हर एक दिल में है, इस ईद की खुशी

Heart, Edd

दुनिया भर के मुसलमानों के लिए ईद-उल-फित्र की बेहद अहमियत है। यह त्यौहार इस्लाम के अनुयायियों के लिए एक अलग ही खुशी लेकर आता है। ईद के शाब्दिक मायने ही ‘बहुत खुशी का दिन’ है। ईद का चांद आसमां में नजर आते ही माहौल में एक गजब का उल्लास छा जाता है। हर तरफ रौनक ही रौनक अफरोज हो जाती है। चारों तरफ मोहब्बत ही मोहब्बत नजर आती है। एक मुकद्दस खुशी से दमकते सभी चेहरे इंसानियत का पैगाम माहौल में फैला देते हैं।

शायर मोहम्मद असदुल्लाह ईद की कैफियत कुछ यूं बयां करते हैं, ‘‘महक उठी है फजा पैरहन की खुशबू से/चमन दिलों का खिलाने को ईद आई है।’’ कुरआन के मुताबिक पैगंबरे इस्लाम ने फरमाया है कि ‘‘जब अहले ईमान रमजान के पवित्र महीने के एहतेरामों से फारिग हो जाते हैं और रोजों-नमाजों तथा उसके तमाम कामों को पूरा कर लेते हैं, तो अल्लाह एक दिन अपने उक्त इबादत करने वाले बंदों को बख्शीश व इनाम से नवाजता है। इसलिए इस दिन को ईद कहते हैं और इसी बख्शीश व इनाम के दिन को ईद-उल फित्र का नाम देते हैं।’’

रमजान इस्लामी कैलेंडर का नौवां महीना है। इस्लाम के अनुयायियों के लिए रमजान महीने की अहमियत इसलिए भी है कि इन्हीं दिनों पैगम्बर हजरत मोहम्मद साहब के जरिए अल्लाह की अहम किताब कुरान शरीफ जमीन पर उतरी थी। यही वजह है कि इस पूरे महीने मुस्लिम भाई-बहिन रोजे रखते हैं और अपना ज्यादातर वक्त इबादत-तिलावतों (नमाज पढ़ना और कुरान पाठ) में गुजारते हैं। रमजान माह के रोजे मुसलमानों के लिए फर्ज करार दिए गए हैं।

रोजों का महत्व इस मायने में है, ताकि इंसानों को भूख-प्यास का महत्व पता चले। भौतिक वासनाएं और लालच इंसान के वजूद से हमेशा के लिए जुदा हो जाएं और इंसान कुरआन के मुताबिक अपने आप को ढाल लें। रोजा जब्ते नफ्स यानी खुद पर काबू रखने की तरबियत देता है। रोजा रखनेवालों में परहेजगारी पैदा करता है।

लिहाजा रमजान का महीना इंसान को अशरफ और आला बनाने का महीना है। लेकिन यदि कोई सिर्फ अल्लाह की ही इबादत करे और उसके बंदों से मोहब्बत करने व उनकी मदद करने से हाथ पीछे खींचे, तो ऐसी इबादत को इस्लाम ने खारिज किया है। इस्लाम का पैगाम है-‘‘अगर अल्लाह की सच्ची इबादत करनी है तो उसके सभी बंदों से प्यार करो और हमेशा सबके मददगार बनो।

यह इबादत ही सही इबादत है। ईद की असल खुशी इसी में है।’’ यानी इंसान सामाजिक सरोकारों और भाईचारे से जुड़ा रहे। अपने कामों से किसी का दिल न दुखाए और न ही किसी का बुरा करे।

पैगम्बर हजरत मोहम्मद साहब ने फरमाया है कि ‘‘रमजान सब्र का महीना है। रोजा रखने में कुछ तकलीफ हो, तो इसे बर्दाश्त करें।’’ फिर आपने कहा कि ‘‘रमजान गम बांटने का महीना है। यानी गरीबों के साथ अच्छा बर्ताव किया जाए। अगर दस चीजें अपने रोजा इफ्तार के लिए लाए हैं तो दो-चार गरीबों के लिए भी लाएं। अपने इफ्तार व सहर के खाने में गरीबों का भी ख्याल रखें। अगर आपका पड़ोसी गरीब है, तो उसका खास तौर पर ख्याल रखें कि कहीं ऐसा न हो कि हम तो खूब पेट भर कर खा रहे हैं और हमारा पड़ोसी थोड़ा खाकर सो रहा है।’’

इस बारे में पैगम्बरे इस्लाम ने यहां तक फरमाया है कि ‘‘जो शख्स खुद पेट भर खाए और उसके पड़ोस में उसका पड़ोसी भूखा रह जाए, वह ईमान नहीं रखता।’’ रमजान महीने के खत्म होते ही दसवां माह शव्वाल शुरू होता है। माह की पहली चांद रात ईद की चांद रात होती है। इस रात का इंतजार मुस्लिम भाईयों को पूरे साल भर रहता है।

इस इंतजार की भी खास वजह होती है और वह इसलिए क्योंकि इस रात को दिखने वाले चांद से ही ईद-उल फितर का ऐलान होता है। बच्चे, बड़े-बूढ़े यानी घर के सभी छोटे-बड़े मेम्बर अपने-अपने घर की छतों पर चांद का दीदार करने इकट्ठे हो जाते हैं और चांद का दीदार होते ही, मुस्कराते हुए एक-दूसरे को मुबारकवाद देते हैं। ईद की आहट भर से खुशियों से उनके चेहरे दमकने लगते हैं।

पहली ईद-उल-फित्र पैगम्बर हजरत मोहम्मद साहब ने सन 624 ईसवी में जंग-ए-बदर के बाद मनाई थी। तब से यह त्यौहार हर साल सारी दुनिया में मनाया जाता है। इस दिन सभी मुसलमान ईदगाह या मस्जिद में इकट्ठे होकर दो रक्आत नमाज शुक्राने की अदा करते हैं। नमाज से पहले वे हाथ उठाकर यह नीयत बांधते हैं कि ‘‘ए अल्लाह, आपका शुक्रिया कि आपने हमारी इबादत कबूल की। इसके शुक्राने में हम दो रक्आत ईद की नमाज पढ़ रहे हैं।’’

नमाज के बाद मुसलमान भाई खुदा से पूरी दुनिया में सुख-शांति और बरकत के लिए दुआएं मांगते हैं। हां एक और महत्वपूर्ण बात, नमाज पढ़ने के लिए जाने से पहले सभी मुसलमान फितरा यानी जान व माल का सदका जो हर मुसलमान पर फर्ज होता है, वह गरीबों में बांटते हैं। सदका गरीबों की इमदाद का एक तरीका है। गरीब आदमी भी इस इमदाद से साफ और नये कपड़े पहनकर और अपना मनपसंद खाना खाकर अपनी ईद मना सकते हैं। इसके अलावा रमजान के महीने में आर्थिक रूप से सक्षम हर मुसलमान को अपनी सालाना आमदनी का ढाई फीसद गरीबों को दान में देना होता है।

इस दान को जकात कहते हैं। जकात हर मुसलमान पर फर्ज है। इस व्यवस्था के पीछे इस्लाम मजहब की यह सोच है कि हर जरूरतमंद तक मदद पहुंचे, जिससे वह भी ईद की खुशियों में शामिल हो सके। यह बात भी बतलाना लाजिमी होगी कि इस्लाम पांच प्रमुख स्तंभों पर टिका हुआ है, जिसमें रोजा और जकात भी शामिल है।

इस्लाम में अमीर-गरीब, छोटे-बड़े, उच्च जाति-निम्न जाति का कोई भेद-भाव नहीं। सभी एक समान हैं। लिहाजा सभी आपस में मिलकर यह त्यौहार मनाते है। ईद बुनियादी तौर पर आपस में भाईचारे को बढ़ावा देने वाला भी त्यौहार है। ईद की विशेष नमाज के बाद सभी एक-दूसरे से गले मिलकर ईद की मुबारकवाद देते हैं। दीगर मजहब को मानने वाले भी अपने मुस्लिम भाईयों से गले मिलकर ईद की मुबारकवाद देते हैं। ईद पर बच्चों का उत्साह और खुशियां देखते ही बनती हैं।

नए-नए कपड़े पहने चहकते-महकते बच्चे चारों तरफ एक खुशी का माहौल बना देते हैं। छोटों को अपने बड़ों से ईदी (पैसे या कोई तोहफा) मिलती है। हर घर में तरह-तरह की लजीज सेवईंया और पकवान बनते हैं। दोस्तों और रिश्तेदारों को सेवईंयों की दावत दी जाती है। कुल मिलाकर इस त्यौहार की खुशियां कई दिनों तक दिलों को रौनक करती रहती हैं।

मशहूर जनवादी शाईर नजीर अकबराबादी ने अपनी एक नज्.म में ईद-उल-फित्र के त्यौहार पर क्या खूब कहा है-‘‘ऐसी न शब-ए-बरात न बकरीद की खुशी/ जैसी हर एक दिल में है इस ईद की खुशी।’’

वसीमा खान

 

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