नफरत नहीं, प्यार बांटों

Politics
सांकेतिक फोटो

पंजाब के चंद राजनेता विधान सभा चुनाव के बाद भी अपने नफरते भरे भाषण देने से संकोच नहीं आ रहे हैं। चुनावों में जीत-हार वास्तविक्ता है, इसीलिए विजेता उम्मीदवारों को लोगों की सेवा करने का अवसर प्राप्त होता है और पराजित दल विपक्ष के तौर पर अपनी भूमिका निभाता है, लेकिन कुछ आदतन मजबूर नेता अब भी नफरत की बोली बोल रहे हैं। उक्त नेताओं का जनता के मुद्दों और विकास कार्यों से कोई लेना-देना नहीं। चुनावों से पहले भी इन्होंने समाज में नफरत फैलाने और फूट डालने के प्रयास कर अपनी राजनीतिक दुकानदारी चलाई थी लेकिन कामयाब नहीं हो सके। राजनीति विचारों से होती है लेकिन चतुराई केवल राजनीतिक दुकानदारी पर चलती है। बाकी लोकतंत्र में आइना जनता ही दिखाती है।

अब चुनाव के बाद नफरत की दूसरी पारी शुरू नहीं करनी चाहिए। लोगों को सदा मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। धर्मों और विश्वास के नाम पर बांटने वाले इंसानियत से खाली होते हैं। ऐसे कारनामे ना तो समाज के लिए सही होते हैं और ना ही उस नेता या किसी समूह का भला होता है। राजनेताओं को राजनीतिज्ञ होना चाहिए, न कि वह समाज में नफरत के पैंतरे चलाकर धर्मों के नाम पर भड़काने की कोशिश करें। यूं भी कुछ नेता इतने चतुर हैं कि बातें भी धर्म, भाईचारे और सद्भावना से करेंगे लेकिन बहुत चालाकी से नफरत के संदेश भी दे जाते हैं। यह भी वास्तविक्ता है कि आदत कुदरत से दूसरी जगह है जो किसी की आदत बन जाती है, वह जाती नहीं, निंदा करने वाला निंदक ही रह जाता है वह हर वक्त निंदा ही करता रहता है, निंदा उसे अच्छी लगती है।

निंदा करने वाले नेता निंदा और अलोचना का अंतर समझने में चूक जाते हैंं। तकनीकी भाषा में अलोचना सकारात्मक विषय है और निंदा नाकारात्मक। अलोचना के नाम पर निंदा करना विकार है जो केवल बदनामी लेने का रास्ता है। जहां तक राजनीतिक क्षेत्र का संबंध है, एक आदर्श नेता अपनी या पार्टी की हार स्वीकार करता है और लोगों के फैसले को स्वीकार करता है। दरअसल राजनीति केवल जीत या सत्ता का ही नाम नहीं है। विशेष तौर पर लोकतंत्र में तो विरोधी पक्ष को ‘शैडो कैबिनेट’ भी कहा जाता है। सरकार न बनने की बौखलाहट की अपेक्षा विपक्षी दल का धर्म बनाना चाहिए यह कर्तव्य भी है और जिम्मेवारी भी।

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