संयमित भाषा ही उच्च राजनीति का आधार

राजनीति (Politics) और भाषा का गहरा संबंध है। काबिल राजनेता गंभीर से गंभीर बात को भी संयम व संकोच भरे शब्दों में कह देता है लेकिन स्वार्थी और अयोग्य नेता अपनी राजनीति चमकाने व मीडिया की सुर्खियां बटोरने के लिए भाषा का प्रयोग इतनी गैर-जिम्मेदारी से करते हैं कि वे समाज में नफरत बढ़ाते हैं। केंद्रीय मंत्री धर्मेंन्द्र प्रधान ने सख्त शब्दों में कहा है कि भारत में रहना है तो भारत माता की जय कहना ही पड़ेगा।

ऐसा कुछ ही उत्तर प्रदेश के एक पुलिस अधिकारी ने प्रदर्शन कर रहे युवाओं को पाकिस्तान जाने के लिए कह दिया। सरकार के शब्दों में नागरिकता संशोधन कानून स्पष्ट है जिसमें किसी को भी बाहर नहीं भेजा जा रहा है। न हिंदूओं, न मुस्लमानों को, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (Narendra Modi) व केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने रोष प्रदर्शन करने वालों को समझाने के लिए काफी दलीलें दी हैं। उनका उद्देश्य भड़के लोगों को शांत करना है।

अमन शान्ति देश की ताकत है और विकास के लिए जरूरी है। फिर भी कुछ नेता अपनी ही पार्टी की सरकार की परवाह न कर भड़काऊ बयानबाजी कर रहे हैं जो देश में रहना चाहता है वह भारत माता का शत्रु कैसे हो सकता है? जो भारत में रहना चाहता है उस पर दबाव बनाकर पाकिस्तान का हितैषी बनाने के पीछे भी कोई तुक नहीं। जब छोटे व मझोले नेता अमन व शांति की बातें करेंगे तब जनता में उसका प्रभाव भी अच्छा होता है, इसीलिए यह आवश्यक हो गया है कि वरिष्ठ नेता पंक्ति दो के नेताओं को मर्यादा का पाठ पढ़ाएं।

वास्तव में यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि केवल विवादित बयान से ही राजनीति (Politics)नहीं होती बल्कि यह देश की एकता से खिलवाड़ है। भाजपा के साथ-साथ विरोधी पार्टियों के नेताओं के तीखे प्रहार भी जारी हैं, जो देशहित में नहीं। देश के पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा की टिप्पणी भी उनके कद मुताबिक निम्न स्तर की है। देवगौड़ा का कहना है कि बेरोजगारी का कारण घुसपैठियों की मौजूदगी है।

हालांकि बेरोजगारी का मुद्दा बड़ा पेचीदा है जिसके कई पहलू हैं। 70 वर्ष की बेरोजगारी पर पहले कोई चर्चा नहीं हुई जिसमें घुसपैठियों का जिक्र हो। केवल कुछ कहना ही है इसके लिए बयान देना ठीक नहीं। राजनीति(Politics) में तर्क व तथ्य छोटे पड़ते जा रहे हैं जिसने देश को अनदेखा कर दिया है।

कभी राजनेताओं के बोले हुए शब्द कहावत व पथप्रदर्शक बनने की सामर्थ्य रखते थे अब जो बाद में दीवारों, पुस्तकों, मुद्रा, स्तम्भों पर लिखे जाते थे। अब अधिकतर नेताओं को अपने कहे पर या तो माफी मांगनी पड़ती है या फिर कहना पड़ता है कि उसके शब्दों को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया है अर्थात इनके बोल मूल्यहीन होकर कलहकारी हो गए हैं।

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