पेंडिंग मुकदमों की बढ़ती संख्या अन्याय

Chandigarh News
सांकेतिक फोटो

भारतीय न्याय व्यवस्था में न्याय मिलना कितना मुश्किल है, इन आंकड़ों से समझा जा सकता है। निचली अदालतों में 2.8 करोड़ से भी ज्यादा मामले पेडिंग हैं, यहां तक कि केवल यूपी में ही यह आंकड़ा 58.8 लाख है जिसमें से 43.7 लाख मामले आपराधिक हैं। सर्वोच्च न्यायालय में कुल लंबित मामलों की संख्या 62,301 हैं। उच्च न्यायालयों में लंबित मामलों में से 82 प्रतिशत ऐसे हैं जो दस साल से ज्यादा समय से वहां हैं और निचली अदालतों में करीब पांच हजार और उच्च न्यायालयों में करीब 45 प्रतिशत जजों के पद खाली हैं। ये आंकड़े न्याय व्यवस्था की उस चिंताजनक स्थिति को दशार्ते हैं। इसके संदर्भ में पूर्व मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने कहा था कि लंबित मामलों को निपटाने के लिए हमें करीब 70 हजार जजों की जरूरत है जबकि आज देश भर में केवल 18 हजार के लगभग जज ही हैं।

इन आंकड़ों से यह भी समझा जा सकता है कि न्याय की तलाश में जितने भी लोग न्यायालयों तक पहुंचते हैं, सालों-साल इंतजार करना ही उनकी नियति बन जाता है, लेकिन इससे भी दुखद यह है कि कई सालों के इंतजार के बाद जब इन मामलों का निपटारा होता है, तो फैसला पीड़ित के पक्ष में कम ही आ पाता है। औसतन 55 से 60 प्रतिशत मामलों में आरोपित बरी हो जाते हैं। साइबर अपराधों में तो 99 फीसदी आरोपित बच निकलते हैं। न्याय व्यवस्था की ऐसी स्थिति का एक मुख्य कारण तो यही है कि जब भी किसी मामले में न्यायिक प्रक्रिया शुरू होती है तो उसके साथ ही उस मामले को अपराधियों के पक्ष में धकेलने की भी प्रक्रिया शुरू हो जाती है। पुलिस की अहम भूमिका होती है और कई बार वही मामले को इतना कमजोर बना देती है कि न्यायालय के लिए आरोपित को दोषी सिद्ध करना लगभग असंभव हो जाता है, लेकिन पुलिसिया जांच और उसकी खामियां एक अलग चर्चा का विषय है।

फिलहाल हम न्यायिक प्रक्रिया और उसकी खामियों पर चर्चा करते हैं। ऐसे मामले कम ही होते हैं जब कोई जज ही घूस लेने के आरोप में दोषी साबित हो, लेकिन न्यायपालिका से जुड़े अन्य अधिकारियों में ईमानदार लोगों की संख्या उतनी ही है जितनी किसी अन्य सरकारी विभाग में होती है। अदालतों में पेशकार से लेकर पुकार लगाने वाले चपरासी तक खुलेआम जज के नाक के नीचे ही घूस लेते हैं लेकिन फिर भी न्यायापालिका का यह भ्रष्टाचार कभी चर्चा का विषय नहीं बनता। तीन बार सम्मन जारी होने के बाद भी यदि आरोपित अदालत नहीं आता तो उसके खिलाफ वारंट जारी हो जाते हैं। इस स्तर पर बार-बार सम्मन ही जारी करवाने के लिए पेशकार और थाने के पैरोकार घूस खाते हैं। ऐसा सरकारी वकीलों में भी देखा जाता है, लेकिन यह आवश्यक है कि ईमानदार सरकारी वकीलों की संख्या उतनी ही है जितनी ईमानदार पुलिस वालों की, ईमानदार आरटीओ अधिकारियों की या ईमानदार आईएएस अधिकारियों की। इसके बावजूद भी भारतीय न्यायपालिका पर आम लोगों का भरोसा किसी भी अन्य सरकारी व्यवस्था से कहीं ज्यादा है, लेकिन इस व्यवस्था में यदि सुधार नहीं किया जाता तो यह विश्वास कब तक बना रहेगा, कहना मुश्किल है।

 

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