बिल वापसी कृषि समस्याओं का हल नहीं

Governments dwarfed in agriculture and farmer welfare

तीन कृषि बिल जिन्हें लेकर किसान पिछले एक साल से विरोध कर रहे थे, उन पर आखिर केंद्र सरकार झुक गई और किसान बिलों को वापिस लेने की घोषणा स्वंय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कर दी है। किसान बिल वापिसी से यहां किसानों में राहत एवं खुशी की लहर दौड़ी है वहीं विपक्षी दलों को इस कदम से राजनीति के और ज्यादा पेचिदा हो जाने का एहसास हो गया है। 2022 की शुरूआत में ही पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं जिनमें पंजाब एवं उत्तर प्रदेश का चुनाव बेहद चर्चा का विषय बन चुका है। दोनों ही प्रदेश कृषि प्रधान हैं और भाजपा को यहां आगामी चुनावों में उतरने के लिए जमीनी स्तर पर बहुत ज्यादा मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था। किसान बिल वापिस लेकर केन्द्र सरकार चला रही भाजपा ने अपने लिए चुनावी राहें आसान करने का एक प्रयास किया है। राजनीति से इतर केन्द्र द्वारा पारित तीनों कृषि बिलों एवं इससे उपजे देशव्यापी किसान आंदोलन ने कई सवाल खड़े कर दिए, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण यह कि अगर ये बिल वापिस ही लिए जाने थे तब इन्हें जल्दबाजी में पारित ही क्यों किया गया?

सरकार ने कृषि बिलों को तैयार करने से पहले किसानों व कृषि विशेषज्ञों की राय क्यों नहीं ली? अगर किसान या कृषि विशेषज्ञों की राय ली भी थी तब उसे माना क्यों नहीं? अब अगर एक साल बाद सरकार किसानों की बात मान गई तब 700 से अधिक किसानों की जान लेने व एक साल तक पूरे किसान वर्ग को सड़कों पर बैठाकर आखिर सरकार ने हासिल क्या किया? किसान बिलों में सरकार की सोच व किसानों की सोच में अगर अंतर की बात भुला भी दें तब भी देश के सामने एक बहुत बड़ा सवाल है कि कृषि क्षेत्र को सुधारों की बेहद दरकार है और कृषि को मरणासन्न हालत में और ज्यादा देर तक नहीं रखा जा सकता। अत: वो नवीन परिवर्तन कौन से हों जिससे कृषि, कृषक व अर्थव्यवस्था तीनों का कायाकल्प हो सके, उस पर सरकार राजनीति दलों किसी में भी कोई चिंता या तीव्रता नजर नहीं आ रही। हाल के वापिस लिए तीनों कृषि बिल सरकार का एक प्रयास था कि कृषि को कॉरपोरेट के हवाले कर दिया जाए और सरकार इस क्षेत्र से स्वंय भी बाहर हो ले और किसानों को भी खींच बाहर कर दे जिसमें कि सरकार विफल ही नहीं बुरी तरह से विफल हो चुकी है। कॉरपोरेट जगत का यहां भी कुछ नहीं बिगड़ा, पूरे एक साल तक सरकार व किसान ही उलझे रहे।

परन्तु यहां किसानों की एक चिंता शायद पूरे देश के समझ आ चुकी है कि खाने-पीने की श्रृंखला में कॉरपोरेट की घुसपैठ बेहद खतरनाक है क्योंकि कॉरपोरेट को सामाजिक सरोकारों से कुछ भी लेना-देना नहीं है वह सिर्फ अपने मुनाफे से मतलब रखता है। कृषि किसी भी देश का ऐसा क्षेत्र है जिसके आर्थिक से सामाजिक सरोकार ज्यादा हैं। जिस तरह की भारत की आबादी है ऐसे में कृषि को सामाजिक व्यवस्था में ही नवीकृत किया जाए तब यह पूरे देश के हित में है। कृषि को सामाजिक व्यवस्था से निकालकर विशुद्ध रूप से कॉरपोरेट के हवाले करना न केवल किसानों को बेमौत मारना है बल्कि देश की संवैधानिक संस्थाओं खासकर संसद व विधान सभाओं को पूरी तरह से दांव पर लगाना है। देर से ही सही भाजपा ने किसान बिलों को वापिस लेकर न केवल लोकतंत्र बचा लिया है, बल्कि अपना आप भी बचा लिया है, भले ही भाजपा आज एकआध बार कोई चुनाव हार भी क्यों न जाए।

 

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