिक को सरकार द्वारा कम से कम एक निश्चित राशि उपलब्ध कराई जाए ताकि उसका जीवन स्तर सुधर सके। आर्थिक विश्लेषकों द्वारा गरीबी निवारण के वन टाइम प्रोग्राम के रुप में इसे देखा जा रहा है।

हालांकि देश के सवा सौ करोड़ नागरिकों को मुफ्तखोरी की इस योजना से जोड़ना कहां तक उपयुक्त होगा यह भविष्य के गर्व में छिपा हुआ है। पर इतना तय है कि सरकार आज नहीं तो कल इसे लागू कर सकती है।

सरकार ने गैस सब्सिडी को लेकर जिस तरह का माहौल बनाया है और जिस तरह के सब्सिडी छोड़ने के आंकड़े पेश किए जा रहे हैं, उसकी तो आईएमएफ भी सराहना कर रहा है। यूनिवर्सल बेसिक इनकम के कंसेप्ट के कई मायने हो सकते हैं।

आजादी के बाद गरीबी हटाओं के नारे के साथ कई चुनाव लड़े गए हैं, वहीं गरीबी निवारण के लिए देश में कई कार्यक्रम आए हैं। कई राज्य सरकारों द्वारा युवाओं को बेरोजगारी भत्ते देने की बात आम है वहीं अनुदानित दरों पर खाद्य सामग्री व अन्य सुविधाएं कई प्रदेशों में दी जा रही है।

20 सूत्री कार्यक्रम, अंत्योदय योजना, भामाशाह, गैस सब्सिडी, खाद व इनपुट अनुदान, आंगनवाड़ी कार्यक्रम, नि:शुल्क चिकित्सा, मिड डे मिल, स्वास्थ्य कार्यकर्ता और इसी तरह की अनेक योजनाओं व कार्यक्रमों के पीटे नीचले स्तर तक सुविधाएं पहुंचाना और लोगों के जीवन स्तर व रहन सहन को सहज बनाने के उद्देश्य से ही लागू की गई। लोगों को निश्चित रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने के उद्देश्य से मनरेगा योजना का संचालन हो रहा है। इस तरह की योजनाओं को विकास से जोड़ा गया है।

यह योजनाएं सीधे आम आदमी को प्रभावित करती है पर इन योजनाओं के क्रियान्वयन और इसके प्रभावों पर विस्तृत बहस हो सकती है। पर यह तय है कि सब्सिडी योजनाओं में लीकेज आज भी कमोबेस है। हालांकि सरकार ने अब डिजीटल भुगतान की व्यवस्था की है। राजस्थान में भामाशाह योजना से जोड़ा गया है। इससे लाखों करोड़ों रुपए की लीकेज कम हुई है, पर इतना तय है कि लीकेज है। राजनीतिक दलों द्वारा चुनावों के समय लोकलुभावन घोषणाओं का अंबार लगा दिया जाता है।

आईएमएफ की सलाह है कि भारत जैसे देश में निश्चित आय उपलब्ध कराना सरकार की बड़ी उपलब्धि हो सकती है। इतना तय है कि आजादी के बाद और वर्तमान संदर्भ में देखा जाए तो नई सरकार के आने के बाद सरकार द्वारा जितनी भी योजनाएं लाई गई है, यदि यूबीआई लागू की जाती है तो सारी योजनाएं एक तरफ और यूबीआई एक तरफ वाली स्थिति हो सकती है।

हालांकि यह मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने की योजना होगी पर इसे यदि लागू करने पर विचार किया जाता है तो सरकार को बदंरवाट वाली योजनाओं खासतौर से आंगनवाड़ी, मिड डे मिल, रियायती दरों पर गैस, खाद-बीज, कीटनाशक, बिजली पानी का वितरण, खाद्य सामग्री पर अनुदान आदि में से कुछ योजनाओं पर होने वाले खर्चें को इस योजना से जोड़कर उन योजनाओं को बंद कर राशि जुटाई जा सकती है और देश के प्रत्येक नागरिक की एक निश्चित आय तय की जा सकती है।

इसमें कोई छुपाव नहीं होना चाहिए कि अनुदान के नाम पर आज बहुत सा पैसा खड्डे में जा रहा है। विश्लेषकों की एक सोच यह भी है कि जब प्रत्येक नागरिक को एक निश्चित राशि मिलेगी तो जहां उसका जीवन स्तर सुधरेगा वहीं दूसरे हाथों इसमें से बाजार के माध्यम से सरकार के पास कर आदि के माध्यम से आ जाएगी। क्योंकि पैसा आयेगा तो क्रय शक्ति बढ़ेगी और क्रय शक्ति बढ़ेगी तो यह पैसा बाजार में आयेगा इससे आर्थिक विकास का नया दौर शुरु होगा।

यूबीआई का विचार नया नहीं है। दुनिया के बहुत से देशों में इस कंसेप्ट को अमली जामा पहनाया जा चुका है। हांलाकि इसकी विफलता भी रही है और अमेरिका आदि देशों में ट्रायल के बाद इसे वापिस भी लिया जा चुका है।

इसका मुख्य कारण बहुत कम राशि दिया जाना रहा है वहीं कहीं ना कहीं मुफ्तखोरी की आदत को बढ़ावा भी इस योजना की विफलता का कारण रहा। हांलाकि आज भी योरोपीय देश फिनलैंड में यूबीआई योजना लागू है। वहां नागरिकों को 560 यूरो प्रतिमाह प्रत्येक नागरिक को दिया जाता है।

बुद्धिजीवियों, आर्थिक विश्लेषकों, सामाजिक चिंतकों व राजनीतिक समीक्षकों के सामने बहस का नया मुद्दा आ गया है। इसके पक्ष विपक्ष में सभी बिंदुओं पर देशव्यापी बहस होनी चाहिए। हांलाकि मुफ्तखोरी की अन्य योजनाओं को डॉकटेल करने से कम से कम देश के प्रत्येक नागरिक की निश्चित आय तो तय हो जाएगी पर यह भी विचार करना होगा कि मुफ्तखोरी की योजनाएं कब तक चलती रहेगी।

हमें अमेरिका, कनाडा, अफ्रिका के देशों में इसकी विफलता के कारणों का भी अध्ययन करना होगा, खासतौर से सामाजिक ताने-बाने को भी समझना होगा। पर इससे अधिक यह कि सब्सिडी के नाम पर दी जा रही राशि को इस योजना मेंमर्ज कर दिया जाता है और सीधे खातों में भुगतान की व्यवस्था हो जाती है तो राजनीतिक माइलेज मिलने के साथ ही दूरगामी प्रभाव के रुप में अर्थ व्यवस्था को पटरी पर लाया जा सकता है।

हालांकि सरकार द्वारा लिए गए सभी निर्णय इस मायने में साहसिक रहे हैं कि यह निर्णय सरकार की छवि खराब करने, अर्थव्यवस्था को लेकर प्रश्न चिन्ह उठाने और सरकार की आर्थिक नीतियों को देशहित में नहीं बताने का माहौल बनाने के बावजूद सरकार रिस्क लेकर आगे बढ़ रही है। इतना तय है कि रिस्क लेने वाली सरकार ही गंभीर व दूरगामी प्रभाव वाले निर्णय ले सकती है।

-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

 

 

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