मजदूर दिवस पर विशेष: ये मेहनत की बूंदें, देश की बुनियाद

Labourer in 21st Century

नई दिल्ली (एजेंसी)। एक मई को मजदूर दिवस है। लेकिन विश्व में मजदूरों के हालत बद से बदतर है। जिनके चेहरे पर हल्की-सी उदासी और आंखों में काम मिलने की आशा दिखती है। दरअसल वें ‘मजदूर’ हैं। बड़ी-बड़ी इमारतें, बांध और सड़कों, सभी को मजदूर अपने खून और पसीने से सींचता है। अगर कोई सही मायने में देश का निर्माणकर्ता है तो वह मजदूर है। इतनी अहम् भूमिका निभाने वाले मजदूरों के हालात पूरे विश्व में कहीं भी ठीक नहीं हैं और उनकी समस्याएं लगातार बढ़ रही हैं, जिस पर विश्व श्रम संगठन सैकड़ों बार चिंता जाहिर कर कर चुका है। मजदूरों के हालात पर चिंतन के लिए ही एक मई को अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाया जाता है।

कैसे हुई अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस की शुरूआत

मई दिवस यानि अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस की शुरूआत 1 मई 1886 से मानी जाती है, जब अमेरिका में हजारों मजदूरों ने एक साथ मिलकर 15 घंटे काम कराने के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की थी। ये मजदूर यूनियनें 8 घंटे से ज्यादा समय तक काम कराने के विरोध में हड़ताल पर चली गई थीं। इसी हड़ताल के दौरान शिकागो की हेमार्केट में बम धमाका हुआ। यह बम किसने फेंका कोई पता न चल सका। इसके निष्कर्ष के तौर पर पुलिस ने मजदूरों पर गोलियां बरसा दी, जिसमें सात मजदूरों की जान चली गई।

भरोसेमंद गवाहों ने तस्दीक की कि पिस्तौलों की सभी फलैशें गली के केन्द्र की तरफ से आर्इं जहां पुलिस खड़ी थी और भीड़ की तरफ से एक भी फ्लैश नहीं आई। इससे भी आगे वाली बात, प्राथमिक अखबारी रिपोर्टों में भीड़ की तरफ से गोलीबारी का कोई ज़िक्र नहीं। इसके बाद 1889 में पेरिस में अंतरराष्ट्रीय महासभा की द्वितीय बैठक में एक प्रस्ताव पारित किया गया कि 1 मई को अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाए, तब से ही दुनिया के 80 देशों में मई दिवस को राष्ट्रीय अवकाश के रूप में मनाया जाने लगा।

भारत में चेन्नई से हुआ आगाज

भारत में एक मई का दिवस सबसे पहले चेन्नई (मद्रास) में 1 मई 1923 को मनाना शुरू किया गया था। उस समय इसको मद्रास दिवस के तौर पर प्रामाणित कर लिया गया था। इसकी शुरूआत भारती मजदूर किसान पार्टी के नेता कॉमरेड सिंगरावेलू चेट्यार ने शुरू की थी। भारत में मद्रास के हाईकोर्ट सामने एक बड़ा प्रदर्शन किया और एक संकल्प के पास करके यह सहमति बनाई गई कि इस दिवस को भारत में भी कामगार दिवस के तौर पर मनाया जाये और इस दिन छुट्टी का ऐलान किया जाये।

यही वो मौका था, जब पहली बार लाल रंग का झंडा मजदूर दिवस के प्रतीक के तौर पर देश में इस्तेमाल किया गया, जिसका स्वरूप आज भी ठीक वही है। दिन भारत समेत दुनियाभर में मजदूरों ने संगठित होकर अपने साथ हो रहे अत्याचारों और शोषण के खिलाफ आवाज बुलंद की थी और तभी से लेकर अब तक इस दिन को भारत में भी मजदूरों के हक का दिन माना जाने लगा और विश्वभर की तरह भारत में भी इसे विशेष दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।

देश की तरक्की कामगारों और किसानों पर निर्भर

महात्मा गांधी ने कहा था कि किसी देश की तरक्की उस देश के कामगारों और किसानों पर निर्भर करती है। उद्योगपति, मालिक या प्रबंधक समझने की बजाय अपने-आप को ट्रस्टी समझने लगे। लोकतन्त्रीय ढांचों में तो सरकार भी लोगों की तरफ से चुनी जाती है, जो राजनीतिक लोगों को अपने देश की बागडोर ट्रस्टी के रूप में सौंपते हैं। वह प्रबंध चलाने के लिए मजदूरों, कामगारों और किसानों की बेहतरी, भलाई और विकास, अमन और कानूनी व्यवस्था बनाए रखने के लिए वचनबद्ध होते हैं। मजदूरों और किसानों की बड़ी संख्या का राज प्रबंध में बड़ा योगदान है।

सरकार का रोल औद्योगिक शान्ति, उद्योगपतियों और मजदूरों दरमियान सुखदायक, शांतमयी और पारिवारिक संबंध कायम करना, झगड़े और टकराव की सूरत में उनका समझौता और सुलह करवाने का प्रबंध करना और उन के मसलों को औद्योगिक ट्रिब्यूनल कायम कर कर निरपेक्षता और पारदर्शी ढंग से कुदरती न्याय के उसूल के सिद्धांत अनुसार इंसाफ प्रदान करना और उन की बेहतरी के लिए समय-समय से कानूनी और विवरण प्रणाली निर्धारित करना है।

दृढ़ इच्छा शक्ति और आत्मविश्वास से मजदूर बने लाखों-करोड़ों के मालिक

बाड़मेर तेल और खनिजों के बूते आर्थिक उन्नति कर रहा है तो यहां के मेहनतकश लोगों ने भी खुद को इस ऊंचाई पर पहुंचाया है कि कल तक जिन्हें मजदूरी करते देखा था, आज सफलता की ऊंचाइयों पर पहुंचकर उदाहरण बन गए हैं। यहां के मजदूरों ने बाड़मेर के उत्पादों को सात समंदर पार पहुंचा दिया। ऐसे उदाहरण विरले ही मिलेंगे कि मजदूर इनकम टैक्स दे रहे हों और फर्राटेदार अंग्रेजी बोल रहे हों। कमाल तो यह भी है कि यहां मनरेगा में करोड़ों रुपए खर्च हो रहे हैं और इसका 90 प्रतिशत कार्य महिलाएं कर रही हैं।

यहां मजदूर देते हैं इनकम टैक्स

बाड़मेर के एफसीआई गोदाम में कार्यरत मजदूर देश में अद्वितीय उदाहरण हैं। यहां 90 के दशक में लगे इन मजदूरों को नियमित कर दिया गया और साथ ही इनके साथ एक शर्त थी कि तनख्वाह के साथ अतिरिक्त भार उठाएंगे तो उन्हें इसके लिए प्रति क्विंटल अतिरिक्त राशि दी जाएगी। ज्यादा बैग होने पर प्रति बोरी यह राशि दुगुनी और तिगुनी हो जाती है। निगम में गिनती के मजदूर लगे हुए हैं। नियमानुसार सारा अनाज खाली करवाने और चढ़ाने की जिम्मेदारी इनकी ही है। जिले में इतनी बड़ी मात्रा में अनाज आता है कि इन मजदूरों की मासिक आय 80 हजार से एक लाख रुपए तक पहुंच जाती है। अब ये मजदूर इनकम टैक्स दे रहे हैं।

मेरी आपत्ति मशीन से नहीं, मशीन के प्रति सनक को लेकर है। इसी सनक का नाम श्रम की बचत करने वाली मशीने हैं। हम उस सीमा तक श्रम की बचत करते जाएंगे, जब तक कि हजारों लोग बेरोजगार होकर भूखों मरने के लिए सड़कों पर नहीं फेंक दिए जाते।
महात्मा गांधी

 

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