श्रीराम नेपाल के सियासी संग्राम की वजह

ओली शुरू से ही इस बात के लिए प्रयासरत थे की देश के वास्तविक मुखिया होने के नाते वे सता के केन्द्र में रहें। जबकि पार्टी के वरिष्ठ नेता ओली की शक्तियों में वृद्धि के खिलाफ थे। वे एक व्यक्ति एक पद का हवाला देते हुए ओली को पीएम पद या पार्टी के अध्यक्ष पद में से किसी एक पर रहने की मांग कर रहे थे। पार्टी के भीतर अपने विरूद्ध बगावती सुर तेज होते देखकर ओली ने अप्रत्याशित ढंग से संसद भंग करने की सिफारिश राष्ट्रपति से कर दी। संसद को भंग करने संबंधी ओली के फैसले से नाराज उनके मंत्रिमंडल के सात सदस्यों ने अपने पदों से त्यागपत्र दे दिया । यह सभी मंत्री प्रंचड गुट के बताये जा रहे हैं। निसंदेह ओली के इस अप्रत्याशित फैसले से नेपाल में राजनीतिक गतिरोध तो बढेÞगा ही देश के भीतर सियासी संघर्ष छिड़ने के आसार भी बन गए हैं।

पिछले कुछ समय से नेपाल में चल रही राजनीतिक उठा-पठक के बीच प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने राष्ट्रपति से संसद (प्रतिनिधि सभा) को भंग करने की सिफारिश कर देश में सियासी संकट पैदा कर दिया है। राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने मंत्रिमंडल के फैसले को स्वीकार करते हुए संसद को भंग कर देश में आम चुनाव कराए जाने की तारीखों का ऐलान कर दिया है। हालांकि नेपाल के नवीन संविधान में सदन को भंग किए जाने से संबंधित प्रावधान न होने के कारण ओली के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दिए जाने की संभावना है। अगर सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति द्वारा जारी आदेश को रद्द कर देती है, तो देश में आपातकाल लागू हो सकता है।

बीते कुछ समय से नेपाल में सियासी कलह चरम पर थी। देश और पार्टी के मोर्चे पर ओली सरकार दो तरफा संकटों से घिरी हुई थी। एक ओर जहां देश के भीतर प्रजातंत्र को खत्म करने व राजशाही को बहाल करने की मांग को लेकर युवा सड़कों पर उतरे हुए थे। वहीं दूसरी ओर पार्टी के सह अध्यक्ष पुष्प कमल दहल प्रचंड, माधव कुमार नेपाल और झालानाथ खनान जैसे वरिष्ठ नेता ओली पर पार्टी और सरकार को मनमाने ढंग से चलाने के आरोप लगा रहे थे।

साल 2017 में केपी शर्मा ओली के नेतृत्व में तत्कालीन कम्यूनिस्ट पार्टी आॅफ नेपाल (यूएमएल) और प्रंचड के नेतृत्व वाली कम्यूनिस्ट पार्टी आॅफ नेपाल (माओवादी) संयुक्त गठबंधन बनाकर चुनाव मैदान में उतरी थी। चुनावों में ओली और प्रचंड के गठबंधन को जबरदस्त सफलता मिली । गठबधन ने चुनाव में दो-तिहाई बहुमत हासिल कर नेपाल में सरकार बनायी और ओली गठबंधन सरकार में प्रधानमंत्री बने। साल 2018 में दोनों दलों के विलय के बाद केपी शर्मा ओली को एकीकृत पार्टी का अध्यक्ष भी बना दिया गया।

दूसरी ओर, सीपीएन (माओवादी) के नेता पुष्प कमल दहल प्रंचड एकीकृत पार्टी के सह अध्यक्ष बने। लेकिन थोड़े समय बाद ही अधिकार शक्ति को लेकर पार्टी में संघर्ष का दौर शुरू हो गया। ताजा घटनाक्रम ने उस समय तूल पकड़ा जब प्रधानमंत्री ओली ने संवैधानिक परिषद् से संबंधित अध्यादेश को लागू करवाया। पार्टी ओली पर उस अध्यादेश को वापस लेंने का दबाव बना रही थी। भ्रष्टाचार के खात्मे और चीन के साथ दोस्ती को मजबूत करने के वादे के साथ सत्ता में आए ओली पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लग रहे थे। इस बीच ओली पर चीन की राजदूत हाओ यांकी के इशारों पर चलने के आरोप भी लगे थे।

दरअसल, सत्ता संघर्ष की यह पृष्ठभूमि उसी वक्त लिखी जा चुकी थी, जब अप्रैल माह में ओली ने नेपाल की राजनीतिक व्यवस्था में स्वयं को स्थापित करने के लिए संविधान परिषद् अध्यादेश को लागू करने की सिफारिश राष्ट्रपति से की थी। इस अध्यादेश के लागू हो जाने के बाद पीएम ओली को प्रतिनिधि सभा के अध्यक्ष और विपक्ष के नेता की सहमति के बिना विभिन्न संवैधानिक संस्थाओं के सदस्यों और अध्यक्ष पदों पर नियुक्ति का अधिकार प्राप्त हो गया था। इस अध्यादेश को लेकर विपक्षी नेताओं सहित ओली की स्वयं की पार्टी के भीतर विरोध के स्वर उठने लगे और अध्यादेश को वापस लिये जाने की मांग जोर पकड़ने लगी। पूर्व प्रधानमंत्री व पार्टी के वरिष्ठ नेता प्रंचड ने तो यहां तक कह दिया है कि प्रधानमंत्री का फैसला संविधान की भावना के खिलाफ है। यदि सरकार इस अध्यादेश को वापस नहीं लेती है, तो पार्टी सरकार के विरूद्ध आंदोलन छेडेÞगी।

नेपाल में तेजी से घट रहे घटनाक्रम से पहले ओली ने रविवार की सुबह अपने निवास पर कैबिनेट की आपात बैठक बुलाई थी। उस समय लग रहा था शायद ओली अध्यादेश को वापिस लेने के लिए सहमत हो जाएं। नेपाली मीडिया में भी इस तरह की खबरें आई थी कि ओली विवादास्पद अध्यादेश को वापस लेने के लिए सहमत हो गए हैं। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। कैबिनेट की बैठक में संसद को भंग करने का फैसला लेकर वे सीधे राष्ट्रपति भवन पहुंचे और मंत्रिमंडल के निर्णय से राष्ट्रपति को अवगत करवाते हुए संसद को भंग किये जाने की सिफारिश कर दी। कहा तो यह भी जा रहा है कि बैठक में मंत्रिमंडल के सभी मंत्री उपस्थित नहीं थे। ओली के फैसले से एक दिन पहले ही विपक्षी दलों ने राष्ट्रपति से संसद का विशेष सत्र बुलाने का भी आग्रह किया था। ऐसे में ओली ने संभावित खतरे को भांपकर संसद भंग करना ही उचित समझा।

ओली शुरू से ही इस बात के लिए प्रयासरत थे की देश के वास्तविक मुखिया होने के नाते वे सता के केन्द्र में रहें। जबकि पार्टी के वरिष्ठ नेता ओली की शक्तियों में वृद्धि के खिलाफ थे। वे एक व्यक्ति एक पद का हवाला देते हुए ओली को पीएम पद या पार्टी के अध्यक्ष पद में से किसी एक पर रहने की मांग कर रहे थे। पार्टी के भीतर अपने विरूद्ध बगावती सुर तेज होते देखकर ओली ने अप्रत्याशित ढंग से संसद भंग करने की सिफारिश राष्ट्रपति से कर दी। संसद को भंग करने संबंधी ओली के फैसले से नराज उनके मंत्रिमंडल के सात सदस्यों ने अपने पदों से त्यागपत्र दे दिया । यह सभी मंत्री प्रंचड गुट के बताये जा रहे हैं।

निसंदेह ओली के इस अप्रत्याशित फैसले से नेपाल में राजनीतिक गतिरोध तो बढेगा ही देश के भीतर सियासी संघर्ष छिड़ने के आसार भी बन गए हैं। ऐसे में भारत को नेपाल के घटनाक्रम पर निगाह रखनी होगी। क्योंकि इस पूरे मामले पर चीन की भी पैनी निगाहें हैं।

                                                                                                          -डॉ. एन.के. सोमानी

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